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जीवन के उतार-चढ़ाव को
समझाती हैं ये सीढ़ियां
दुख-सुख के पल आते-जाते हैं
ये समझा जाती हैं ये सीढ़ियां
जीवन में
कुछ गहराते अंधेरे होते हैं
और कुछ होती हैं रोशनियां
हिम्मत करें
तो अंधेरे को बेधकर
रोशनी का मार्ग
दिखाती हैं ये सीढ़ियां
जो बीत गया
सो बीत गया
पीछे मुड़कर क्या देखना
आगे की राह
दिखाती हैं ये सीढि़यां
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अब शब्दों के अर्थ व्यर्थ हो गये हैं
शब्दकोष में अब शब्दों के अर्थ
व्यर्थ हो गये हैं।
हर शब्द
एक नई अभिव्यक्ति लेकर आया है।
जब कोई कहना है अब चारों ओर शांति है
तो मन डरता है
कोई उपद्रव हुआ होगा, कोई दंगा या मारपीट।
और जब समाचार गूंजता है
पुलिस गश्त कर रही है, स्थिति नियन्त्रण में है
तो स्पष्ट जान जाते हैं हम
कि बाहर कर्फ्यू है, कुछ घर जले हैं
कुछ लोग मरे हैं, सड़कों पर घायल पड़े हैं।
शायद, सेना का फ्लैग मार्च हुआ होगा
और हमें अब अपने आपको
घर में बन्द करना होगा ।
अहिंसा के उद्घोष से
घटित हिंसा का बोध होता है।
26 जनवरी, 15 अगस्त जैसे दिन
और बुद्ध, नानक, कबीर, गांधी, महावीर के नाम पर
मात्र एक अवकाश का एहसास होता है
न कि किसी की स्मृति, ज्ञान, शिक्षा, बलिदान का।
धर्म-जाति, धर्मनिरप्रेक्षता, असाम्प्रदायिकता,
सद्भाव, मानवता, समानता, मिलन-समारोह
जैसे शब्द डराते हैं अब।
वहीं, आरोपी, अपराधी, लुटेरे,
स्कैम, घोटाले जैसे शब्द
अब बेमानी हो गये हैं
जो हमें न डराते हैं, और न ही झिंझोड़ते हैं।
“वन्दे मातरम्” अथवा “भारत माता की जय”
के उद्घोष से हमारे भीतर
देश-भक्ति की लहर नहीं दौड़ती
अपितु अपने आस-पास
किसी दल का एहसास खटकता है
और प्राचीन भारतीय योग पद्धति के नाम पर
हमारा मन गर्वोन्नत नहीं होता
अपितु एक अर्धनग्न पुरूष गेरूआ कपड़ा ओढ़े
घनी दाढ़ी और बालों के साथ
कूदता-फांदता दिखाई देता है
जिसने कभी महिला वस्त्र धारण कर
पलायन किया था।
कोई मुझे “बहनजी” पुकारता है
तो मायावती होने का एहसास होता है
और “पप्पू” का अर्थ तो आप जानते ही हैं।
कुछ ज़्यादा तो नहीं हो गया।
कहीं आप उब तो नहीं गये
चलो आज यहीं समाप्त करती हूं
बदले अर्थों वाले शब्दकोष के कुछ नये शब्द लेकर
फिर कभी आउंगी
अभी आप इन्हें तो आत्मसात कर लें
और अन्त में, मैं अब
बुद्धिजीवी, साहित्यकार, कलाकार और
सम्मान शब्दों के
नये अर्थों की खोज करने जा रही हूं।
ज्ञात होते ही आपसे फिर मिलूंगी
या फिर उनमें जा मिलूंगी
फिर कहां मिलूंगी ।।।।।।।
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आदान-प्रदान का युग है
जरूरी नहीं कि शिखर पर बैठा हर इंसान उत्थान का प्रतीक को
जाने कौन-सी सीढ़ियां चढ़ा, कहां पग धरा, अनुगमन की लीक हो
पद, पदक, सम्मान, उपाधियाँ सदा उपलब्धियों की प्रतीक नहीं होते
आदान-प्रदान का युग है, ले-देकर काम चल रहा, यही सीख हो
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एक बेला ऐसी भी है
एक बेला ऐसी भी है
जब दिन-रात का
अन्तर मिट जाता है
उभरते प्रकाश
एवं आशंकित तिमिर के बीच
मन उलझकर रह जाता है।
फिर वह दूर गगन हो
अथवा
अतल तक की गहरी जलराशि।
मन न जाने
कहां-कहां बहक जाता है।
सब एक संकेत देते हैं
प्रकाश से तिमिर का
तिमिर से प्रकाश का
बस
इनके ही समाधान में
जीवन बहक जाता है।
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सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी।
जल सी भीगी-भीगी है ज़िन्दगी।
कहीं सरल, कहीं धीमे-धीमे
आगे बढ़ती है ज़िन्दगी।
तरल-तरल भाव सी
बहकती है ज़िन्दगी।
राहों में धार-सी बहती है ज़िन्दगी।
चलें हिल-मिल
कितनी सुहावनी लगती है ज़िन्दगी।
किसी और से क्या लेना,
जब आप हैं हमारे साथ ज़िन्दगी।
आज भीग ले अन्तर्मन,
