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पता नहीं यह कैसे हो गया ?
मुझे, अपने पैरों के नीचे की ज़मीन की
फ़िसलन का पता ही न लगा
और आकाश की उंचाई का अनुमान।
बस एक कल्पना भर थी
एक आकांक्षा, एक चाहत।
और मैंने छलांग लगा दी ।
आकाश कुछ ज़्यादा ही उंचा निकला
और ज़मीन कुछ ज़्यादा ही चिकनी।
मैं थी बेखबर, आकाश पकड़ न सकी
और पैर ज़मीन पर टिके नहीं।
दु:ख गिरने का नहीं
क्षोभ चोट लगने का नहीं।
पीड़ा हारने की नहीं।
ये सब तो सहज परिणाम हैं,
अनुभव की खान हैं
किसी की हिम्मत के।
समय आत्ममंथन का।
कितना कठिन होता है
अपने आप से पूछना।
और कितना सहज होता है
किसी को गिरते देखना
उस पर खिलखिलाना
और ताली बजाना।
कितना आसान होता है
चारों ओर भीड़ का मजमा लगाना।
ढोल बजा बजा कर दुनिया को बताना।
जख़्मों को कुरेद कुरेद कर दिखाना।
और कितना मुश्किल होता है
किसी के जख़्मों की तह तक जाना
उसकी राह में पड़े पत्थरों को हटाना
और सही मौके पर सही राह बताना।
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मन में बस सम्बल रखना
चिड़िया के बच्चे सी
उतरी थी मेरे आंगन में।
दुबकी, सहमी सी रहती थी
मेरे आंचल में।
चिड़िया सी चीं-चीं करती
दिन भर
घर-भर में रौनक भरती।
फिर कब पंख उगे
उड़ना सिखलाया तुझको।
धीरे धीरे भरना पग
समझाया तुझको।
दुर्गम हैं राहें,
तपती धरती है,
कंकड़ पत्थर बिखरे हैं,
कदम सम्हलकर रखना
बतलाया तुझको।
हाथ छोड़कर तेरा
पीछे हटती हूं।
अब तुझको
अपने ही दम पर
है आगे बढ़ना।
हिम्मत रखना।
डरना मत ।
जब मन में कुछ भ्रम हो
तो आंखें बन्द कर
करना याद मुझे।
कहीं नहीं जाती हूं
बस तेरे पीछे आती हूं।
मन में बस इतना ही
सम्बल रखना।
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चल आज गंगा स्नान कर लें
चल आज गंगा स्नान कर लें
पाप-पुण्य का लेखा कर लें
अगले-पिछले पाप धो लें
स्वर्ग-नरक से मुक्ति लें लें
*
भीड़ पड़ी है भारी देख
कूड़ा-कचरा फैला देख
अपने मन में मैला देख
लगा हुआ ये मेला देख
वी आई का रेला देख
चुनावों का आगाज़ तू देख
धर्मों का अंदाज़ तू देख
धर्मों का उपहास तू देख
नित नये बाबाओं का मेला देख
हाथी, घोड़े, उंट सवारी
उन पर बैठे बाबा भारी
मोटी-मोटी मालाएं देख
जटाओं का ;s स्टाईल तू देख
लैपटाप-मोबाईल देख
इनका नया अंदाज़ यहां
नित नई आवाज़ यहां
पण्डों-पुजारियों के पाखण्ड तू देख
नये-पुराने रिवाज़ तू देख
बाजों-गाजों संग आगाज़ तू देख।
पैसे का यहां खेला देख
अपने मन का मैला देख
चल आज गंगा स्नान कर लें
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एक किरण लेकर चला हूँ
रोशनियों को चुराकर चला हूँ,
सिर पर उठाकर चला हूँ।
जब जहां अवसर मिलेगा
रोश्नियां बिखेरने का
वादा करके चला हूँ।
अंधेरों की आदत बनने लगी है,
उनसे दो-दो हाथ करने चला हूँ।
जानता हूं, है कठिन मार्ग
पर अकेल ही अकेले चला हूँ।
दूर-दूर तक
न राहें हैं, न आसमां, न जमीं,
सब तलाशने चला हूं।
ठोकरों की तो आदत हो गई है,
राहों को समतल बनाने चला हूँ।
कोई तो मिलेगा राहों में,
जो संग-संग चलेगा,
साथ उम्मीद की, हौंसलों की भी
एक किरण लेकर चला हूँ।
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हिन्दी की हम बात करें
शिक्षा से बाहर हुई, काम काज की भाषा नहीं, हम मानें या न मानें
हिन्दी की हम बात करें , बच्चे पढ़ते अंग्रेज़ी में, यह तो हम हैं जाने
विश्वगुरू बनने चले , अपने घर में मान नहीं है अपनी ही भाषा का
वैज्ञानिक भाषा को रोमन में लिखकर हम अपने को हिन्दीवाला मानें
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चल आज लड़की-लड़की खेलें
चल आज लड़की-लड़की खेलें।
-
साल में
तीन सौ पैंसठ दिन।
कुछ तुम्हारे नाम
कुछ हमारे नाम
कुछ इसके नाम
कुछ उसके नाम।
रोज़ सोचना पड़ता है
आज का दिन
किसके नाम?
