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पानी बरसा
चांद-सितारे डूबे
गगन हंसा
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पानी बरसा
धरती भीगी-भीगी
मिट्टी महकी
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पानी बरसा
अंकुरण हैं फूटे
पुष्प महके
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पानी बरसा
बूंद-बूंद टपकती
मन हरषा
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पानी बरसा
अंधेरा घिर आया
चिड़िया फुर्र
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पानी बरसा
मन है आनन्दित
तुम ठिठुरे
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मन से मन मिले हैं
यूं तो
मेरा मन करता है
नित्य ही
पूजा-आराधना करुँ।
किन्तु
पूजा के भी
बहुत नियम-विधान हैं
इसलिए
डरती हूं पूजा करने से।
ऐसा नहीं
कि मैं
नियमों का पालन करने में
असमर्थ हूँ
किन्तु जहाँ भाव हों
वहाँ विधान कैसा ?
जहाँ नेह हो
वहां दान कैसा ?
जहाँ भरोसा हो
वहाँ प्रदर्शन कैसा ?
जब
मन से मन मिले हैं
तो बुलावा कैसा ?
जब अन्तर्मन से जुड़े हैं
तो दिनों का निर्धारण कैसा ?
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तिनके का सहारा
कभी किसी ने कह दिया
एक तिनके का सहारा भी बहुत होता है,
किस्मत साथ दे
तो सीखा हुआ
ककहरा भी बहुत होता है।
लेकिन पुराने मुहावरे
ज़िन्दगी में साथ नहीं देते सदा।
यूं तो बड़े-बड़े पहाड़ों को
यूं ही लांघ जाता है आदमी,
लेकिन कभी-कभी एक तिनके की चोट से
घायल मन
हर आस-विश्वास खोता है।
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अब कोई हमसफ़र नहीं होता
प्रार्थनाओं का अब कोई असर नहीं होता।
कामनाओं का अब कोई
सफ़र नहीं होता।
सबकी अपनी-अपनी मंज़िलें हैं ,
और अपने हैं रास्ते।
सरे राह चलते
अब कोई हमसफ़र नहीं होता।
देखते-परखते निकल जाती है
ज़िन्दगी सारी,
साथ-साथ रहकर भी ,
अब कोई बसर नहीं होता।
भरोसे की तो हम
अब बात ही नहीं करते,
अपने और परायों में
अब कुछ अलग महसूस नहीं होता।
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कभी धरा कभी गगन को छू लें
चल री सखी
आज झूला झूलें,
कभी धरा
तो कभी
गगन को छू लें,
डोर हमारी अपने हाथ
जहां चाहे
वहां घूमें।
चिन्ताएं छूटीं
बाधाएं टूटीं
सखियों संग
हिल-मिल मन की
बातें हो लीं,
कुछ गीत रचें
कुछ नवगीत रचें,
मन के सब मेले खेंलें
अपने मन की खुशियां लें लें।
नव-श्रृंगार करें
मन से सज-संवर लें
कुछ हंसी-ठिठोली
कुछ रूसवाई
कभी मनवाई हो ली।
मेंहदी के रंग रचें
फूलों के संग चलें
कभी बरसे हैं घन
कभी तरसे है मन
आशाओं के दीप जलें
हर दिन यूं ही महक रहे
हर दिन यूं ही चहक रहे।
चल री सखी
आज झूला झूलें
कभी धरा
तो कभी
गगन को छू लें।
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शब्द में अभिव्यक्ति हो
मान देकर प्रतिमान की आशा क्यों करें
दान देकर प्रतिदान की आशा क्यों करें
शब्द में अभिव्यक्ति हो पर भाव भी रहे
विश्वास देकर आभार की आशा क्यों करें
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कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो
ममता, नेह, मातृछाया बरसाने वाली नारी में भी चाहत होती है
कोई उसके मस्तक को भी सहला दे तो कितनी राहत होती है
पावनता के सारे मापदण्ड बने हैं बस एक नारी ही के लिए
कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो यह भी चाहत होती है
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लिख नहीं पाती
मौसम बदल रहा है
बाहर का
या मन का
समझ नहीं पाती अक्सर।
हवाएं
तेज़ चल रही हैं
धूल उड़ रही है,
भावों पर गर्द छा रही है,
डालियां
बहकती हैं
और पत्तों से रुष्ट
झाड़ देती हैं उन्हें।
खिली धूप में भी
अंधकार का एहसास होता है,
बिन बादल भी
छा जाती हैं घटाएं।
लगता है
घेर रही हैं मुझे,
तब लिख नहीं पाती।
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बसन्त पंचमी पर
कामना है बस मेरी
जिह्वा पर सदैव
सरस्वती का वास हो।
वीणा से मधुर स्वर
कमल-सा कोमल भाव
जल-तरंगों की तरलता का आभास हो।
मिथ्या भाषण से दूर
वाणी में निहित
भाव, रस, राग हो।
गगन की आभा, सूर्य की उष्मा
चन्द्र की शीतलता, या हों तारे द्युतिमान
वाणी में सदैव सत्य का प्रकाश हो।
हंस सदैव मोती चुगे
जीवन में ऐसी शीतलता का भास हो।
किन्तु जब आन पड़े
तब, कलम क्या
वाणी में भी तलवार की धार सा प्रहार हो।
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पहचान खोकर मिले हैं खुशियां
कल खेली थी छुपन-छुपाई आज रस्सी-टप्पा खेलेंगे।
मैं लाई हूं चावल-रोटी, हिल-मिलकर चल खालेंगे।
तू मेरी चूड़ी-चुनरी ले लेना, मैं तेरी ले लेती हूं,
मां कैसे पहचानेगी हमको, मज़े-मज़े से देखेंगे।
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आनन्द है प्यार में और हार में
जीवन की नैया बार-बार अटकती है मझधार में
पुकारती हूं नाम तुम्हारा बहती जाती हूं जलधार में
कभी मिलते,कभी बिछड़ते,कभी रूठते,कभी भूलते
यही तो आनन्द है हर बार प्यार में और हार में