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जान लें हम सर्वगुण सम्पन्न तो यहां कोई नहीं होता
अच्छाई-बुराई सब साथ चले, मन यूं ही दुख में रोता
राम-रावण जीवन्त हैं यहां, किस-किस की बात करें
अन्तद्र्वन्द्व में जी रहे, नहीं जानते, कौन कहां सजग होता
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भोर का सूरज
भोर का सूरज जीवन की आस देता है
भोर का सूरज रोशनी का भास देता है
सुबह से शाम तक ढलते हैं जीवन के रंग
भोर का सूरज नये दिन का विश्वास देता है
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प्रकृति का सौन्दर्य निरख
सांसें
जब रुकती हैं,
मन भीगता है,
कहीं दर्द होता है,
अकेलापन सालता है।
तब प्रकृति
अपने अनुपम रूप में
बुलाती है
समझाती है,
खिलते हैं फूल,
तितलियां पंख फैलाती हैं,
चिड़िया चहकती है,
डालियां
झुक-झुक मन मदमाती हैं।
सब कहती हैं
समय बदलता है।
धूप है तो बरसात भी।
आंधी है तो पतझड़ भी।
सूखा है तो ताल भी।
मन मत हो उदास
प्रकृति का सौन्दर्य निरख।
आनन्द में रह।
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अगर तुम न होते
अगर तुम न होते
तो दिन में रात होती।
अगर तुम न होते
तो बिन बादल बरसात होती।
अगर तुम न होते
तो सुबह सांझ-सी,
और सांझ
सुबह-सी होती।
अगर तुम न होते
तो कहां
मन में गुलाब खिलते
कहां कांटों की चुभन होती।
अगर तुम न होते
तो मेरे जीवन में
कहां किसी की परछाईं न होती।
अगर तुम न होते
तो ज़िन्दगी
कितनी निराश होती।
अगर तुम न होते
तो भावों की कहां बाढ़ होती।
अगर तुम न होते
तो मन में कहां
नदी-सी तरलता
और पहाड़-सी गरिमा होती।
अगर तुम न होते
तो ज़िन्दगी में
इन्द्रधनुषी रंग न होते ।
अगर तुम न होते
कहां लरजती ओस की बूंदें
कहां चमकती चंदा की चांदनी
और कहां
सुन्दरता की चर्चा होती।
.
अगर तुम न होते
-
ओ मेरे सूरज, मेरे भानु
मेरे दिवाकर, मेरे भास्कर
मेरे दिनेश, मेरे रवि
मेरे अरुण
-
अगर तुम न होते।
अगर तुम न होते ।
अगर तुम न होते ।
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इस रंगीन शाम में
इस रंगीन शाम में आओ पकड़म-पकड़ाई खेलें
तुम थामो सूरज, मैं चन्दा, फिर नभ के पार चलें
बदली को हम नाव बनायें, राह दिखाएं देखो पंछी
छोड़ो जग-जीवन की चिंताएं,चल हंस-गाकर जी लें
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अपना मान करना सीख
आधुनिकता के द्वार पर खड़ी नारी
कहने को आकाश छू रही है
पाताल नाप रही है
पुरुषों के साथ
कंधे से कंधा मिलाकर
चलने की शान मार रही है
घर-बाहर दोनों मोर्चों पर
जीतती नज़र आ रही है।
अपने अधिकारों की बात करती
कहीं भी कमतर
नज़र न आ रही है।
किन्तु यहां
क्यों मौन साध रही है?
न मोम की गुड़िया है,
न लाचार, अपंग।
फिर क्यों इस मोर्चे पर
हर बार
पराजित-सी हार रही है।
.
