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जल की धार सी बह रही है ज़िन्दगी
नित नई आस जगा रही है ज़िन्दगी
शुद्ध जल से आचमन कर ले मेरे मन
काल के गाल में समा रही है ज़िन्दगी
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मन से मन मिले हैं
यूं तो
मेरा मन करता है
नित्य ही
पूजा-आराधना करुँ।
किन्तु
पूजा के भी
बहुत नियम-विधान हैं
इसलिए
डरती हूं पूजा करने से।
ऐसा नहीं
कि मैं
नियमों का पालन करने में
असमर्थ हूँ
किन्तु जहाँ भाव हों
वहाँ विधान कैसा ?
जहाँ नेह हो
वहां दान कैसा ?
जहाँ भरोसा हो
वहाँ प्रदर्शन कैसा ?
जब
मन से मन मिले हैं
तो बुलावा कैसा ?
जब अन्तर्मन से जुड़े हैं
तो दिनों का निर्धारण कैसा ?
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नकारने के लिए अपने आप को ही
कमरे और बरामदे के बीच
दरवाज़ा और दहलीज
दरवाज़े आड़ हुआ करते हैं
और दहलीज सीमा।
आड़ यानी दरवाज़े
सुविधानुसार हटाये जा सकते हैं।
दहलीज स्थायी है।
नये मकानों में, सुविधा की दृष्टि से
दहलीज हटा दी गई है
और हम सीमा मुक्त हो गये हैं।
अब कमरे की सफ़ाई करते समय
यह ज़रूरी नहीं है
कि दरवाज़ा खोला ही जाये।
अब हर किसी ने
अपने अपने घर का
कूड़ा कचरा बाहर कर दिया है
दरवाज़ा बन्द रखकर ही।
जिससे किसी को पहचान न होने पाये।
और इस सफ़ाई अभियान के बाद
बाहर आकर, दरवाज़ों पर ताला जड़कर
अपने अपने घरों को कठघरों में बन्द करके
सब लोग बाहर आ गये हैं
कूड़े के ढेर पर
अपने अपने कूड़े को नकारने के लिए।
या फिर
नकारने के लिए
अपने आप को ही।
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कहते हैं कोई फ़ागुन आया
फ़ागुन आया, फ़ागुन आया, सुनते हैं, इधर कोई फ़ागुन आया
रंग-गुलाल, उमंग-रसरंग, ठिठोली-होली, सुनते हैं फ़ागुन लाया
उपवन खिले, मन-मनमीत मिले, ढोल बजे, कहीं साज सजे
आकुल-व्याकुल मन को करता, कहते हैं, कोई फ़ागुन आया।
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पूजा में हाथ जुड़ते नहीं
पूजा में हाथ जुड़ते नहीं,
आराधना में सिर झुकते नहीं।
मंदिरों में जुटी भीड़ में
भक्ति भाव दिखते नहीं।
पंक्तियां तोड़-तोड़कर
दर्शन कर रहे,
वी आई पी पास बनवा कर
आगे बढ़ रहे।
पण्डित चढ़ावे की थाली देखकर
प्रसाद बांट रहे,
फिल्मी गीतों की धुनों पर
भजन बज रहे,
प्रायोजित हो गई हैं
प्रदर्शन और सजावट
बन गई है पूजा और भक्ति,
शब्दों से लड़ते हैं हम
इंसानियत को भूलकर
जी रहे।
सच्चाई की राह पर हम चलते नहीं।
इंसानियत की पूजा हम करते नहीं।
पत्थरों को जोड़-जोड़कर
कुछ पत्थरों के लिए लड़ मरते हैं।
पर किसी डूबते को
तिनका का सहारा
हम दे सकते नहीं।
शिक्षा के नाम पर पाखण्ड
बांटने से कतराते नहीं।
लेकिन शिक्षा के नाम पर
हम आगे आते नहीं।
कैसे बढ़ेगा देश आगे
जब तक
पिछले कुछ किस्से भूलकर
हम आगे आते नहीं।
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खड़ी करनी है मज़बूत इमारत, प्यादों पर भरोसा कीजिए
जोकर, इक्का, बेगम, गुलाम, सबकी चाल चलनी आनी चाहिए
सारी चालें हैं वज़ीर के हाथ, इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए
मुहावरों पर मत जाना कि गिरते देखे हैं ताश के महल भरभरा कर
“गर खड़ी करनी है मज़बूत इमारत, प्यादों पर भरोसा करना चाहिए
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विरोध से डरते हैं
सहनशीलता के दिखावे की आदत-सी हो गई है
