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हाथ मिलाना मना है, समझाया था, कीजिए नमस्कार।
चेहरों के भाव परखिए, आंखों के भाव समझिए सरकार।
कौन जाने किसके हाथों में कांटें छुपे हैं, कहां चुभेंगें,
मन को परखना सीखिए, यही है समय की दरकार।
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यादें: शिमला की बारिश की
न जाने वे कैसे लोग हैं
जो बारिश की
सौंधी खुशबू से
मदहोश हो जाते हैं
प्रेम-प्यार के
किस्सों में खो जाते हैं।
विरह और श्रृंगार की
बातों में रो जाते हैं।
सर्द सांसों से
खुशियों में
आंसुओं के
बीज बो जाते हैं।
और कितने तो
भीग जाने के डर से,
घरों में छुपकर सो जाते हैं।
यह भी कोई ज़िन्दगी है भला !
.
कभी तेज़, कभी धीमी
कभी मूसलाधार
बेपरवाह हम और बारिश !
पानी से भरी सड़क पर
छप-छपाक कर चलना
छींटे उछालना
तन-मन भीग-भीग जाना
चप्पल पानी में बहाना
कभी भागना-दौड़ना
कभी रुककर
पेड़ों से झरती बूँदों को
अंजुरी में सम्हालना
बरसती बूंदों से
सिहरती पत्तियों को
सहलाना
चीड़-देवदार की
नुकीली पत्तियों से
झरती एक-एक बूँद को
निरखना
उतराईयों पर
तेज़ दौड़ते पानी से
रेस लगाना।
और फिर
रुकती-रुकती बरसात,
बादलों के बीच से
रास्ता खोजता सूरज
रंगों की आभा बिखेरता
मानों प्रकृति
नये कलेवर में
अवतरित होती है
एक नवीन आभा लिए।
हरे-भरे वृक्ष
मानों नहा-धोकर
नये कपड़े पहन कर
धूप सेंकने आ खड़े हों।
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हम खुश हैं जग खुश है
इस भीड़ भरे संसार में मुश्किल से मिलती है तन्हाई सखा
आ, ज़रा दो बातें कर लें,कल क्या हो,जाने कौन सखा
ये उजली धूप,समां सुहाना,हवा बासंती,हरा भरा उपवन
हम खुश हैं, जग खुश है, जीवन में और क्या चाहिए सखा
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आपको चाहिए क्या पारिजात वृक्ष
कृष्ण के स्वर्ग पहुंचने से पूर्व
इन्द्र आये थे मेरे पास
इस आग्रह के साथ
कि स्वीकार कर लूं मैं
पारिजात वृक्ष, पुष्पित –पल्लवित
जो मेरी सब कामनाएं पूर्ण करेगा।
स्वर्ग के लिए प्रस्थान करते समय
कृष्ण ने भी पूछा था मुझसे
किन्तु दोनों का ही
आग्रह अस्वीकार कर दिया था मैंने।
लौटा दिया था ससम्मान।
बात बड़ी नहीं, छोटी-सी है।
पारिजात आ जाएगा
तब जीवन रस ही चुक जायेगा।
सब भाव मिट जायेंगे,
शेष जीवन व्यर्थ हो जायेगा।
जब चाहत न होगी, आहत न होगी
न टूटेगा दिल, न कोई दिलासा देगा
न श्रम का स्वेद होगा
न मोतियों सी बूंदे दमकेंगी भाल पर
न सरस-विरस होगा
न लेन-देन की आशाएं-निराशाएं
न कोई उमंग-उल्लास
न कभी घटाएं तो न कभी बरसात
रूठना-मनाना, लेना-दिलाना
जब कभी तरसता है मन
तब आशाओं से सरस होता है मन
और जब पूरी होने लगती हैं आशाएं-आकांक्षाएं
तब
पारिजात पुष्पों के रस से भी अधिक
सरस-सरस होता है मन।
मगन-मगन होता है मन।
बस
बात बड़ी नहीं, छोटी-सी है।
चाहत बड़ी नहीं, छोटी-सी है।
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खून का असली रंग
हमारे यहाँ
रगों में बहते खून की
बहुत बात होती है।
किसी का खून खानदानी,
किसी का उजला,
किसी का काला
किसी का अपना
और किसी का पराया।
तब आसानी से
कह देते हैं
अपना तो खून ही
ख़राब निकला।
और
ऐसा नीच खून
तो हमारा खून
हो ही नहीं सकता।
-
लेकिन
काश! हम समझ पाते
कि रगों में बहते खून का
कोई रंग नहीं होता
खून का रंग तब होता है
जब वह किसी के काम आये।
फिर अपना हो या पराया,
खानदानी हो या काला,
खून का असली रंग
तभी पहचान में आता है।
लाल, नीला या काला
होने से कभी
कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
