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पुष्प पल्लवविहीन
एक छत्रछाया सी दिखती हैं।
दुलारती, आंचल फैलाकर।
समझाती हैं
न डर
थोड़ा सब्र कर।
पतझड़, सूखा, ग्रीष्म
और यह सूनापन
तो आने जाने हैं।
बस ठहर ज़रा
मौसम बदलेगा
फूल खिलेंगे
सूरज चमकेगा
सागर लहरायेगा
बस फिर
तुम ज़रा सा मुस्कुरा देना।
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आस नहीं छोड़ी मैंने
प्रकृति के नियमों को
हम बदल नहीं सकते।
जीवन का आवागमन
तो जारी है।
मुझको जाना है,
नव-अंकुरण को आना है।
आस नहीं छोड़ी मैंने।
विश्वास नहीं छोड़ा मैंने।
धरा का आसरा लेकर,
आकाश ताकता हूं।
अपनी जड़ों को
फिर से आजमाता हूं।
अंकुरण तो होना ही है,
बनना और मिटना
नियम प्रकृति का,
मुझको भी जाना है।
न उदास हो,
नव-अंकुरण फूटेंगे,
यह क्रम जारी रहेगा,
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अब मौन को मुखर कीजिए
बस अब बहुत हो चुका,
अब मौन को मुखर कीजिए
कुछ तो बोलिए
न मुंह बन्द कीजिए।
संकेतों की भाषा
कोई समझता नहीं
बोलकर ही भाव दीजिए।
खामोशियां घुटती हैं कहीं
ज़रा ज़ोर से बोलकर
आवाज़ दीजिए।
जो मन न भाए
उसका
खुलकर विरोध कीजिए।
यह सोचकर
कि बुरा लगेगा किसी को
अपना मन मत उदास कीजिए।
बुरे को बुरा कहकर
स्पष्ट भाव दीजिए,
और यही सुनने की
हिम्मत भी
अपने अन्दर पैदा कीजिए।
चुप्पी को सब समझते हैं कमज़ोरी
चिल्लाकर जवाब दीजिए।
कलम की नोक तीखी कीजिए
शब्दों को आवाज़ कीजिए।
मौन को मुखर कीजिए।
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भोर का सूरज
भोर का सूरज जीवन की आस देता है
भोर का सूरज रोशनी का भास देता है
सुबह से शाम तक ढलते हैं जीवन के रंग
भोर का सूरज नये दिन का विश्वास देता है
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शब्दों से जलाने वाले
आग लगाने वाले यहां बहुत हैं
बिना आग सुलगाने वाले बहुत हैं
बुझाने की बात तो करना ही मत
शब्दों से जलाने वाले यहां बहुत हैं
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सघन-वन-कानन ये मन है
सघन-वन-कानन ये मन है।
चिड़िया भी चहके,
कोयल भी कूके,
फूलों की डाली भी महके,
कभी उलझ-उलझकर
मन-भाव बहके।
पर डर लगता है
जब
वानर, डाल-डाल बहके।
कब जाग उठेगा नृसिंह
कब गज की गर्जन से
गूंजेगा गगन,
कौन जाने।
कभी हरीतिमा, कभी सूखा,
कभी पतझड़, कभी रूखा
कब टूटेगी डाली,
कब बिखरेंगे पल्लव
कौन जाने।
दावानल भीतर ही भीतर चलता है
इसीलिए ये
सघन-वन-कानन मन डरता है।
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समझिए समय की दरकार
हाथ मिलाना मना है, समझाया था, कीजिए नमस्कार।
चेहरों के भाव परखिए, आंखों के भाव समझिए सरकार।
कौन जाने किसके हाथों में कांटें छुपे हैं, कहां चुभेंगें,
मन को परखना सीखिए, यही है समय की दरकार।
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ये दो दिन
कहते हैं
दुनिया
दो दिन का मेला,
कहाँ लगा
कबसे लगा,
मिला नहीं।
-
वैसे भी
69 वर्ष हो गये
ये दो दिन
बीत ही नहीं रहे।
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दोराहों- चौराहों को सुलझाने बैठी हूं
छोटे-छोटे कदमों से
जब चलना शुरू किया,
राहें उन्मुक्त हुईं।
ज़िन्दगी कभी ठहरी-सी
कभी भागती महसूस हुई।
अनगिन सपने थे,
कुछ अपने थे,
कुछ बस सपने थे।
हर सपना सच्चा लगता था।
हर सपना अच्छा लगता था।
मन की भटकन थी
राहों में अटकन थी।
हर दोराहे पर, हर चौराहे पर,
घूम-घूमकर जाते।
लौट-लौटकर आते।
जीवन में कहीं खो जाते।
समझ में ही थी तकरार
दुविधा रही अपार।
सब पाने की चाहत थी,
पर भटके कदमों की आहट थी।
क्या पाया, क्या खोया,
कभी कुछ समझ न आया।
अब भी दोराहों- चौराहों को
सुलझाने बैठी हूं,
न जाने क्यों ,
अब तक इस में उलझी बैठी हूं।
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कूड़े-कचरे में बचपन बिखरा है
आंखें बोलती हैं
कहां पढ़ पाते हैं हम
कुछ किस्से खोलती हैं
कहां समझ पाते हैं हम
किसी की मानवता जागी
किसी की ममता उठ बैठी
पल भर के लिए
मन हुआ द्रवित
भूख से बिलखते बच्चे
बेसहारा अनाथ
चल आज इनको रोटी डालें
दो कपड़े पुराने साथ।
फिर भूल गये हम
इनका कोई सपना होगा
या इनका कोई अपना होगा,
कहां रहे, क्या कह रहे
क्यों ऐसे हाल में है
हमारी एक पीढ़ी
कूड़े-कचरे में बचपन बिखरा है
किस पर डालें दोष
किस पर जड़ दें आरोप
इस चर्चा में दिन बीत गया !!
सांझ हुई
अपनी आंखों के सपने जागे
मित्रों की महफ़िल जमी
कुछ गीत बजे, कुछ जाम भरे
सौ-सौ पकवान सजे
जूठन से पंडाल भरा
अनायास मन भर आया
दया-भाव मन पर छाया
उन आंखों का सपना भागा आया
जूठन के ढेर बनाये
उन आंखों में सपने जगाये
भर-भर उनको खूब खिलाये
एक सुन्दर-सा चित्र बनाया
फे़सबुक पर खूब सजाया
चर्चा का माहौल बनाया
अगले चुनाव में खड़े हो रहे हम
आप सबको अभी से करते हैं नमन
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हम सब कैसे एक हैं
उलझता है बालपन
पूछता है कुछ प्रश्न
लिखा है पुस्तकों में
और पढ़ते हैं हम,
हम सब एक हैं,
हम सब एक हैं।
साथ-साथ रहते
साथ-साथ पढ़ते
एक से कपड़े पहन,
खाते-पीते , खेलते।
फिर आज
यह क्या हो गया
इसे हिन्दू बना दिया गया
मुझे मुसलमान
और इसे इसाई।
और कुछ मित्र बने हैं
सिख, जैनी, बौद्ध।
फिर कह रहे हैं
हम सब एक हैं।
बच्चे हैं हम।
समझ नहीं पा रहे हैं
कल तक भी तो
हम सब एक-से थे।
फिर आज
यूं
अलग-अलग बनाकर
क्यों कह रहे हैं
हम सब एक हैं,
हम सब एक हैं।