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कुछ समय पूर्व मेरी अपनी महिला सहकर्मी से चर्चा हुई फेसबुक मित्रों पर, जो मेरी फेसबुक मित्र भी है।
उसने बताया कि उसके फेसबुक मित्रों में केवल परिवार के अथवा पूर्व परिचित लोग ही हैं, कोई भी अपरिचित नहीं है जिसे उसने फेसबुक पर ही मित्र बनाया हो एवं अपरिचित हो।
मैंने बताया कि एक अपने पुत्र, उसके मित्र एवं कुछ महिला मित्रों के अतिरिक्त मेरी मित्र सूची में अधिकांश अपरिचित हैं जिन्हें मैंने फेसबुक पर ही मित्र बनाया है। अलग से उनसे न तो कोई पारिवारिक, मैत्री सम्बन्ध है और न ही कोई पूर्व परिचय। एेसे ही कुछ समूहों की भी सदस्य हूं और वहां भी कोई पूर्व परिचित नहीं है।
फिर मैंने और जानने का प्रयास किया तो जाना कि अधिकांश महिलाओं की मित्र सूची में परिवार के अथवा पूर्व परिचित लोग ही हैं। अर्थात वे अपने सामाजिक, पारिवारिक जीवन में, मोबाईल, वाट्स एप पर भी उनसे निरन्तर सम्पर्क में हैं और वे ही फेसबुक पर भी हैं।
फिर फेसबुक पर उनके लिए नया क्या ?
क्या हमें सत्य ही इतना डर कर रहना चाहिए जितना डराया जाता है।
क्यों हम सदैव ही किसी अपरिचित को अविश्वास की दृष्टि से ही देखे ?
जीवन में यदि हम अपरिचितों की उपेक्षा, संदेह, दूरियां ही बनाये रखेंगे तो समाज कैसे चलेगा।
सचेत रहना अलग बात है, अकारण संदेह में रहना अलग बात।
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जीवन-दर्शन दे जाते हैं ये पत्थर
किसी छैनी हथौड़ी के प्रहार से नहीं तराशे जाते हैं ये पत्थर
प्रकृति के प्यार मनुहार, धार धार से तराशे जाते हैं ये पत्थर
यूं तो ठोकरे खा-खाकर भी जीवन संवर-निखर जाता है
इस संतुलन को निहारती हूं तो जीवन डांवाडोल दिखाई देता है
मैं भाव-संतुलन नहीं कर पाती, जीवन-दर्शन दे जाते हैं ये पत्थर
देखो तो सूर्य भी निहारता है जब आकार ले लेते हैं ये पत्थर
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बुद्धम् शरणम गच्छामि
कथाओं के अनुसार आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व की कथा है। 563 ईसा पूर्व। एक राजकुमार अपनी सोती हुई पत्नी एवं नवजाव शिशु को आधी रात में त्याग कर ज्ञान प्राप्ति के लिए चला गया। उस युवक ने घोर तपस्या की, साधना की और दिव्य ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने सम्पूर्ण जगत को जरा, मरण, दुखों से मुक्ति दिलाने के लिए, सत्य एवं दिव्य ज्ञान की खोज के लिए जगत के हित के लिए वर्षों कठोर साधना की और अन्त में बिहार बोध गया में बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई ओर वे सिद्धार्थ गौतम से भगवान बुद्ध बन गये।
जिस ज्ञान की प्राप्ति के लिए बुद्ध ने अपने परिवार का परित्याग किया, जो कि उनका दायित्व था क्या उस ज्ञान का उपयोग आज यह संसार कर रहा है? क्या जगत के लिए उनका ज्ञान और उपदेश चरम उपलब्धि था?
यदि था तो उनके उपरान्त क्यों आवश्यकता पड़ी कि एक-अनेक युग-पुरुष आये जिन्होंने संसार को पुनः उपदेश दिये, अपने ज्ञान की धारा बहाई, ग्रंथ लिखे गये, आप्त वाक्य बने और यह क्रम आज भी चल रहा है। एक समय बाद ज्ञान की धारा धर्म का रूप ले लेती है। उपदेश की पुनरावृत्ति होती है हर युग में, केवल नाम बदलते हैं, स्थापनाएँ नहीं बदलतीं।
जब भी गौतम बुद्ध के त्याग, ज्ञान, बौद्धित्व, साधना की बात की जाती है मुझे केवल नवजात शिशु और यशोधरा की याद आती है, उनके प्रति कर्तव्य, विश्वास की डोर टूटी तो सम्पूर्ण जगत के साथ कैसे जोड़ी?