पाखण्डों और परम्पराओं में
भेद करना सीख।
अपने हित में
अपने लिए बात करना सीख।
रूढ़ियों और रीतियों में
पहचान करना सीख।
अपनी कोमल-कान्त छवि से
बाहर निकल
गलत-सही में भेद करना सीख।
आवाज़ उठा
अपने लिए निर्णय लेना सीख।
सिर उठा,
आंख तरेर, आंख दिखा
आंख से आंख मिला
न डर।
तर्क कर, वितर्क कर
दो की चार कर
अपनी राहें आप नाप
हो निडर।
अपने कंधे पर अपना हाथ रख
अपने हाथ में अपना हाथ ले
न डर।
सब बदल गये, सब बदल गया।
तू भी बदल।
अपना मान करना सीख।
अपना मान रखना सीख।
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नौ दिन बीतते ही
वर्ष में
बस दो बार
तेरे अवतरण की
प्रतीक्षा करते हैं
तेरे रूप-गुण की
चिन्ता करते हैं
सजाते हैं तेरा दरबार
तेरे मोहक रूप से
आंखें नम करते हैं
गुणगान करते हैं
तेरी शक्ति, तेरी आभा से
मन शान्त करते हैं।
दुराचारी
प्रवृत्तियों का
दमन करते हैं।
किन्तु
नौ दिन बीतते ही
तिरोहित कर
भूल जाते हैं
और लौट आते हैं
अपने चिर-स्वभाव में।
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जीवन संवर-संवर जाता है
बादलों की ओट से
निरखता है सूरज।
बदलियों को
रँगों से भरता
ताक-झाँक
करता है सूरज।
सूरज से रँग बरसें
हाथों में थामकर
जीवन को रंगीन बनायें।
लहरें रंग-बिरँगी
मानों कोई स्वर-लहरी
जीवन-संगीत संवार लें।
जब मिलकर हाथ बंधते हैं
तब आकाश
हाथों में ठहर-ठहर जाता है।
अंधेरे से निपटते हैं
जीवन संवर-संवर जाता है।
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संधान करें अपने भीतर के शत्रुओं का
ऐसा क्यों होता है
कि जब भी कोई गम्भीर घटना
घटती है कहीं,
देश आहत होता है,
तब हमारे भीतर
देशभक्ति की लहर
हिलोरें लेने लगती है,
याद आने लगते हैं
हमें वीर सैनिक
उनका बलिदान
देश के प्रति उनकी जीवनाहुति।
हुंकार भरने लगते हैं हम
देश के शत्रुओं के विरूद्ध,
बलिदान, आहुति, वीरता
शहीद, खून, माटी, भारत माता
जैसे शब्द हमारे भीतर खंगालने लगते हैं
पर बस कुछ ही दिन।
दूध की तरह
उबाल उठता है हमारे भीतर
फिर हम कुछ नया ढूंढने लगते हैं।
और मैं
जब भी लिखना चाहती हूं
कुछ ऐसा,
नमन करना चाहती हूं
देश के वीरों को
बवंडर उठ खड़ा होता है
मेरे चारों ओर
आवाज़ें गूंजती हैं,
पूछती हैं मुझसे
तूने क्या किया आज तक
देश हित में ।
वे देश की सीमाओं पर
अपने प्राणों की आहुति दे रहे हैं
और तुम यहां मुंह ढककर सो रहे हो।
तुम संधान करो उन शत्रुओं का
जो तुम्हारे भीतर हैं।
शत्रु और भी हैं देश के
जिन्हें पाल-पोस रहे हैं हम
अपने ही भीतर।
झूठ, अन्याय के विरूद्ध
एक छोटी-सी आवाज़ उठाने से डरते हैं हम
भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी अनैतिकता
के विरूद्ध बोलने का
हमें अभ्यास नहीं।
काश ! हम अपने भीतर बसे
इन शत्रुओं का दमन कर लें
फिर कोई बाहरी शत्रु
इस देश की ओर
आंख उठाकर नहीं देख पायेगा।
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खास नहीं आम ही होता है आदमी
खास कहां होता है आदमी
आम ही होता है आदमी।
जो आम नहीं होता
वह नहीं होता है आदमी।
वह होता है
कोई बड़ा पद,
कोई उंची कुर्सी,
कोई नाम,
मीडिया में चमकता,
अखबारों में दमकता,
करोड़ों में खेलता,
किसी सौदे में उलझा,
कहीं झंडे गाढ़ता,
लम्बी-लम्बी हांकता
विमान से नीचे झांकता
योजनाओं पर रोटियां सेंकता,
कुर्सियों की
अदला-बदली का खेल खेलता,
अक्सर पूछता है
कहां रहता है आम आदमी,
कैसा दिखता है आम आदमी।
क्यों राहों में आता है आम आदमी।
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कितनी मनोहारी है जि़न्दगी
प्रतिदित प्रात नये रंग-रूप में खिलती है जि़न्दगी
हरी-भरी वाटिका-सी देखो रोज़ महकती है जि़न्दगी
कभी फूल खिेले, कभी फूल झरे, रंगों से धरा सजी
ज़रा आंख खोलकर देख, कितनी मनोहारी है जि़न्दगी