कदम-दर-कदम
मिलाकर चलना सिखाती है ज़िन्दगी।
राहें सूनी हैं तो क्या,
तुम साथ हो
तब सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी।
आगे बढ़ते रहें
तो आप ही खुलने लगती हैं मंजिलें ज़िन्दगी।
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आत्मस्वीकृति
कौन कहता है
कि हमें ईमानदारी से जीना नहीं आता
अभी तो जीना सीखा है हमने।
दुकानदार जब सब्जी तोलता है
तो दो चार मटर, एक दो टमाटर
और कुछ छोटी मोटी
हरी पत्तियां तो चखी ही जा सकती हैं।
वैसे भी तो वह ज्यादा भाव बताकर
हमें लूट ही रहा था।
राशन की दुकान पर
और कुछ नहीं तो
चीनी तो मीठी ही है।
फिर फल वाले का यह कर्त्तव्य है
कि जब तक हम
फलों को जांचे परखें, मोल भाव करें
वह साथ आये बच्चे को
दो चार दाने अंगूर के तो दे।
और फल चखकर ही तो पता लगेगा
कि सामान लेने लायक है या नहीं
और बाज़ार से मंहगा है।
किसे फ़ुर्सत है देखने की
कि सिग्रेट जलाती समय
दुकानदार की माचिस ने
जेब में जगह बना ली है।
और अगर बर्तनों की दुकान पर
एक दो चम्मच या गिलास
टोकरी में गिर गये हैं
तो इन छोटी छोटी चीज़ों में
क्या रखा है
इन्हें महत्व मत दो
इन छोटी छोटी वारदातों को
चोरी नहीं ज़रूरत कहते हैं
ये तो ऐसे ही चलता है।
कौन परवाह करता है
कि दफ्तर के कितने पैन, कागज़ और रजिस्टर
घर की शोभा बढ़ा रहे हैं
बच्चे उनसे तितलियां बना रहे हैं
हवाई जहाज़ उड़ा रहे हैं
और उन कागज़ों पर
काले चोर की तस्वीर बनाकर
तुम्हें ही डरा रहे हैं।
लेकिन तुम क्यों डरते हो ?
कौन पहचानता है इस तस्वीर को
क्योंकि हम सभी का चेहरा
किसी न किसी कोण से
इस तस्वीर के पीछे छिपा है
यह और बात है कि
मुझे तुम्हारा और तुम्हें मेरा दिखा है।
इसलिए बेहतर है दोस्त
हाथ मिला लें
और इस चित्र को
बच्चे की हरकत कह कर जला दें।
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कल किसने देखा है
इस सूनेपन में
मन बहक गया।
धुंधलेपन में
मन भटक गया।
छोटी-सी रोशनी
मन चहक गया।
गहन, बीहड़ वन में
मन अटक गया।
आकर्षित करती हैं,
लहकी-लहकी-सी डालियां
बुला रहीं,
चल आ झूम ले।
दुनियादारी भूल ले।
कल किसने देखा है
आजा,
आज जी भर घूम ले।
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अजब-सी भटकन है
फ़िरकी की तरह
घूमती है ज़िन्दगी।
कभी इधर, कभी उधर।
दुनियादारी में उलझी
कभी सुलझी, कभी न सुलझी।
अपनी-सी न लगती
जैसे उधारी किसी की।
अजब-सी भटकन है
कामनाओं का पर्वत है
उम्र पूछती है नाम।
अक्सर मन करता है
चादर ले
सिर ढक और लम्बी तान।
किन्तु
उन सलवटों का क्या करुं
जिन्हें वर्षों से छुपाती आ रही हूँ,
उन धागों का क्या करुँ
जिन्हें दुनिया-भर में तानती आ रही हूँ।
.
यार ! छोड़ अब ये ढकोसले।
बस, अपनी छान।
चादर ले
सिर ढक और लम्बी तान।
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हाथ जब भरोसे के जुड़ते हैं
हाथ
जब भरोसे के
जुड़ते हैं
तब धरा, आकाश
जल-थल
सब साथ देते हैं
परछाईयाँ भी
संग-संग चलती हैं
जल किलोल करता है
कदम थिरकने लगते हैं
सूरज राह दिखाता है
जीवन रंगीनियों से
सराबोर हो जाता है,
नितान्त निस्पृह
अपने-आप में खो जाता है।
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दीप तले अंधेरा ढूंढते हैं हम
रोशनी की चकाचौंध में अक्सर अंधकार के भाव को भूल बैठते हैं हम
सूरज की दमक में अक्सर रात्रि के आगमन से मुंह मोड़ बैठते हैं हम
तम की आहट भर से बौखलाकर रोशनी के लिए हाथ जला बैठते हैं
ज्योति प्रज्वलित है, फिर भी दीप तले अंधेरा ही ढूंढने बैठते हैं हम
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ढोल की थाप पर
संगीत के स्वरों में कुछ रंग ढलते हैं
मनमीत के संग जीवन के पल संवरते हैं
ढोल की थाप पर तो नाचती है दुनिया
हम आनन्द के कुछ पल सृजित करते हैं।