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प्यार इकरार की बात होती है
सुना है
चांदनी रात में
इश्क-मुहब्बत की
बहुत बात होती है।
प्यार भरे दिलों के
इज़हार की बात होती है।
पर हमारे साथ तो
सदा ही बहुत बेइंसाफ़ी होती है।
क्या करें,
जब भी अपने मन में
प्यार-इकरार की बात होती है,
आकाश पर न जाने कहां से
बादलों के
गड़गड़ाने की आवाज़ होती है।
हमारी हर
चांदनी रात, सदा ही
यूं ही बरबाद होती है।
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कल डाली पर था आज गुलदान में
कवियों की सोच को न जाने क्या हुआ है, बस फूलों पर मन फिदा हुआ है
किसी के बालों में, किसी के गालों में, दिखता उन्हें एक फूल सजा हुआ है
प्रेम, सौन्दर्य, रस का प्रतीक मानकर हरदम फूलों की चर्चा में लगे हुये हैं
कल डाली पर था, आज गुलदान में, और अब देखो धरा पर पड़ा हुआ है।
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नेह के मोती
अपने मन से,
अपने भाव से,
अपने वचनों से,
मज़बूत बांधी थी डोरी,
पिरोये थे
नेह के मोती,
रिश्तों की आस,
भावों का सागर,
अथाह विश्वास।
-
किन्तु
समय की धार
बहुत तीखी होती है।
-
अकेले
मेरे हाथ में नहीं थी
यह डोर।
हाथों-हाथ
घिसती रही
रगड़ खाती रही
गांठें पड़ती रहीं
और बिखरते रहे मोती।
और जब माला टूटती है
मोती बिखरते हैं
तो कुछ मोती तो
खो ही जाते हैं
कितना भी सम्हाल लें
बस यादें रह जाती हैं।
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मुस्कुराहटें बांटती हूँ
टोकरी-भर मुस्कुराहटें बांटती हूँ।
जीवन बोझ नहीं, ऐसा मानती हूँ।
काम जब ईमान हो तो डर कैसा,
नहीं किसी का एहसान माँगती हूँ।
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आशाओं के दीप
सुना है
आशाओं के
दीप जलते हैं।
शायद
इसी कारण
बहुत छोटी होती है
आशाओं की आयु।
और
इसी कारण
हम
रोज़-हर-रोज़
नया दीप प्रज्वलित करते हैं
आशाओं के दीप
कभी बुझने नहीं देते।
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सम्मान से जीना है रूपसी
आंखों की भाषा समझे न, निष्ठुर है यह जग रूपसी
आवरण हटा कर बोल, मन की बात खोल रूपसी
तेरी इस साज-सज्जा से यूं ही भ्रमित हैं सब देख तो
न डर, हो निडर, गर” सम्मान से जीना है रूपसी
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शायद प्यार से मन मिला नहीं था
यूं तो उनसे कोई गिला नहीं था
यादों का कोई सिला नहीं था
कभी-कभी मिल लेते थे यूं ही
शायद प्यार से मन मिला नहीं था
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सूर्यग्रहण के चित्र पर एक रचना
दूर कहीं गगन में
सूरज को मैंने देखा
चन्दा को मैंने देखा
तारे टिमटिम करते
जीवन में रंग भरते
लुका-छिपी ये खेला करते
कहते हैं दिन-रात हुई
कभी सूरज आता है
कभी चंदा जाता है
और तारे उनके आगे-पीछे
देखो कैसे भागा-भागी करते
कभी लाल-लाल
कभी काली रात डराती
फिर दिन आता
सूरज को ढूंढ रहे
कोहरे ने बाजी मारी
दिन में देखो रात हुई
चंदा ने बाजी मारी
तम की आहट से
दिन में देखो रात हुई
प्रकृति ने नवचित्र बनाया
रेखाओं की आभा ने मन मोहा
दिन-रात का यूं भाव टला
जीवन का यूं चक्र चला
कभी सूरज आगे, कभी चंदा भागे
कभी तारे छिपते, कभी रंग बिखरते
बस, जीवन का यूं चक्र चला
कैसे समझा, किसने समझा