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शिक्षा की कौन-सी राह है यह
मैं समझ नहीं पाई।
आजकल
बेटियां-बेटियां
सुनने में बहुत आ रहा है।
उनको ऐसी नई राहों पर
चलना सिखलाया जा रहा है।
सामान ढोने वाली
कुण्डियों पर लटकाया जा रहा है
और शायद
विद्यालय का मार्ग दिखलाया जा रहा है।
बच्चियां हैं ये अभी
नहीं जानती कि
राहें बड़ी लम्बी, गहरी
और दलदल भरी होती हैं।
न पैरों के नीचे धरा है
न सिर पर छाया,
बस दिवा- स्वप्न दिखा-दिखाकर
अधर में फ़ंसाया जा रहा है।
अवसर मिलते ही
डराने लगते हैं हम
धमकाने लगते हैं हम।
और कभी उनका
अति गुणगान कर
भटकाने लगते हैं हम।
ये राहें दिखाकर
उनके हौंसले
तोड़ने पर लगे हैं।
नौटंकियां करने में कुशल हैं।
चांद पर पहुंच गये,
आधुनिकता के चरम पर बैठे,
लेकिन
शिक्षा की यह राह देखकर
चुल्लू भर पानी में
डूब मरने को मन करता है।
किन्तु किससे कहें,
यहां तो सभी
गुणगान करने में जुटे हैं।
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अपने आकर्षण से बाहर निकल
अपने आकर्षण से बाहर निकल।
देख ज़रा
प्रतिच्छाया धुंधलाने लगी है।
रंगों से आभा जाने लगी है।
नृत्य की गति सहमी हुई है
घुंघरूओं की थाप बहरी हुई है।
गति विश्रृंखलित हुई है।
मुद्रा तेरी थकी हुई है।
वन-कानन में खड़ी हुई है।
पीछे मुड़कर देख।
सच्चाईयों से मुंह न मोड़।
भेड़िए बहके हुए हैं।
चेहरों पर आवरण पहने हुए हैं।
पहचान कहीं खो गई है।
सम्हलकर कदम रख।
अपनी हिम्मत को परख।
सौन्दर्य में ही न उलझ।
झूठी प्रशंसाओं से निकल।
सामने वाले की सोच को परख।
तब अपनी मुद्रा में आ।
अस्त्र उठा या
नृत्य से दिल बहला।
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वरदान और श्राप
किसी युग में
वरदान और श्राप
साथ-साथ चलते थे।
वरदान की आशा में
भक्ति
और कठोर तपस्या करते थे
किन्तु सदैव
कोई भूल
कोई चूक
ले डूबती थी
सब अच्छे कर्मों को
और वरदान से पहले
श्राप आ जाता था।
और कभी-कभी
इतनी बड़ी गठरी होती थी
भूल-चूक की
कि वरदान तक
बात पहुँच ही नहीं पाती थी
मानों कोई भारी
बैरीकेड लगा हो।
श्राप से वरदान टूटता था
और वरदान से श्राप,
काल की सीमा
अन्तहीन हुआ करती थी।
और एक खतरा
यह भी रहता था
कि पता नहीं कब वरदान
श्राप में परिवर्तित हो जाये
और श्राप वरदान में
और दोनों का घालमेल
समझ ही न आये।
-
बस
इसी डर से
मैं वरदान माँगने का
साहस ही नहीं करती
पता नहीं
भूल-चूक की
कितनी बड़ी गठरी खुल जाये
या श्राप की लम्बी सूची।
-
जो मिला है
उसमें जिये जा
मज़े की नींद लिए जा।
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सर्वगुण सम्पन्न कोई नहीं होता
जान लें हम सर्वगुण सम्पन्न तो यहां कोई नहीं होता
अच्छाई-बुराई सब साथ चले, मन यूं ही दुख में रोता
राम-रावण जीवन्त हैं यहां, किस-किस की बात करें
अन्तद्र्वन्द्व में जी रहे, नहीं जानते, कौन कहां सजग होता
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वक्त की रफ्तार देख कर
वक्त की रफ्तार देख कर
मैंने कहा, ठहर ज़रा,
साथ चलना है मुझे तुम्हारे।
वक्त, ऐसा ठहरा
कि चलना ही भूल गया।
आज इस मोड़ पर समझ आया,
वक्त किसी के साथ नहीं चलता।
वक्त ने बहुत आवाज़ें दी थीं,
बहुत बार चेताया था मुझे,
द्वार खटखटाया था मेरा,
किन्तु न जाने
किस गुरूर में था मेरा मन,
हवा का झोंका समझ कर
उपेक्षा करती रही।
वक्त के साथ नहीं चल पाते हम।
बस हर वक्त
किसी न किसी वक्त को कोसते हैं।
एक भी
ईमानदार कोशिश नहीं करते,
अपने वक्त को,
अपने सही वक्त को पहचानने की ।
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जीवन की अनहोनी घटना
मेरे जीवन में ऐसी बहुत-सी घटनाएं घटी हैं जो अनहोनी हैं।
