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अपनी गलती का एहसास कर
सालता रहता है मन,
जब नहीं होता है काफ़ी
अफ़सोस का मरहम।
और कई बातों का जब
लग जाता है बन्धन
तो भूल जाती है वह घुटन।
लेकिन होता है जब कोई
वैसा ही एहसास दुबारा,
नासूर बन जाता है
तब वह घाव पुराना।
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और हम यूं ही लिखने बैठ जाते हैं कविता
आज ताज
स्वयं अपने साये में
बैठा है
डूबते सूरज की चपेट में।
शायद पलट रहा है
अपने ही इतिहास को।
निहारता है
अपनी प्रतिच्छाया,
कब, किसने,
क्यों निर्माण किया था मेरा।
एक कब्र थी, एक कब्रगाह।
प्रदर्शन था
सत्ता का, मोह का, धन का
अधिकार का
और शायद प्रेम का।
अथाह जलराशि में
न जाने क्या-क्या समाहित।
डूबता है मन, डूबते हैं भाव
काल के साथ
बदलते हैं अर्थ।
और हम यूं ही
लिखने बैठ जाते हैं कविता,
प्रेम की, विरह की, श्रृंगार की
और वेदना की।
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नारी स्वाधीनता की बात
मैं अक्सर
नारी स्वाधीनता की
बहुत बात करती हूँ।
रूढ़ियों के विरुद्ध
बहुत आलेख लिखती हूँ।
पर अक्सर
यह भी सोचती हूँ
कि समाज और जीवन की
सच्चाई से
हम मुँह तो मोड़ नहीं सकते।
जीवन तो जीवन है
उसकी धार के विपरीत
तो जा नहीं सकते।
वैवाहिक संस्था को हम
नकार तो नहीं सकते।
मानती हूँ मैं
कि नारी-हित में
शिक्षा से बड़ी कोई बात नहीं।
किन्तु परिवार को हम
बेड़ियाँ क्यों मानने लगे हैं
रिश्तों में हम
जकड़न क्यों महसूस करने लगे हैं।
पर्व-त्यौहार
क्यों हमें चुभने लगे हैं,
रीति-रिवाज़ों से क्यों हम
कतराने लगे हैं।
परिवार और शिक्षा
कोई समानान्तर रेखाएँ नहीं।
जीवन का आधार हैं ये
भरा-पूरा संसार हैं ये।
रूढ़ियों को हटायें
हाथ थाम आगे बढ़ाएँ।
जीवन को सरल-सुगम बनाएँ।
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जीवन संवर जायेगा
जब हृदय की वादियों में
ग्रीष्म ऋतु हो
या हो पतझड़,
या उलझे बैठे हों
सूखे, सूनेपन की झाड़ियों में,
तब
प्रकृति के
अपरिमित सौन्दर्य से
आंखें दो-चार करना,
फिर देखना
बसन्त की मादक हवाएँ
सावन की झड़ी
भावों की लड़ी
मन भीग-भीग जायेगा
अनायास
बेमौसम फूल खिलेंगे
बहारें छायेंगी
जीवन संवर जायेगा।
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अंधेरों से जूझता है मन
गगन की आस हो या चांद की,
धरा की नज़दीकियां छूटती नहीं।
मन उड़ता पखेरु-सा,
डालियों पर झूमता,
संजोता ख्वाब कोई।
अंधेरों से जूझता है मन,
संजोता है रोशनियां,
दूरियां कभी सिमटती नहीं,
आस कभी मिटती नहीं।
चांद है या ख्वाब कोई।
रोशनी है आस कोई।
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एक मानवता को बसाने में
ये धुएँ का गुबार
और चमकती रोशनियाँ
पीढ़ियों को लील जाती हैं
अपना-पराया नहीं पहचानतीं
बस विध्वंस को जानती हैं।
किसी गोलमेज़ पर
चर्चा अधूरी रह जाती है
और परिणामस्वरूप
धमाके होने लगते हैं
बम फटने लगते हैं
लोग सड़कों-राहों पर
मरने लगते हैं।
क्यों, कैसे, किसलिए
कुछ नहीं होता।
शताब्दियाँ लग जाती हैं
एक मानवता को बसाने में
और पल लगता है
उसको उजाड़ कर चले जाने में।
फिर मलबों के ढेर में
खोजते हैं
इंसान और इंसानियत,
कुछ रुपये फेंकते हैं
उनके मुँह पर
ज़हरीले आंसुओं से सींचते हैं
उनके घावों को
बदले की आग में झोंकते हैं
उनकी मानसिकता को
और फिर एक
गोलमेज़ सजाने लगते हैं।
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वास्तविकता और कल्पना
सच कहा है किसी ने
कलाकार की तूलिका
जब आकार देती है
मन से कुछ भाव देती है
तब मूर्तियाँ बोलती हैं
बात करती हैं।
हमें कभी
कलाकार नहीं बताता
अपने मन की बात
कला स्वयँ बोलती है
कहानी बताती है
बात कहती है।
.