शालीनता के नाम पर चुप्पी की बात-सी हो गई है
विरोध से डरते हैं, मुस्कुराहट छाप ली है चेहरों पर
सूखे फूलों में खुशबू ढूंढने की आदत-सी हो गई है।
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सूर्यग्रहण के चित्र पर एक रचना
दूर कहीं गगन में
सूरज को मैंने देखा
चन्दा को मैंने देखा
तारे टिमटिम करते
जीवन में रंग भरते
लुका-छिपी ये खेला करते
कहते हैं दिन-रात हुई
कभी सूरज आता है
कभी चंदा जाता है
और तारे उनके आगे-पीछे
देखो कैसे भागा-भागी करते
कभी लाल-लाल
कभी काली रात डराती
फिर दिन आता
सूरज को ढूंढ रहे
कोहरे ने बाजी मारी
दिन में देखो रात हुई
चंदा ने बाजी मारी
तम की आहट से
दिन में देखो रात हुई
प्रकृति ने नवचित्र बनाया
रेखाओं की आभा ने मन मोहा
दिन-रात का यूं भाव टला
जीवन का यूं चक्र चला
कभी सूरज आगे, कभी चंदा भागे
कभी तारे छिपते, कभी रंग बिखरते
बस, जीवन का यूं चक्र चला
कैसे समझा, किसने समझा
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ज़िन्दगी भी सिंकती है
रोटियों के साथ
ज़िन्दगी भी सिंकती है।
कौन जाने
जब रोटियां जलती हैं
तब जिन्दगी के घाव
और कौन-कौन-सी
पीड़ाएं रिसती हैं।
पता नहीं
रोज़ कितनी रोटियां सिंकती हैं
कितनी की भूख लगती है
और कितनी भूख मिटती है।
इस एक रोटी के लिए
दिन-भर
कितनी मेहनत करनी पड़ती है
तब जाकर कहीं बाहर आग जलती है
और भीतर की आग
सुलगती हुई आग
न कभी बुझती है
कभी भड़कती है।
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सोच हमारी लूली-लंगड़ी
विचार हमारे भटक गये
सोच हमारी लूली-लंगड़ी
टांग उठाकर भाग लिए
पीठ मोड़कर चल दिये
राह छोड़कर चल दिये
राहों को हम छोड़ चले
चिन्तन से हम भाग रहे
सोच-समझ की बात नहीं
सब मिल-जुलकर यही करें
गलबहियां डालें घूम रहे
सत्य से हम भाग रहे
बोल हमारे कुंद हुए
पीठ पर हम वार करें
बच-बचकर चलना आ गया
दुनिया कुछ भी कहती रहे
पीठ दिखाना आ गया
बच-बचकर रहना आ गया।
चरण-चिन्ह हम छोड़ रहे
पीछे-पीछे जग आयेगा
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कुछ अच्छा लिखने की चाह
कुछ अच्छा लिखने की चाह में
हर बार कलम उठाती हूं
किन्तु आज तक नहीं समझ पाई
शब्द कैसे बदल जाते हैं
किन आकारों में ढल जाते हैं
प्रेम लिखती हूं
हादसे बन जाते हैं।
मानवता लिखती हूँ
मौत दिखती है।
काली स्याही लाल रंग में
बदल जाती है।
.
कलम को शब्द देती हूँ
भाईचारा, देशप्रेम,
साम्प्रदायिक सौहार्द
न जाने कैसे बन्दूकों, गनों
तोपों के चित्र बन जाते हैं।
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कलम को समझाती हूं
चल आज धार्मिक सद्भाव की बात करें
किन्तु वह फिर
अलग-अलग आकार और
सूरतें गढ़ने लगती है,
शब्दों को आकारों में
बदलने लगती है।
.
हार नहीं मानती मैं,
कलम को फिर पकड़ती हूँ।
सच्चाई, नैतिकता,
ईमानदारी के विचार
मन में लाती हूँ।
किन्तु न जाने कहां से
कलम अरबों-खरबों के गणित में
उलझा जाती है।
.
हारकर मैंने कहा
चल भारत-माता के सम्मान में
गीत लिखें।
कलम हँसने लगी,
चिल्लाने लगी,
चीत्कार करने लगी।
कलम की नोक
तीखे नाखून-सी लगी।
कागज़
किसी वस्त्र का-सा
तार-तार होने लगा
मन शर्मसार होने लगा।
मान-सम्मान बुझने लगा।
.
हार गई मैं
किस्सा रोज़ का था।
कहां तक रोती या चीखती
किससे शिकायत करती।
धरती बंजर हो गई।
मैं लिख न सकी।
कलम की स्याही चुक गई।
कलम की नोक मुड़ गई ,
कुछ अच्छा लिखने की चाह मर गई।