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काम है नहीं कोई
इसलिए इधर की उधर
उधर की इधर
करने में लगे हैं हम आजकल ।
अपना नहीं,
औरों का चरित्र निहारने में
लगे हैं आजकल।
पांव धरा पर टिकते नहीं
आकाश को छूने की चाहत
करने लगे हैं हम आजकल।
समय जब कटता नहीं
हर किसी की बखिया उधेड़ने में
लगे रहते हैं हम आजकल।
और कुछ न हो तो
नई पीढ़ी को कोसने में
लगे हैं हम आजकल।
सुनाई देता नहीं, दिखाई देता नहीं
आवाज़ लड़खड़ाती है,
पर सारी दुनिया को
राह दिखाने में लगे हैं हम आजकल।
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बस ! हार मत मानना
कहते हैं
धरती सोना उगलती है
ये बात वही जानता है
जिसके परिश्रम का स्वेद
धरा ने चखा हो।
गेहूं की लहलहाती बालियां
आकर्षित करती हैं,
सौन्दर्य प्रदर्शित करती हैं,
झूमती हैं, पुकारती हैं
जीवन का सार समझाती हैं ।
पता नहीं कल क्या होगा
मौसम बदलेगा
सोना घर आयेगा
या फिर मिट्टी हो जायेगा
कौन जाने ।
किन्तु
कृषक फिर उठ खड़ा होगा
अपने परिश्रम के स्वेद से
धरा को सींचने के लिए
बस ! हार मत मानना
फल तो मिलकर ही रहेगा
धरा यही समझाती हैं ।
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आपको चाहिए क्या पारिजात वृक्ष
कृष्ण के स्वर्ग पहुंचने से पूर्व
इन्द्र आये थे मेरे पास
इस आग्रह के साथ
कि स्वीकार कर लूं मैं
पारिजात वृक्ष, पुष्पित –पल्लवित
जो मेरी सब कामनाएं पूर्ण करेगा।
स्वर्ग के लिए प्रस्थान करते समय
कृष्ण ने भी पूछा था मुझसे
किन्तु दोनों का ही
आग्रह अस्वीकार कर दिया था मैंने।
लौटा दिया था ससम्मान।
बात बड़ी नहीं, छोटी-सी है।
पारिजात आ जाएगा
तब जीवन रस ही चुक जायेगा।
सब भाव मिट जायेंगे,
शेष जीवन व्यर्थ हो जायेगा।
जब चाहत न होगी, आहत न होगी
न टूटेगा दिल, न कोई दिलासा देगा
न श्रम का स्वेद होगा
न मोतियों सी बूंदे दमकेंगी भाल पर
न सरस-विरस होगा
न लेन-देन की आशाएं-निराशाएं
न कोई उमंग-उल्लास
न कभी घटाएं तो न कभी बरसात
रूठना-मनाना, लेना-दिलाना
जब कभी तरसता है मन
तब आशाओं से सरस होता है मन
और जब पूरी होने लगती हैं आशाएं-आकांक्षाएं
तब
पारिजात पुष्पों के रस से भी अधिक
सरस-सरस होता है मन।
मगन-मगन होता है मन।
बस
बात बड़ी नहीं, छोटी-सी है।
चाहत बड़ी नहीं, छोटी-सी है।
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स्वप्न हों साकार
तुम बरसो, मैं थाम लूं मेह की रफ्तार
न कहीं सूखा हो न धरती बहे धार धार
नदी, कूप, सर,निर्झर सब हों अमृतमय
शस्यश्यामला धरा पर स्वप्न हों साकार
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पावस की पहली बूंद
पावस की पहली बूंद
धरा तक पहुंचते-पहुंचते ही
सूख जाती है।
तपती धरा
और तपती हवाएं
नमी सोख ले जाती हैं।
अब पावस की पहली बूंद
कहां नम करती है मन।
कहां उमड़ती हैं
मन में प्रेम-प्यार,
मनुहार की बातें।
समाचार डराते हैं,
पावस की पहली बूंद
आने से पहले ही
चेतावनियां जारी करते हैं।
सम्हल कर रहना,
सामान बांधकर रख लो,
राशन समेट लो।
कभी भी उड़ा ले जायेंगी हवाएँ।
अब पावस की बूंद,
बूंद नहीं आती,
महावृष्टि बनकर आती है।
कहीं बिजली गिरी
कहीं जल-प्लावन।
क्या जायेगा
क्या रह जायेगा
बस इसी सोच में
रह जाते हैं हम।
क्या उजड़ा, क्या बह गया
क्या बचा
बस यही देखते रह जाते हैं हम
और अगली पावस की प्रतीक्षा
करते हैं हम
इस बार देखें क्या होगा!!!