निरखती हूँ
कलाकार की इस
अद्भुत कला को,
सुनना चाहती हूँ
इसके मन की बात
प्रयास करती हूँ
मूर्ति की भावानाओं को
समझने का।
आपको
कुछ रुष्ट-सी नहीं लगी
मानों कह रही
हे पुरुष !
अब तो मुझे आधुनिक बना
अपने आनन्द के लिए
यूँ न सँवार-सजा
मैं चाहती हूँ
अपने इस रूप को त्यागना।
घड़े हटा, घर में नल लगवा।
वैसे आधुनिकाओं की
वेशभूषा पर
करते रहते हो टीका-टिप्पणियाँ,
मेरी देह पर भी
कुछ अच्छे वस्त्र सजाते
सुन्दर वस्त्र पहनाते।
देह प्रदर्शनीय होती हैं
क्या ऐसी
कामकाजी घरेलू स्त्रियाँ।
गांव की गोरी
क्या ऐसे जाती है
पनघट जल भरन को ?
हे आदमी !
वास्तविकता और अपनी कल्पना में
कुछ तो तालमेल बना।
समझ नहीं पाती
क्यों ऐसी दोगली सोच है तुम्हारी !!
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चींटियों के पंख
सुना है
चींटियों की
मौत आती है
तो पर निकल आते हैं।
.
किन्तु चिड़िया के
पर नहीं निकलते
तब मौत आती है।
.
कभी-कभी
इंसान के भी
पर निकल आते हैं
अदृश्य।
उसे आप ही नहीं पता होता
कि वह कब
आसमान में उड़ रहा है
और कब धराशायी हो जाता है।
क्योंकि
उसकी दृष्टि
अपने से ज़्यादा
औरों के
पर गिनने पर रहती है।
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धन्यवाद देता हूँ ईश्वर को
मेरी खुशियों को
नज़र न लगे किसी की
धन्यवाद देता हूँ
ईश्वर को
मुझे वनमानुष ही रहने दिया
इंसान न बनाया।
न घर की चिन्ता
न घाट की
न धन की चिन्ता
न आवास की
न जमाखोरी
न धोखाधड़ी, न चोरी
न तेरी न मेरी
न इसकी न उसकी
न इधर की, न उधर की
न बच्चे बोझ
न बच्चों पर बोझ
यूँ ही मदमस्त रहता हूँ
अपनी मर्ज़ी से
खाता-पीता हूँ
मदमस्त सोता हूँ।
ईष्र्या हो रही है न मुझसे
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कितना खोया है मैंने
डायरी लिखते समय
मुझसे
अक्सर
बीच−बीच में
एकाध पन्ना
कोरा छूट जाया करता है
और कभी शब्द टूट जाते हैं
बिखरे से, अधूरे।
पता नहीं
कितना खोया है मैंने
और कितना छुपाना चाहा है
अपने–आप से ही
अनकहा–अनलिखा छोड़कर।
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कर्म-काण्ड छोड़कर, बस कर्म करो
राधा बोली कृष्ण से, चल श्याम वन में, रासलीला के लिए।
कृष्ण हतप्रभ, बोले गीता में दिया था संदेश हर युग के लिए।
बहुत अवतार लिए, युद्ध लड़े, उपदेश दिये तुम्हें हे मानव!
कर्म-काण्ड छोड़कर, बस कर्म करो मेरी आराधना के लिए ।