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वक्त को
जब मैं वक्त नहीं दे पाई
तो वह कहां मेरा होता ।
कहा मेरे साथ चल, हंस दिया।
कहा, ठहर ज़रा,
मैं तैयार तो हो लूं
साथ तेरे चलने के लिए,
उपहास किया मेरा।
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शिकायतों का पुलिंदा
शिकायतों का
पुलिंदा है मेरे पास।
है तो सबके पास
बस सच बोलने का
मेरा ही ठेका है।
काश!
कि शिकायतें
आपसे होतीं
किसी और से होतीं,
इससे-उससे होतीं,
तब मैं कितनी प्रसन्न होती,
बिखेर देती
सारे जहाँ में।
इसकी, उसकी
बुराईयाँ कर-कर मन भरती।
किन्तु
क्या करुँ
सारी शिकायतें
अपने-आपसे ही हैं।
जहाँ बोलना चाहिए
वहाँ चुप्पी साध लेती हूँ
जहाँ मौन रहना चाहिए
वहाँ बक-झक कर जाती हूँ।
हँसते-हँसते
रोने लग जाती हूँ,
रोते-रोते हँस लेती हूँ।
न खड़े होने का सलीका
न बैठने का
न बात करने का,
बहक-बहक जाती हूँँ
मन कहीं टिकता नहीं
बस
उलझी-उलझी रह जाती हूँ।
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इंसान की फ़ितरत
देखो रोशनी से कतराने लगे हैं हम
देखो बत्तियां बुझाने में लगे हैं हम
जलती तीली देखकर भ्रमित न होना
देखो सीढ़ियां गिराने में लगे हैं हम
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कानून तोड़ना हक है मेरा
जीत हार की बात न करना
गाड़ी यहां अड़ी हुई है।
कितने आगे कितने पीछे,
किसकी आगे, किसकी पीछे,
जांच अभी चली हुई है।
दोपहिए पर बैठे पांच,
चौपहिए में दस-दस बैठें,
फिर दौड़ रहे बाजी लेकर,
कानून तोड़ना हक है मेरा
देखें, किसकी दाल यहां गली हुई है।
गली-गली में शोर मचा है
मार-काट यहां मची हुई है।
कौन है राजा, कौन है रंक
जांच अभी चली हुई है।
राजा कहता मैं हूं रंक,
रंक पूछ रहा तो मैं हूं कौन
बात-बात में ठनी हुई है।
सड़कों पर सैलाब उमड़ता
कौन सही है कौन नहीं है,
आज यहां हैं कल वहां थे,
क्यों सोचे हम,
हमको क्या पड़ी हुई है।
कल हम थे, कल भी होंगे,
यही समझकर
अपनी जेब भरी हुई है।
अभी तो चल रही दाल-रोटी
जिस दिन अटकेगी
उस दिन हम देखेंगे
कहां-कहां गड़बड़ी हुई है।
अभी क्या जल्दी पड़ी हुई है।
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कंधों पर सिर लिए घूमते हैं
इस रचना में पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया गया है, पर्यायवाची शब्दों में भी अर्थ भेद होता है, इसी अर्थ भेद के कारण मुहावरे बनते हैं, ऐसा मैं समझती हूं, इसी दृष्टि से इस रचना का सृजन हुआ है
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सुनते हैं
अक्ल घास चरने गई है
मति मारी गई है
और समझ भ्रष्ट हो गई है
विवेक-अविवेक का अन्तर
भूल गये हैं
और मनीषा, प्रज्ञा, मेधा
हमारे ऋषि-मुनियों की
धरोहर हुआ करती थीं
जिन्हें हम सम्हाल नहीं पाये
अपनी धरोहर को।
बुद्धि-विवेक कहीं राह में छूट गये
और हम
यूं ही
कंधों पर सिर लिए घूमते हैं।
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एक अपनापन यूं ही
सुबह-शाम मिलते रहिए
दुआ-सलाम करते रहिए
बुलाते रहिए अपने घर
काफ़ी-चाय पिलाते रहिए
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हाथों से मिले नेह-स्पर्श
पत्थरों में भाव गढ़ते हैं,
जीवन में संवाद मरते हैं।
हाथों से मिले नेह-स्पर्श,
बस यही आस रखते है।
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सबको बहकाते
पुष्प निःस्वार्थ भाव से नित बागों को महकाते
पंछी को देखो नित नये राग हमें मधुर सुनाते
चंदा-सूरज दिग्-दिगन्त रोशन करते हर पल
हम ही क्यों छल-कपट में उलझे सबको बहकाते
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हाथ जब भरोसे के जुड़ते हैं
हाथ
जब भरोसे के
जुड़ते हैं
तब धरा, आकाश
जल-थल
सब साथ देते हैं
परछाईयाँ भी
संग-संग चलती हैं
जल किलोल करता है
कदम थिरकने लगते हैं
सूरज राह दिखाता है
जीवन रंगीनियों से
सराबोर हो जाता है,
नितान्त निस्पृह
अपने-आप में खो जाता है।
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कौन पापी कौन भक्त कोई निष्कर्ष नहीं
कुछ कथाएं
जिस रूप में हमें
समझाई जाती हैं
उतना ही समझ पाते हैं हम।
ये कथाएं, हमारे भीतर
रस-बस गई हैं,
बस उतना ही
मान जाते हैं हम।
प्रश्न नहीं करते,
विवाद में नहीं पड़ते,
बस स्वीकार कर लेते हैं,
और सहज भाव से
इस परम्परा को आगे बढ़ाते हैं।
कौन पापी, कौन भक्त
कोई निष्कर्ष नहीं निकाल पाते हैं हम।
अनगिन चरित्र और कथाओं में
उलझे पड़े रहते हैं हम।
विशेष पर्वों पर उनकी
महानता या दुष्कर्मों को
स्मरण करते हैं हम।
सत्य-असत्य को
कहां समझ पाये हम।
सत्य और कपोल-कल्पना के बीच,
कहीं पूजा-आराधना से,
कहीं दहन से, कहीं सज्जा से,
कहीं शक्ति का आह्वान,
तो कहीं राम का नाम,
उलझे मस्तिष्क को
शांत कर लेते हैं हम।
और जयकारा लगाते हुए
भीड़ का हिस्सा बनकर
आनन्द से प्रसाद खाते हैं हम।
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उधारों पर दुनिया चलती है
सिक्कों का अब मोल कहाँ
मिट्टी से तो लगते हैं।
पैसे की अब बात कहाँ
रंगे कार्ड-से मिलते हैं।
बचत गई अब कागज़ में
हिसाब कहाँ अब मिलते हैं।
खन-खन करते सिक्के
मुट्ठी में रख लेते थे।
पाँच-दस पैसे से ही तो
नवाब हम हुआ करते थे।
गुल्लक कब की टूट गई
बचत हमारी गोल हुई।
मंहगाई-टैक्सों की चालों से
बुद्धि हमारी भ्रष्ट हुई।
पैसे-पैसे को मोहताज हुए,
किससे मांगें, किसको दे दें।
उधारों पर दुनिया चलती है
शान इसी से बनती है।