हमारे परिवार पर एक प्रकोप रहा है न जाने क्यों, कि कभी भी परिवार में एक मृत्यु नहीं होती थी, दो होती थीं। एक साथ नहीं किन्तु तेहरवीं से पहले। जैसे जब मेरे पिता का निधन हुआ तब मेरे चाचाजी के बेटे का चैथे दिन निधन हुआ। इसी प्रकार दूर-पार की रिश्तेदारी में किसी न किसी का निधन हो जाता था। वर्षों तक ये सब हमने देखा।
यह परम्परा है कि यदि क्रिया से पूर्व कोई पातक मृत्यु या सूतक जन्म हो जाये तो क्रिया उस दिन से 13 दिन आगे बढ़ जाती है।
अर्थात मेरे पिता की क्रिया और चाचाजी के बेटे की क्रिया जिसे तेरहवीं कहते हैं एक ही दिन पर हुई।
सबसे बड़ा हादसा हमारे परिवार में नर्वदा बहन के निधन के बाद हुआ।
नर्वदा का निधन 26 फ़रवरी को हुआ। उनकी क्रिया अर्थात तेरहवीं 10 मार्च को होनी थी। 9 मार्च को मेरी चाचाजी के घर पोते ने जन्म लिया। अर्थात सूतक हो गया। अब नर्वदा की क्रिया 13 दिन आगे बढ़ गई और शायद 22 मार्च निर्धारित हुई। किन्तु 20 मार्च को मेरी मां का निधन हो गया। अर्थात पातक। अब 3 अप्रैल को दोनों की एक साथ क्रिया सम्पन्न हुई, नर्वदा के निधन के लगभग सवा महीने बाद। वे अत्यन्त खौफ़नाक दिन थे हमारे लिए।
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शायद प्यार से मन मिला नहीं था
यूं तो उनसे कोई गिला नहीं था
यादों का कोई सिला नहीं था
कभी-कभी मिल लेते थे यूं ही
शायद प्यार से मन मिला नहीं था
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मन में सुबोल वरण कर
तर्पण कर,
मन अर्पण कर,
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प्रण कर, नमन कर,
सबके हित में नाम कर।
अंजुरि में जल की धार
लेकर सत्य की राह चुन।
मन-मुटाव छांटकर
वैर-भाव तिरोहित कर।
अपनों को स्मरण कर,
उनके गुणों का मनन कर।
राहों की तलाश कर
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कष्टों का हरण कर,
मन में सुबोल वरण कर।
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शब्दों से जलाने वाले
आग लगाने वाले यहां बहुत हैं
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बुझाने की बात तो करना ही मत
शब्दों से जलाने वाले यहां बहुत हैं
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सूरज गुनगुनाया आज
सूरज गुनगुनाया आज
मेरी हथेली में आकर,
कहने लगा
चल आज
इस तपिश को
अपने भीतर महसूस कर।
मैं न कहता कि आग उगल।
पर इतना तो कर
कि अपने भीतर के भावों को
आकाश दे,
प्रभात और रंगीनियां दे।
उत्सर्जित कर
अपने भीतर की आग
जिससे दुनिया चलती है।
मैं न कहता कि आग उगल
पर अपने भीतर की
तपिश को बाहर ला,
नहीं तो
भीतर-भीतर जलती यह आग
तुझे भस्म कर देगी किसी दिन,
देखे दुनिया
कि तेरे भीतर भी
इक रोशनी है
आस है, विश्वास है
अंधेरे को चीर कर
जीने की ललक है
गहराती परछाईयों को चीरकर
सामने आ,
अपने भीतर इक आग जला।
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दादाजी से गुड़िया बोली
दादाजी से गुड़िया बोली,
स्कूल चलो न, स्कूल चलो न।
दादाजी को गुड़िया बोली
मेरे संग पढ़ो न, मेरे संग पढ़ो न।
मां हंस हंस होती लोट-पोट,
भैया देखे मुझको।
दादाजी बोले,
स्कूल चलूंगा, स्कूल चलूंगा।
मुझको एक ड्र्ैस सिलवा दे न।
सुन्दर सा बस्ता,
काॅपी-पैन ला दे न।
अपनी क्लास में
मेरा नाम लिखवा दे न।
तू मुझको ए बी सी सिखलाना,
मैं तुझको अ आ इ ई सिखलाउंगा।
मेरी काम करेगी तू,
मैं तुझको टाॅफ़ी दिलवाउंगा।
मेरी रोटी भी बंधवा लेना
नहीं तो मैं तेरी खा जाउंगा।
गुड़िया बोली,
न न न न, दादाजी,
मैं अपनी रोटी न दूंगी,
आप अभी बहुत छोटे हैं,
थोड़े बड़े हो जाओ न।
अभी तो तुम
मेरे घोड़े ही बन जाओ न।