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कहीं अच्छा लगता है मुझे
जब मैं देखती हूं
कि
नवरात्र आरम्भ होते ही
याद आती हैं मां
आह्वान करते हैं
दुर्गा, काली, चण्डी
सहस्त्रबाहु, सहस्त्रवाहिनी का ,
मूर्तियां सजाते हैं
शक्तियों की बात करते हैं।
शीश नवाते हैं
मांगते हैं कृपा, आशीष, रक्षा-कवच।
दुख-निवारण की बात करते हैं,
दुष्टों के संहार की आस करते हैं।
बस आशाएं, आकांक्षाएं, दया, कृपा
की मांग करते हैं।
याद आते हैं तो चढ़ावे
मन्नतें, मान्यताएं,
कन्या पूजन, व्रतोपवास,गरबा।
मन्दिरों की कतारें,
उत्सव ही उत्सव मनाते हैं,
अच्छा लगता है सब।
मन मुदित होता है
इस आनन्दमय संसार को देखकर।
किन्तु क्यों हम
आह्वान नहीं करते
कि मां
हमें भी दे वह शक्ति
जो दुष्टों का संहार कर सके
आवश्यकता पड़ने पर धार बन सके
प्रपंच छोड़कर
जीवन का आधार बन सके
उन नव रूपों का
कुछ अंश आत्मसात कर सकें
रोना-गिड़गिड़ाना छोड़कर
आत्मसम्मान की बात कर सकें
सिसकना छोड़कर
स्वाभिमान की बात कर सकें।
दुर्गा, काली, चण्डी,
सहस्त्रबाहु, सहस्त्रवाहिनी
जब जैसी आन पड़े
वैसा रूप धर सकें
यूं तो निर्माण की बात करते हैं
पर ज़रूरत पड़ने पर
विध्वंस की बात कर सकें।
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चेहरों पर फूल मन में कांटे
हमारी आदतें भी अजीब सी हैं
बस एक बार तय कर लेते हैं
तो कर लेते हैं।
नज़रिया बदलना ही नहीं चाहते।
वैसे मुद्दे तो बहुत से हैं
किन्तु इस समय मेरी दृष्टि
इन कांटों पर है।
फूलों के रूप, रस, गंध, सौन्दर्य
की तो हम बहुत चर्चा करते हैं
किन्तु जब भी कांटों की बात उठती है
तो उन्हें बस फूलों के
परिप्रेक्ष्य में ही देखते हैं।
पता नहीं फूलों के संग कांटे होते हैं
अथवा कांटों के संग फूल।
लेकिन बात दोनों की अक्सर
साथ साथ होती है।
इधर कांटों में भी फूल खिलने लगे है
और फूल
कांटों से चुभने लगे हैं।
लेकिन जब कांटों पर खिलते हैं फूल
तो हम कभी उनकी चर्चा ही नहीं करते।
बस इतना ही याद रख लिया है हमने
कि कांटों से चुभन होती है।
हां, होती है कांटों से चुभन।
लेकिन कांटा भी तो
कांटे से ही निकलता है।
और कभी छीलकर देखा है कांटों को
भीतर से कितने रसपूर्ण होते हैं ।
यह कांटे की प्रवृत्ति है
कि बाहर से तीक्ष्ण है,
पर भीतर ही भीतर खिलते हैं फूल।
एक अलग-सा
आकर्षण और सौन्दर्य
निहित होता है इनमें
जिसे परखना पड़ता है।
संजोकर देखना इन्हें,
जीवन भर अक्षुण्ण साथ देते है।
और जब मन में कांटे उगते हैं
तो यह पलभर का उद्वेलन नहीं होता।
जीवन रस
सूख सूख कर कांटों में बदल जाता है।
कोई जान न पाये इसे
इसलिए
कांटों की प्रवृत्ति के विपरीत
हम चेहरों पर फूल उगा लेते हैं
और मन में कांटे संजोये रहते हैं ।
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कुछ पाने के लिए सर टकराने पड़ते हैं
जीवन में
आगे बढ़ने के लिए
खतरे तो उठाने पड़ते हैं।
लीक से हटकर
चलते-चलते
अक्सर झटके भी
खाने पड़ते हैं।
हिमालय की चोटी छूने में
खतरा भी है,
जोखिम भी,
और शायद संकट भी।
जीवन में कुछ पाने के लिए
तीनों से सर
टकराने पड़ते हैं।
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रिश्तों का असमंजस
कुछ रिश्ते
फूलों की तरह होते हैं
और कुछ कांटों की तरह।
फूलों को सहेज लीजिए
कांटों को उखाड़ फेंकिए।
नहीं तो, बहुत
असमंजस की स्थिति
बनी रहती है।
किन्तु, कुछ कांटे
फूलों के रूप में आते हैं ,
और कुछ फूल
कांटों की तरह
दिखाई देते हैं।
और कभी कभी,
दोनों
साथ-साथ उलझे भी रहते हैं।
बड़ा मुश्किल होता है परखना।
पर परखना तो पड़ता ही है।
