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कोई भी उड़ान
इतनी सरल नहीं होती
जितनी दिखती है।
बड़ा आकर्षित करता है
आकाश को चीरता यान।
रंगों में उलझता।
दोनों बाहें फैलाये
आकाश को
हाथों से छू लेने की
एक नाकाम कोशिश,
अक्सर
मायूस तो करती है,
लेकिन आकाश में
चमकता चांद !
कुछ सपने दिखाता है
पुकारता है
साहस देता है,
चांद पर
घर बसाने का सपना
दिखाता है,
जानती हूं , कठिन है
असम्भव-प्रायः
किन्तु सपना देखने में क्या जाता है।
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पीछे मुड़कर क्या देखना
जीवन के उतार-चढ़ाव को
समझाती हैं ये सीढ़ियां
दुख-सुख के पल आते-जाते हैं
ये समझा जाती हैं ये सीढ़ियां
जीवन में
कुछ गहराते अंधेरे हैं
और कुछ होती हैं रोशनियां
हिम्मत करें
तो अंधेरे को बेधकर
रोशनी का मार्ग
दिखाती हैं ये सीढ़ियां
जो बीत गया
सो बीत गया
पीछे मुड़कर क्या देखना
आगे की राह
दिखाती हैं ये सीढि़यां
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मन से मन मिले हैं
यूं तो
मेरा मन करता है
नित्य ही
पूजा-आराधना करुँ।
किन्तु
पूजा के भी
बहुत नियम-विधान हैं
इसलिए
डरती हूं पूजा करने से।
ऐसा नहीं
कि मैं
नियमों का पालन करने में
असमर्थ हूँ
किन्तु जहाँ भाव हों
वहाँ विधान कैसा ?
जहाँ नेह हो
वहां दान कैसा ?
जहाँ भरोसा हो
वहाँ प्रदर्शन कैसा ?
जब
मन से मन मिले हैं
तो बुलावा कैसा ?
जब अन्तर्मन से जुड़े हैं
तो दिनों का निर्धारण कैसा ?
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जीवन की आपा-धापी में
सालों बाद, बस यूँ ही
पुस्तकों की आलमारी
खोल बैठी।
पन्ना-पन्ना मेरे हाथ आया,
घबराकर मैंने हाथ बढ़ाया,
बहुत प्रयास किया मैंने
पर बिखरे पन्नों को
नहीं समेट पाई,
देखा,
पुस्तकों के नाम बदल गये
आकार बदल गये
भाव बदल गये।
जीवन की आपा-धापी में
संवाद बदल गये।
प्रारम्भ और अन्त
उलझ गये।
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सुना है कोई भाग्य विधाता है
सुना है
कोई भाग्य विधाता है
जो सब जानता है।
हमारी होनी-अनहोनी
सब वही लिखता है ,
हम तो बस
उसके हाथ की कठपुतली हैं
जब जैसा चाहे वैसा नचाता है।
और यह भी सुना है
कि लेन-देन भी सब
इसी ऊपर वाले के हाथ में है।
जो चाहेगा वह, वही तुम्हें देगा।
बस आस लगाये रखना।
हाथ फैलाये रखना।
कटोरा उठाये रखना।
मुंह बाये रखना।
लेकिन मिलेगा तुम्हें वही
जो तुम्हारे भाग्य में होगा।
और यह भी सुना है
कर्म किये जा,
फल की चिन्ता मत कर।
ऊपर वाला सब देगा
जो तुम्हारे भाग्य में लिखा होगा।
और भाग्य उसके हाथ में है
जब चाहे बदल भी सकता है।
बस ध्यान लगाये रखना।
और यह भी सुना है
कि जो अपनी सहायता आप करता है
उसका भाग्य ऊपर वाला बनाता है।
इसलिए अपनी भी कमर कस कर रखना
उसके ही भरोसे मत बैठे रहना।
और यह भी सुना है
हाथ धोकर
इस ऊपर वाले के पीछे लगे रहना।
तन मन धन सब न्योछावर करना।
मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारा कुछ न छोड़ना।
नाक कान आंख मुंह
सब उसके द्वार पर रगड़ना।
और फिर कुछ बचे
तो अपने लिए जी लेना
यदि भाग्य में होगा तो।
आपको नहीं लगता
हमने कुछ ज़्यादा ही सुन लिया है।
अरे यार !
अपनी मस्ती में जिये जा।
जो सामने आये अपना कर्म किये जा।
जो मिलना है मिले
और जो नहीं मिलना है न मिले
बस हंस बोलकर आनन्द में जिये जा।
और मुंह ढककर अच्छी नींद लिये जा।
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हम तो आनन्दित हैं, तुमको क्या
इस जग में एक सुन्दर जीवन मिला है, मर्त्यन लोक है इससे क्या
सुख-दुख तो आने जाने हैं,पतझड़-सावन, प्रकाश-तम है हमको क्या
जब तक जीवन है, भूलकर मृत्यु के डर को जीत लें तो क्या बात है
कोई कुछ भी उपदेश देता रहे, हम तो आनन्दित हैं, तुमको क्या
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बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ
इधर बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ
अभियान ज़ोरों पर है।
विज्ञापनों में भरपूर छाया है
जिसे देखो वही आगे आया है।
भ्रूण हत्याओं के विरूद्ध नारे लग रहे हैं
लोग इस हेतु
घरों से निकलकर सड़कों पर आ रहे हैं,
मोमबत्तियां जला रहे हैं।
लेकिन क्या सच में ही
बदली है हमारी मानसिकता !
