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भवन ढह गये, खंडहर देखो अभी भी खड़ा है।
लड़खड़ाते कदमों से कौन पर्वत तक चढ़ा है।
जीवन यूं चलता है, सब साथ चलें, बात बने,
कठिन समय सहायक बनें, इंसान वही बड़ा है।
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महिला अन्तर्राष्ट्रीय वर्ष
1975 में लिखी गई रचना
************-*********
तुम हर युग में बनो रहो राम
पर मैं नहीं बनूंगी सीता।
तुम बने रहो अंधे धृतराष्ट्र्
पर मैं बनूंगी गांधारी।
तुम बजाओ मुरली
पर मैं नहीं बनूंगी राधा।
उर्मिला हूं अगर
तो नहीं बैठी रहूंगी
चौदह वर्ष तुम्हारी प्रतीक्षा में।
मैं ब्याही गई थी तुम संग
या तुम ब्याहे गये थे राम संग।
राम संग गई थी सीता
किसे छोड़ गये थे तुम मेरे संग।
द्रौपदी हूं अगर
तो पांडवों की चालाकी जान चुकी हूं।
माता की आज्ञा के इतने ही थे अनुसार
तो क्यों खाने पहुंचे थे
दुर्योधन से जुए में हार।
द्रौपदी अब बनेगी नारी
नहीं चाहिए उसे तुम्हारे मणि हार।
नहीं रह गई है वह केवल
तुम्हारी इच्छा पूर्त्तियों का आधार।
कर लेगी वह अपनी रक्षा
स्वयं ही जयद्रथ से
हे युधिष्ठिर !
नहीं चाहिए उसे तुम्हारी सम्बल।
तुम स्वयं तो बच लो पहले कर्ण से।
तुम्हारी सोलह हज़ार रानियों में
हे कृष्ण ! नहीं चाहिए स्थान मुझे।
रह लूंगी कुंवारी ही
नहीं चाहिए तुम्हारा एहसान मुझे।
तुम्हारे लिए हे राम !
मैंने छोड़ी सारी सुख सुविधा, राज पाट
और तुमने ! तुमने !
एक धोबी के कहने से छोड़ दिया मुझे।
तो स्वयं ही सिद्ध किया
कि अग्नि-परीक्षा
मेरे अपमान का एक अद्भुत ढंग था।
और बहाना ! क्या सुन्दर था।
प्रजा का सुख था।
मैंने छोड़ दिया था तुम्हारे लिए सुख साज।
तो क्या तुम नहीं छोड़ सकते थे
मेरे लिए वही सुख राज।
और अब चाहते हो मैं गांधारी बनूं
फिरूं तुम्हारे पीछे पीछे आंखों पर पट्टी बांधे।
नहीं ! उस बंधी पट्टी को खोल
अपनी दृष्टि अपने पर ही डाल
बनूंगी स्वयं ही वज्र।
पर जानती हूं यह भी,
कि कृष्ण और दुर्योधन
अभी भी तुम्हारे अन्दर विद्यमान हैं।
लेकिन फिर भी हे पुरूष !
हर युग में तुम आओगे
मेरे ही आगे हाथ पसारे
हे मात: ! मुझे बना दो वज्र समान
जिससे, हर युग में मैं
कभी राम तो कभी कृष्ण
कभी कौरव तो कभी पाण्डव
तो कभी धृतराष्ट्र् बनकर
तुम्हें ही चोट पर चोट दे सकूं।
तुम्हारे ही अस्त्र से तुम्हें ही दबाउं
मुक्ति के गीत सुनाकर तुम्हें ही बन्दी बनाउं।
पर आज !
आज भी क्या है मेरे पास ?
सीता न बनूं, न बनूं गांधारी
राधा न बनूं, न बनूं द्रौपदी
या गांधारी भी न बनूं
तो क्या बन कर रहूं
बीसवीं सदी की नारी?
तो क्या यहां स्थितियां कुछ नेक हैं ?
हां हैं !
तुम्हारे हथकण्डे नये, बढ़िया, अनेक हैं।
या यूं कहूं फारेन मेक हैं।
यहां जकड़न और भी गहरी है।
नारी अभिशप्त हर जगह बेचारी है।
उसे देवी के आसन पर बिठाओ
मुक्ति के गीत सुनाओ, स्वपन दिखाओ
हर जगह तुम्हारी जीत है।
हर जगह तुम्हारी जीत है।
आज तो तुमने नया हथकण्डा अपनाया है
सारे संसार में
महिला अन्तर्राष्ट्रीय वर्ष का नारा गुंजाया है।
नारी को स्वाधीन बनाने का,
अधिकार दिलाने का स्वांग रचाया है।
तुम देवी हो, तुममें प्रतिभा है,
बुद्धिमती हो, तुम सब कुछ कर सकती हो।
सफल गृहिणी हो।
यानी कि आया भी हो
मेहरी भी हो अवैतनिक
और रसोईये का काम तो
भली भांति जानती ही हो।
और दफ्तर !