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नेह के मोती
अपने मन से,
अपने भाव से,
अपने वचनों से,
मज़बूत बांधी थी डोरी,
पिरोये थे
नेह के मोती,
रिश्तों की आस,
भावों का सागर,
अथाह विश्वास।
-
किन्तु
समय की धार
बहुत तीखी होती है।
-
अकेले
मेरे हाथ में नहीं थी
यह डोर।
हाथों-हाथ
घिसती रही
रगड़ खाती रही
गांठें पड़ती रहीं
और बिखरते रहे मोती।
और जब माला टूटती है
मोती बिखरते हैं
तो कुछ मोती तो
खो ही जाते हैं
कितना भी सम्हाल लें
बस यादें रह जाती हैं।
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सबको बहकाते
पुष्प निःस्वार्थ भाव से नित बागों को महकाते
पंछी को देखो नित नये राग हमें मधुर सुनाते
चंदा-सूरज दिग्-दिगन्त रोशन करते हर पल
हम ही क्यों छल-कपट में उलझे सबको बहकाते
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ब्लाकिंग ब्लाकिंग
अब क्या लिखें आज मन की बात। लिखने में संकोच भी होता है और लिखे बिना रहा भी नहीं जा सकता। अब हर किसी से तो अपने मन की पीड़ा बांटी नहीं जा सकती। कुछ ही तो मित्र हैं जिनसे मन की बात कह लेती हूं।
तो लीजिए कल फिर एक दुर्घटना घट गई एक मंच पर मेरे साथ। बहुत-बहुत ध्यान रखती हूं प्रतिक्रियाएं लिखते समय, किन्तु इस बार एक अन्य रूप में मेरी प्रतिक्रिया मुझे धोखा दे गई।
हुआ यूं कि एक कवि महोदय की रचना मुझे बहुत पसन्द आई। हम प्रंशसा में प्रायः लिख देते हैं: ‘‘बहुत अच्छी रचना’’, ‘‘सुन्दर रचना’’, आदि-आदि। मैं लिख गई ‘‘ बहुत सुन्दर, बहुत खूबसूरत’’ ^^रचना** शब्द कापी-पेस्ट में छूट गया।
मेरा ध्यान नहीं गया कि कवि महोदय ने अपनी कविता के साथ अपना सुन्दर-सा चित्र भी लगाया था।
लीजिए हो गई हमसे गलती से मिस्टेक। कवि महोदय की प्रसन्नता का पारावार नहीं, पहले मैत्री संदेश आया, हमने देखा कि उनके 123 मित्र हमारी भी सूची में हैं, कविताएं तो उनकी हम पसन्द करते ही थे। हमने सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर दी।
बस !! लगा संदेश बाक्स घनघनाने, आने लगे चित्र पर चित्र, कविताओं पर कविताएं, प्रशंसा के अम्बार, रात दस बजे मैसेंजर बजने लगा। मेरी वाॅल से मेरी ही फ़ोटो उठा-उठाकर मेरे संदेश बाक्स में आने लगीं। समझाया, लिखा, कहा पर कोई प्रभाव नहीं।
वेसे तो हम ऐसे मित्रों को Block कर देते हैं किन्तु इस बार एक नया उपाय सूझा।
हमने अपना आधार कार्ड भेज दिया,
अब हम Blocked हैं।
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मन तो घायल होये
मन की बात करें फिर भी भटकन होये
आस-पास जो घटे मन तो घायल होये
चिन्तन तो करना होगा क्यों हो रहा ये सब
आंखें बन्द करने से बिल्ली न गायब होये
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कुछ कह रही ओस की बूंदे
रंग-बिरंगी आभाओं से सजकर रवि हुआ उदित
चिड़ियां चहकीं, फूल खिले, पल्लव हुए मुदित
देखो भाग-भागकर कुछ कह रही ओस की बूंदे
इस मधुर भाव में मन क्यों न हो जाये प्रफुल्लित
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विश्वास के लायक कहीं कोई मिला नहीं था
जीवन में क्यों कोई हमारे हमराज़ नहीं था
यूं तो चैन था, हमें कोई एतराज़ नहीं था
मन चाहता है कि कोई मिले, पर क्या करें
विश्वास के लायक कहीं कोई मिला नहीं था
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आनन्द है प्यार में और हार में
जीवन की नैया बार-बार अटकती है मझधार में
पुकारती हूं नाम तुम्हारा बहती जाती हूं जलधार में
कभी मिलते,कभी बिछड़ते,कभी रूठते,कभी भूलते
यही तो आनन्द है हर बार प्यार में और हार में