प्रत्येक नवजात के चेहरे पर
बालक की ही छवि दिखाई देती है
बालिका तो कहीं
दूर दूर तक नज़र नहीं आती है।
इस चित्र में एक मासूम की यह छवि
किसी की दृष्टि में चमकता सितारा है
तो कहीं मसीहा और जग का तारणहार।
कहीं आंखों का तारा है तो कहीं राजदुलारा।
एक साधारण बालिका की चाह तो
हमने कब की त्याग दी है
अब हम लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा
की भी बात नहीं करते।
कभी लक्ष्मीबाई की चर्चा हुआ करती थी
अब तो हम उसको भी याद नहीं करते।
पी. टी. उषा, मैरी काम, सान्या, बिछेन्द्री पाल
को तो हम जानते ही नहीं
कि कहें
कि ईश्वर इन जैसी संतान देना।
कोई उपमाएं, प्रतीक नहीं हैं हमारे पास
अपनी बेटियों के जन्म की खुशी मनाने के लिए।
शायद आपको लग रहा होगा
मैं विषय-भ्रम में हूं।
जी नहीं,
इस नवजात को मैं भी देख रही हूं
एक चमकते सितारे की तरह
रोशनी से भरपूर।
किन्तु मैं यह नहीं समझ पा रही हूं
कि इस चित्र में सबको
एक नवजात बालक की ही प्रतीति
क्यों है
बालिका की क्यों नहीं।
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मंजी दे जा मेरे भाई
भाई मेरे
मंजी दे जा।
बड़े काम की है यह मंजी।
-
सर्दी के मौसम में,
प्रात होते ही
यह मंजी
धूप में जगह बना लेती है।
सारा दिन
धीरे-धीरे खिसकती रहती है
सूरज के साथ-साथ।
यहीं से
हमारे दिन की शुरूआत होती है,
और यहीं शाम ढलती है।
पूरा परिवार समा जाता है
इस मंजी पर।
कोई पायताने, कोई मुहाने,
कोई बाण पर, कोई तान पर,
कोई नवार पर,
एक-दूसरे की जगह छीनते।
बतंगड़बाजी करते ]
निकलता है पूरा दिन
इसी मंजी पर।
सुबह का नाश्ता
दोपहर की रोटी,
दिन की झपकी,
शाम की चाय,
स्वेटर की बुनाई,
रजाईयों की तरपाई,
कुछ बातचीत, कुछ चुगलाई,
पापड़-बड़ियों की बनाई,
मटर की छिलकाई,
साग की छंटाई,
बच्चों की पढ़ाई,
आस-पड़ोस की सुनवाई।
सब इसी मंजी पर।
-
भाई मेरे, मंजी दे जा।
दे जा मंजी मेरे भाई।
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सुनो, एकान्त का मधुर-मनोहर स्वर
सुनो,
एकान्त का
मधुर-मनोहर स्वर।
बस अनुभव करो
अन्तर्मन से उठती
शून्य की ध्वनियां,
आनन्द देता है
यह एकाकीपन,
शान्त, मनोहर।
कितने प्रयास से
बिछी यह श्वेत-धवल
स्वर लहरी
मानों दूर कहीं
किसी
जलतरंग की ध्वनियां
प्रतिध्वनित हो रही हों
उन स्वर-लहरियों से
आनन्दित
झुक जाते हैं विशाल वृक्ष
तृण भारमुक्त खड़े दिखते हैं
ऋतु बांध देती है हमें
जताती है
ज़रा मेरे साथ भी चला करो
सदैव मनमानी न करो
आओ, बैठो दो पल
बस मेरे साथ
बस मेरे साथ।
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फिर उनके कंधों पर बंहगी ढूंढते हैं
अपनी संतान के कंधों पर
हमने लाद दिये हैं
अपने अधूरे सपने,
अपनी आशाएं –आकांक्षाएं,
उनके मन-मस्तिष्क पर
ठोंक कर बैठे हैं
अपनी महत्वाकांक्षाओं की कीलें,
उनकी इच्छाओं-अनच्छिाओं पर
बनकर बैठे हैं हम प्रहरी।
आगे, आगे और आगे
निकल लें।
जितनी दूर निकल सकें,
निकल लें।
सबसे आगे, और आगे, और आगे।
धरा को छोड़
आकाश को निगल ले।
और वे भागने लगे हैं
हमसे दूर, बहुत दूर ।
हम स्वयं ही नहीं जानते
उनके कंधों पर कितना बोझ डालकर
किस राह पर उन्हें ढकेल रहे हैं हम ।
धरा के रास्ते बन्द कर दिये हैं
उनके लिए।
बस पकड़ना है तो
आकाश ही आकाश है।
फिर शिकायत करते हैं
कुछ नहीं कर रही नई पीढ़ी
हमारे लिए ।
फिर उनके कंधों पर बंहगी ढूंढते हैं !!!
कमाल है !!!!
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धर्म-कर्म के नाम
धर्म-कर्म के नाम पर पाखण्ड आज होय
मंत्र-तंत्र के नाम पर घृणा के बीज बोयें
परम्परा के नाम पर रूढ़ियां पाल रहे हम
किसकी मानें, किसकी छोड़ें, इसी सोच में खोय