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यह जिजीविषा की विवशता है
यह जिजीविषा की विवशता है
या त्याग-तपस्या, ज्ञान की सीढ़ी
जीवन से विरक्तता है
अथवा जीवित रहने के लिए
दुर्भाग्य की सीढ़ी।
ज्ञान-ध्यान, धर्म, साधना संस्कृति,
साधना का मार्ग है
अथवा ढकोसलों, अज्ञान, अंधविश्वासों को
व्यापती एक पाखंड की पीढ़ी।
या एकाकी जीवन की
विडम्बानाओं को झेलते
भिक्षा-वृत्ति के दंश से आहत
एक निरूपाय पीढ़ी।
लाखों-करोड़ों की मूर्तियां बनाने की जगह
इनके लिए एक रैन-बसेरा बनवा दें
हर मन्दिर के किसी कोने में
इनके लिए भी एक आसन लगवा दें।
कोई न कोई काम तो यह भी कर ही देंगे
वहां कोई काम इनको भी दिलवा दें,
इस आयु में एक सम्मानजनक जीवन जी लें
बस इतनी सी एक आस दिलवा दें।
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ज़िन्दगी ज़िन्दगी हो उठी
प्रकृति में
बिखरे सौन्दर्य को
अपनी आँखों में
समेटकर
मैंने आँखें बन्द कर लीं।
हवाओं की
रमणीयता को
चेहरे से छूकर
बस गहरी साँस भर ली।
आकर्षक बसन्त के
सुहाने मौसम की
बासन्ती चादर
मन पर ओढ़ ली।
सुरम्य घाटियों सी गहराई
मन के भावों से जोड़ ली।
और यूँ ज़िन्दगी
सच में ज़िन्दगी हो उठी।
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मुझको मेरी नज़रों से परखो
मन विचलित होता है।
मन आतंकित होता है।
भूख मरती है।
दीवारें रिसती हैं।
न भावुक होता है।
न रोता है।
आग जलती भी है।
आग बुझती भी है।
कब तक दर्शाओगे
मुझको ऐसे।
कब तक बहाओगे
घड़ियाली आंसू।
बेचारी, अबला, निरीह
कहकर
कब तक मुझ पर
दया दिखलाओगे।
मां मां मां मां कहकर
कब तक
झूठे भाव जताओगे।
बदल गई है दुनिया सारी,
बदल गये हो तुम।
प्यार, नेह, त्याग का अर्थ
पिछड़ापन,
थोथी भावुकता नहीं होता।
यथार्थ, की पटरी पर
चाहे मिले कुछ कटुता,
या फिर कुछ अनचाहापन,
मुझको, मेरी नज़रों से देखो,
मुझको मेरी नज़रों से परखो,
तुम बदले हो
मुझको भी बदली नज़रों से देखो।
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अन्तस में हैं सारी बातें
पन्नों पर लिखी हैं मन की वे सारी गाथाएं
जो दुनिया तो जाने थी पर मन था छुपाए
पर इन फूलों के अन्तस में हैं वे सारी बातें
न कभी हम उन्हें बताएं न वो हमें जताएं
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बिन मौसम ही कलियां फूल बनीं हैं
मन के मौसम ने करवट सी-ली है
बासन्ती रंगों ने आहट सी-ली है
बिन मौसम ही कलियां फूल बनीं हैं
उनकी नज़रों ने एक चाहत सी-ली है
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मन के आतंक के साये में
जिन्दगी
इतनी सरल सहज भी नहीं
कि जब चाहा
उठकर चहक लिए।
एक डर, एक खौफ़
के बीच घूमता है मन।
और यह डर
हर साये में है रहता है अब।
ज़्यादा सुरक्षा में भी
असुरक्षा का
एहसास सालने लगा है अब।
संदेह की दीवारें, दरारें
बहुत बढ़ गई हैं।
अपने-पराये के बीच का भेद
अब टालने लगा है मन।
किस वेश में कौन मिलेगा
पहचान भूलता जा रहा है मन।
हाथ से हाथ मिलाकर
चलने का रास्ता भूलने लगे हैं
और अपनी अपनी राह
चलने लगे हैं हम।
और जब मन में पसरता है
अपने ही भीतर का आतंकवाद
तब अकेलापन सालता है मन।
आने वाली पीढ़ी को
अपनेपन, शांति, प्रेम, भाईचारे का
पाठ नहीं पढ़ाते हम।
सिखाते हैं उसे
जीवन में कैसे रहना है डर डर कर
अविश्वास, संदेह और बंद तालों में
उसे जीना सिखाते हैं हम।
मुठ्ठियां कस ली हैं
किसी से मिलने-मिलाने के लिए
हाथ नहीं बढ़ाते हैं हम।
बस हर समय
अपने ही मन के
आतंक के साये में जीते हें हम।