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मान देकर प्रतिमान की आशा क्यों करें
दान देकर प्रतिदान की आशा क्यों करें
शब्द में अभिव्यक्ति हो पर भाव भी रहे
विश्वास देकर आभार की आशा क्यों करें
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मुस्कानों की भाषा लिखूं
छलक-छलक-छलकती बूंदें,
मन में रस भरती बूंदें
लहर-लहर लहराता आंचल
मन हरषे जब घन बरसे
मुस्कानों की भाषा लिखूं
हवाओं संग उड़ान भरूं मैं
राग बजे और साज बजे
मन ही मन संगीत सजे
धारा संग बहती जाती
अपने में ही उड़ती जाती
कोई न रोके कोई न टोके
जीवन-भर ये हास सजे।
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रिश्तों में
माता-पिता न मांगें कभी बच्चों से प्रतिदान।
नेह, प्रेम, अपनापन, सुरक्षा, नहीं कोई एहसान।
इन रिश्तों में लेन-देन की तुला नहीं रहती,
बदले में न मांगें बच्चों से कभी बलिदान।
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जीवन की डगर चल रही
राहें पथरीली
सुगम सुहातीं।
कदम-दर कदम
चल रहे
साथ न छूटे
बात न छूटे,
अगली-पिछली भूल
बस बढ़ते जाते।
साथ-साथ
चलते जाते।
क्यों आस करें किसी से
हाथों में हाथ दे
बढ़ते जाते।
जीवन की डगर चल रही,
मंज़िल की ओर बढ़ रही,
न किसी से शिकवा
न शिकायत।
धीरे-धीरे
पग-भर सरक रही,
जीवन की डगर चल रही।
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जीवन की आपा-धापी में
सालों बाद, बस यूँ ही
पुस्तकों की आलमारी
खोल बैठी।
पन्ना-पन्ना मेरे हाथ आया,
घबराकर मैंने हाथ बढ़ाया,
बहुत प्रयास किया मैंने
पर बिखरे पन्नों को
नहीं समेट पाई,
देखा,
पुस्तकों के नाम बदल गये
आकार बदल गये
भाव बदल गये।
जीवन की आपा-धापी में
संवाद बदल गये।
प्रारम्भ और अन्त
उलझ गये।
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शब्दों के घाव
दिल के
कुछ ज़ख्मों का दर्द
मानों दर्द नहीं होता,
स्मृतियों का
खजाना होता है,
उनकी टीस
आनन्द देती है
कुछ यादें
कुछ वफ़ाएँ
कुछ बेवफ़ाएँ
शब्दों के घाव
रिसते रहते हैं
चुभते हैं
पर भरने का
मन नहीं करता
आँखें बन्द कर
कुरेदने में मज़ा आता है
और जब आँख का पानी
रिसता है
उन जख़्मों पर,
तब टीस
और गहरी होती है
और आनन्द और ज़्यादा।
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वैज्ञानिक भाषा को रोमन में लिखकर
शिक्षा से बाहर हुई, काम काज की भाषा नहीं, हम मानें या न मानें
हिन्दी की हम बात करें , बच्चे पढ़ते अंग्रेज़ी में, यह तो हम हैं जाने
विश्वगुरू बनने चले , अपने घर में मान नहीं है अपनी ही भाषा का
वैज्ञानिक भाषा को रोमन में लिखकर हम अपने को हिन्दीवाला मानें
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नयनों में घिर आये बादल
धूप खिली, मौसम खुशनुमा, घूम रहे बादल
हवाएं चलीं-चलीं, गगन पर छितराए बादल
कुछ बूंदें बरसी, मन महका-बहका-पगला
तुम रूठे, नयनों में गहरे घिर आये बादल
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इक फूल-सा ख्वाबों में
जब भी
उनसे मिलने को मन करता है
इक फूल-सा ख्वाबों में
खिलता नज़र आता है।
पतझड़ में भी
बहार की आस जगती है
आकाश गंगा में
फूलों का झरना नज़र आता है।
फूल तो खिले नहीं
पर जीवन-मकरन्द का
सौन्दर्य नज़र आता है।
तितलियों की छोटी-छोटी उड़ान में
भावों का सागर
चांद पर टहलता नज़र आता है।
चिड़िया की चहक में
न जाने कितने गीत बजते हैं
उनके मिलन की आस में
मन गीत गुनगुनाता नज़र आता है।
सांझ ढले
जब मन स्मृतियों के साये में ढलता है
तब लुक-छुप करती रंगीनियों में
मन बहकता नज़र आता है।
जब-जब तेरी स्मृतियों से
बच निकलने की कोशिश की
मन बहकता-सा नज़र आता है।
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छनक-छन तारे छनके
ज़रा-सा मैंने हाथ बढ़ाया, नभ मेरे हाथ आया
छनक-छनक-छन तारे छनके, चंदा भी मुस्काया
सूरज की गठरी बांधी, सपनों की सीढ़ी तानी
इन्द्रधनुष ने रंग बिखेरे, मनमोहक चित्र बनाया
बदली के पीछे से कुछ बूंदे निकली, मन भरमाया
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नारी बेचारी नेह की मारी
बस इतना पूछना है
कि क्या अब तुमसे बन्दूक
भी न सम्हल रही
जो मेरे हाथ दे दी!
कहते हो
नारी बेचारी
अबला, ममता, नेह की मारी
कोमल, प्यारी, बेटी बेचारी
घर-द्वार, चूल्हा-चौखट
सब मेरे काम
और प्रकृति का उपहार
ममत्व !
मेरे दायित्व!!
कभी दुर्गा, कभी सीता कहते
कभी रणचण्डी, कभी लक्ष्मीबाई बताते
कभी जौहर करवाते
अब तो हर जगह
बस औरतों के ही काम गिनवाते
कुछ तो तुम भी कर लो
अब क्या तुमसे यह बन्दूक
भी न चल रही
जो मेरे हाथ थमा दी !!