वहां तो आज नारी ही प्रधान है।
बिल्कुल ठीक !
पहले पिसती थी एक पाट में
अब उसे पीसो चक्की के दो पाटों में।
घर के भीतर भी और घर के बाहर भी।
इस तरह नारी के शोषण की
व्यंग्य प्रहारों से उसे पीड़ित करने की
एक नई राह पाई है।
नारी ने एक बार फिर मार खाई है।
हर युग में यही होता आया है
यह युग भी इसका अपवाद नहीं।
यत्र नारयस्तु पूजयन्ते, रमन्ते तत्र देवता
भुलावे का मन्त्र यह,
नारी का जीवन था, नारी का जीवन है।
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सम्मान उन्हें देना है
आपको नहीं लगता
इधर हम कुछ ज़्यादा ही
आंसू बहाने लगे हैं,
उनकी कर्त्तव्यनिष्ठा पर
प्रश्नचिन्ह लगाने लगे हैं।
उनके समर्पण, देशप्रेम को
भुनाने में लगे हैं,
उन्होंने चुना है यह पथ,
इसलिए नहीं
कि आप उनके लिए
जार-जार रोंयें
उनके कृत्यों को
महिमामण्डित करें
और अपने कर्त्तव्यों से
हाथ धोयें,
कुछ शब्दों को घोल-घोलकर
तब तक निचोड़ते रहें
जब तक वे घाव बनकर
रिसने न लगें।
वे अपना कर्त्तव्य निभा रहे हैं
और हमें समझा रहे हैं।
देश के दुश्मन
केवल सीमा पर ही नहीं होते,
देश के भीतर,
हमारे भीतर भी बसे हैं।
हम उनसे लड़ें,
कुछ अपने-आप से भी करें
न करें दया, न छिछली भावुकता परोसें
अपने भीतर छिपे शत्रुओं को पहचानें
देश-हित में क्या करना चाहिए
बस इतना जानें।
बस यही सम्मान उन्हें देना है,
यही अभिमान उन्हें देना है।
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ज़िन्दगी कोई गणित नहीं
ज़िन्दगी
जब कभी कोई
प्रश्नचिन्ह लगाती है,
उत्तर शायद पूर्वनिर्धारित होते हैं।
यह बात
हम समझ ही नहीं पाते।
किसी न किसी गणित में उलझे
अपने-आपको महारथी समझते हैं।
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मन का ज्वार भाटा
सरित-सागर का ज्वार
आज
मन में क्यों उतर आया है
नीलाभ आकाश
व्यथित हो
धरा पर उतर आया है
चांद लौट जायेगा
अपने पथ पर।
समय के साथ
मन का ज्वार भी
उतर जायेगा।
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हमको छुट्टा दे सरकार
रंजोगम में डूब गये हैं, गोलगप्पे हो गये बीस के चार
कितने खायें, कैसे खायें, नोट मिला है दो हज़ार
कहता है भैया हमसे, सारे खाओ या फिर जाओ
हम ढाई आने के ग्राहक हैं, हमको छुट्टा दे सरकार
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ज़िन्दगी में मुश्किल से सम्हलते हैं रिश्ते
वे चुप-चुप थे ज़रा, हमने पूछा कई बार, क्या हुआ है
यूं ही छोटी-छोटी बातों पर भी कभी कोई गैर हुआ है
ज़िन्दगी में मुश्किल से सम्हलते हैं कुछ अच्छे रिश्ते
सबसे हंस-बोलकर समय बीते, ऐसा कब-कब हुआ है
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कहत हैं रेत से घर नहीं बनते
मन से
अपनी राहों पर चलती हूं
दूर तक छूटे
अपने ही पद-चिन्हों को
परखती हूं
कहत हैं रेत से घर नहीं बनते
नहीं छूटते रेत पर निशान,
सागर पलटता है
और सब समेट ले जाता है
हवाएं उड़ती हैं और
सब समतल दिखता है,
किन्तु भीतर कितने उजड़े घर
कितने गहरे निशान छूटे हैं
कौन जानता है,
कहीं गहराई में
भीतर ही भीतर पलते
छूटे चिन्ह
कुछ पल के लिए
मन में गहरे तक रहते हैं
कौन चला, कहां चला, कहां से आया
कौन जाने
यूं ही, एक भटकन है
निरखती हूं, परखती हूं
लौट-लौट देखती हूं
पर बस अपने ही
निशान नहीं मिलते।
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कृष्ण आजा चक्र अपना लेकर
आज तेरी राधा आई है तेरे पास बस एक याचना लेकर