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रिश्तों में
माता-पिता न मांगें कभी बच्चों से प्रतिदान।
नेह, प्रेम, अपनापन, सुरक्षा, नहीं कोई एहसान।
इन रिश्तों में लेन-देन की तुला नहीं रहती,
बदले में न मांगें बच्चों से कभी बलिदान।
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कवियों की पंगत लगी
कवियों की पंगत लगी, बैठे करें विचार
तू मेरी वाह कर, मैं तेरी, ऐसे करें प्रचार
भीड़ मैं कर लूंगा, तू अनुदान जुटा प्यारे
रचना कैसी भी हो, सब चलती है यार
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ओस की बूंदें
अंधेरों से निकलकर बहकी-बहकी-सी घूमती हैं ओस की बूंदें ।
पत्तों पर झूमती-मदमाती, लरजतीं] डोलती हैं ओस की बूंदें ।
कब आतीं, कब खो जातीं, झिलमिलातीं, मानों खिलखिलातीं
छूते ही सकुचाकर, सिमटकर कहीं खो जाती हैं ओस की बूंदें।
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कहत हैं रेत से घर नहीं बनते
मन से
अपनी राहों पर चलती हूं
दूर तक छूटे
अपने ही पद-चिन्हों को
परखती हूं
कहत हैं रेत से घर नहीं बनते
नहीं छूटते रेत पर निशान,
सागर पलटता है
और सब समेट ले जाता है
हवाएं उड़ती हैं और
सब समतल दिखता है,
किन्तु भीतर कितने उजड़े घर
कितने गहरे निशान छूटे हैं
कौन जानता है,
कहीं गहराई में
भीतर ही भीतर पलते
छूटे चिन्ह
कुछ पल के लिए
मन में गहरे तक रहते हैं
कौन चला, कहां चला, कहां से आया
कौन जाने
यूं ही, एक भटकन है
निरखती हूं, परखती हूं
लौट-लौट देखती हूं
पर बस अपने ही
निशान नहीं मिलते।
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चिराग जलायें बैठे हैं
घनघोर अंधेरे में
जुगनुओं को जूझते देखा।
गहरे सागर में
दीपक को राह ढूंढते
तिरते देखा।
गहन अंधेरी रातों में
चांद-तारे भी
भटकते देखे मैंने,
रातों की आहट से
सूरज को भी डूबते देखा।
और हमारी
हिम्मत देखो
चिराग जलायें बैठे हैं
चलो, राह दिखाएं तुमको।
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यह दिल की बात है
कभी दिल है
कभी दिलदार होगा ।
बादलों में
यूं हमारा नाम होगा ।
कभी होती है झड़ी
कभी चांद का रोब-दाब होगा ।
देखो , झांकती है रोशनी ।
कहती है दिलदार से
दीदार होगा ।
कभी टूटते हैं
कभी जुड़ते हैं दिल ।
इस बात का भी
कोई तो जवाबदार होगा ।
ज़रा-सी आह से
पिघल जाते हैं,
ऐसे दिल से दिल लगाकर,
कौन-सा सरोकार होगा ।
बदलते मौसम के आसार हैं ये ।
न दिल लगा
नहीं तो बुरा हाल होगा ।