कुछ झुनझुने लेकर
घूमते हैं हम।
आम से खास बनाने की
चाह लिए
जूझते हैं हम।
समस्याओं से भागते
कुछ नारे
गूंथते हैं हम।
कभी सरकार को कोसते
कभी हालात पर बोलते
नित नये नारे
जोड़ते हैं हम।
हालात को समझते नहीं
खोखले नारों से हटते नहीं
वास्तविकता के धरातल पर
चलते नहीं
सच्चाई को परखते नहीं
ज़िन्दगी को समझते नहीं
उधेड़-बुन में लगे हैं
मन से जुड़ते नहीं
जो करना चाहिए
वह करते नहीं
बस बेचारगी का मज़ा लेते हैं
फिर आनन्द से
अगले दिन पर लिखने के लिए
मचलते हैं।
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आत्म संतोष क्या जीवन की उपलब्धि है
प्रायः कहा जाता है कि जीवन में आत्म-संतोष ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है, यही परम संतोष है।
किन्तु आत्म संतोष क्या है?
क्या अपनी इच्छाओं, अभिलाषाओं का दमन आत्म-संतोष का मार्ग है?
वास्तविक धरातल पर जीवन जीना जितना कठिन और कटु है उपदेश देना और सुनाना उतना ही सरल।
पर उपदेश कुशल बहुतेरे।
वर्तमान उलझनों भरे जीवन, भागम-भाग की जीवन शैली, प्रतियोगिताओं, एक-दूसरे से आगे निकल जाने की दौड़, प्रतिदिन कुछ नया पाने की चाहत, पुरातनता और नवीनता के बीच उलझते, परम्पराओं, संस्कृति और आधुनिकतम जीवन शैली; तब आत्म संतोष कहाँ और परम संतोष कहाँ! हम अपनी इच्छाओं, आवश्यकताओं को किसी सीमा में नहीं बांध सकते, क्योंकि हमारी इच्छाएँ और सीमाएँ केवल हमारी नहीं होती, हमारे परिवेश से जुड़ी होती हैं।
आत्म संतोष की सीमा क्या है, कौन सा द्वार है जहाँ पहुँच कर हम यह समझ लें कि अब बस। जीवन की समस्त उपलब्धियाँ प्राप्त कर ली हमने। अब परम धाम चलते हैं। क्या ऐसा सम्भव है?