जब भी धरा पर बढ़ा अत्याचार तू आया है अवतार लेकर
काल कुछ लम्बा ही खिंच गया है हे कृष्ण ! अबकी बार
आज इस धरा पर तेरी है ज़रूरत, आजा चक्र अपना लेकर
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दुराशा
जब भी मैंने
चलने की कोशिश की
मुझे
खड़े होने लायक
जगह दे दी गई।
जब मैंने खड़ा होना चाहा
मुझे बिठा दिया गया।
और ज्यों ही मैंने
बैठने का प्रयास किया
मुझे नींद की गोली दे दी गई।
चलने से लेकर नींद तक।
लेकिन मुझे फिर लौटना है
नींद से लेकर चलने तक।
जैसे ही
गोली का खुमार टूटता है
मैं
फिर
चलने की कोशिश
करने लगती हूं।
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नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे
किसी मित्र ने मुझसे कहा कि आपकी सोच यानी मेरी यानी कविता की सोच बहुत नकारात्मक है। यदि मैं अच्छा सोचूँगी, सकारात्मक रहूँगी तो सब अच्छा ही होगा। इस बात पर उन्होंने एक मुहावरा पढ़ डाला ‘‘नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे’’ किन्तु कैसे उन्होने नहीं बताया।
तो इस मुहावरे पर मेरा एक सरल सा हास्य-व्यंग्य
*-*-*-*-*-*-*
आप अवश्य ही सोचेंगे इसकी तो बुद्धि ही उलट-पुलट है। किन्तु जैसी है, वैसी ही है, मैं क्या कर सकती हूँ। आप सब हर विषय पर गम्भीरता का ताना-बाना क्यों ओढ़ लेते हैं?
अब आप कह रहे हैं, नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे। कैसे भई, किस तरह?
अब इस आयु में मैं तो बदलने से रही। कोई भी योगी-महायोगी कहेगा, बदलने, सीखने की कोई उम्र नहीं होती। बस प्रयास करना पड़ता है। अब सारा जीवन प्रयास करते ही निकल गया, कभी किसी के लिए बदले, तो कभी किसी के लिए। बचपन में माँ-पिता, बड़े भाई-बहनों के आदेश-निर्देश बदलने के लिए, फिर ससुराल पक्ष के, उपरान्त बच्चों के और अब आप शुरु हो गये। अब तो थोड़ा मनमर्ज़ी से आराम करने दीजिए।
चलिए, कुछ गम्भीर बात कर लेते हैं। क्या मात्र नज़रिया बदलने से नज़ारे बदल जाते हैं? पता नहीं, चलिए विचार करने का प्रयास करते हैं। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि नज़ारे बदलें तो नज़रिया अवश्य बदलता है।
मन उदास है और बाहर खिली-खिली धूप है, गुंजन करते भंवरे, हवाओं से लहलहाते पुष्प, पंछियों की चहक, दूर तक फैली हरियाली, देखिए कैसे नज़रिया बदलता है। आप ही चेहरे पर मुस्कुराहट खिल आती है, मन आनन्दमय होने लगता है और चाय पीने का मन हो आता है जिसे हम गुस्से में अन्दर छोड़ आये थे।
कोई यदि हमारे सामने अपशब्दों का प्रयोग करता है तो हम नज़रिया कैसे बदल लें? किन्तु मन खिन्न होने पर हमें कोई सान्त्वना के दो मधुर शब्द बोल देता है, हमारे हित में बात करता है, तो नज़रिया बदल जाता है।
*
किन्तु मैं आपको पहले ही बता चुकी हूँ कि बु़िद्ध उलट-पुलट है। अब आपके पक्ष से विचार करते हैं। नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे।
मैंने नज़रिया बदल लिया।
करेला कड़वा नहीं है, नीम मीठी है। मिर्च तीखी नहीं है, कौआ कितना मीठा गाता है, गोभी का फूल कितना सुन्दर है किसी को भेंट करने के लिए।
हमने करेले-नीम की सब्जी बनाई और यह कहकर सबको खिलाई कि मेरे सकारात्मक विचारों से बनी देखिए कितनी मीठी सब्ज़ी है।
अब यह नज़रिया बदलने पर हमारे क्या नज़ारे बदले न ही पूछिए, क्योंकि हम जानते हैं आप अत्यधिक सकारात्मक विचारों के हैं हमारा दर्द क्या समझेंगे।