जी नहीं, बनी-बनाई उपदेशात्मक सूक्तियाँ सुना देना, कुछ आप्त वाक्य बोल देना, ग्रंथों से सूक्तियाँ उद्धृत करना और यह कहना कि हममें आत्म संतोष होना चाहिए और वह ही परम संतोष है, किसी के भी जीवन का सबसे बड़ा झूठ और छल है।
हम यह नहीं कह सकते कि आत्म-संतोष मिल गया और हम परम संतोष की अवस्था में पहुँच गये।
मेरे विचार में आत्म संतोष क्षणिक है, सीमित है, इसका विस्तार जीवनगत नहीं है। जैसे हम कहते हैं आज मेरे बच्चे को मेरा बनाया भोजन बहुत पसन्द आया, मुझे आत्म संतोष मिला। अथवा आज मैंने किसी की सहायता की, मन आत्म-संतोष से भर गया, और मैं परम संतोष की अवस्था में पहुँच गई। अथवा मेरे व्यवहार से वे प्रसन्न हुए, मुझे आत्म-संतोष मिला अथवा परम संतोष मिला।
संतोष की अन्तिम स्थिति हमारे जीवन में सम्भव ही नहीं क्योंकि हम सामाजिक, पारिवारिक प्राणी हैं और आत्म संतोष एवं परम संतोष के लिए प्रतिदिन हम प्रयासरत रहते हैं।
सामाजिक जीवन में, समाज में रहते हुए, अपनी इच्छाओं का दमन करना आत्म संतोष नहीं है, आत्म-संतोष है जीवन में उपलब्धि, लक्ष्य की प्राप्ति, सफ़लता। जीवन में आत्म संतोष किसी एक कार्य से नहीं मिलता, प्रति दिन और बार-बार किये जाने वाले कार्यों से मिलता रहता है, यह एक आजीवन प्रक्रिया है।
अतः आत्म संतोष अथवा परम संतोष जीवन की चरम प्राप्ति अथवा उपलब्धि नहीं है, हमारे कार्यों, व्यवहार से उपजा भाव है जिसकी प्राप्ति के लिए हम हर समय प्रयासरत रहते हैं।
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यादों का पिटारा
इस डिब्बे को देखकर
यादों का पिटारा खुल गया।
भूली-बिसरी चिट्ठियों के अक्षर
मस्तिष्क पटल पर
उलझने लगे।
हरे, पीले, नीले रंग
आंखों के सामने चमकने लगे।
तीन पैसे का पोस्ट कार्ड
पांच पैसे का अन्तर्देशीय,
और
बहुत महत्वपूर्ण हुआ करता था
बन्द लिफ़ाफ़ा
जिस पर डाकघर से खरीदकर
पचास पैसे का
डाक टिकट चिपकाया करते थे।
पत्र लिखने से पहले
कितना समय लग जाता था
यह निर्णय करने में
कि कार्ड प्रयोग करें
अन्तर्देशीय या लिफ़ाफ़ा।
तीन पैसे और पचास पैसे में
लाख रुपये का अन्तर
लगता था
और साथ ही
लिखने की लम्बाई
संदेश की सच्चाई
जीवन की खटाई।
वृक्षों पर लटके ,
सड़क के किनारे खड़े
ये छोटे-छोटे लाल डब्बे
सामाजिकता का
एक तार हुआ करते थे
अपनों से अपनी बात करने का,
दूरियों को पाटने का
आधार हुआ करते थे
द्वार से जब सरकता था पत्र
किसी अपने की आहट का
एहसास हुआ करते थे।
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रोशनी की परछाईयां भी राह दिखा जाती हैं
अजीब है इंसान का मन।
कभी गहरे सागर पार उतरता है।
कभी
आकाश की उंचाईयों को
नापता है।
ज़िन्दगी में अक्सर
रोशनी की परछाईयां भी
राह दिखा जाती हैं।
ज़रूरी नहीं
कि सीधे-सीधे
किरणों से टकराओ।
फिर सूरज डूबता है,
या चांद चमकता है,
कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
ज़िन्दगी में,
कोई एक पल
तो ऐसा होता है,
जब सागर-तल
और गगन की उंचाईयों का
अन्तर मिट जाता है।
बस!
उस पल को पकड़ना,
और मुट्ठी में बांधना ही
ज़रा कठिन होता है।
*-*-*-*-*-*-*-*-*-
कविता सूद 1.10.2020
चित्र आधारित रचना
यह अनुपम सौन्दर्य
आकर्षित करता है,
एक लम्बी उड़ान के लिए।
रंगों में बहकता है
किसी के प्यार के लिए।
इन्द्रधनुष-सा रूप लेता है
सौन्दर्य के आख्यान के लिए।
तरू की विशालता
संवरती है बहार के लिए।
दूर-दूर तम फैला शून्य
समझाता है एक संवाद के लिए।
परिदृश्य से झांकती रोशनी
विश्वास देती है एक आस के लिए।
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अपना विकराल रूप दिखाती है ज़िन्दगी
वैकल्पिक अवसर कहां देती है ज़िन्दगी,
जब चाहे कुछ भी छीन लेती है ज़िन्दगी
भाग्य को नहीं मानती मैं, पर फिर भी
अपना विकराल रूप दिखाती है ज़िन्दगी
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ज़िन्दगी की पथरीली राहों में
सुना था
पत्थरों में फूल खिलते हैं,
किन्तु यह लिखते समय
यह क्यों नहीं याद रहता
कि फूलों से ही
फल मिलते हैं।
ज़िन्दगी की
पथरीली राहों में,
कांटों से उलझकर,
मिट्टी से सुलझकर,
बस फूल खिलते रहें,
फल ज़रूर मिलेंगें।