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कविता लिखने के लिए
शब्दों की एक सीमा है
मेरे भीतर,
जो कट जाती है उस समय ,
जब मुझे कविता नहीं लिखनी होती।
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नाम लिखा है तुम्हारा
रोज़ एक फूल छुपाती थी किताबों में
तुम्हारे चेहरे का अक्स बनाती थी किताबों में
दिल की बात बताती थी किताबों में
फिर एक दिन किताब पुरानी हो गई
पन्ने खुलने लगे, फूल झरने लगे
सूखे फूलों को समेटा, पत्ती पत्ती को सहेजा
कोई देख न ले
इसलिए बंद मुठ्ठी में सहेजा
पर मुठ्ठी की दरारों से, चाहत झरने लगी
फूल फिर रूप लेने लगे,
रंग फिर बहकने लगे
नाम तुम्हारा लिखने लगे
दिल में बाग खिलने लगे
उपहार भेजती हूं तुम्हें
तुम्हारा ही दिल
नाम लिखा है तुम्हारा
फूलों में, कलियों में
इन उलझी लड़ियों में
सलमे सितारों में
तारों में , हारों में ।।।।।।
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ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक
वक्रतुण्ड , एकदन्त, चतुर्भुज, फिर भी रूप तुम्हारा मोहक है
शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै प्रिय भोज तुम्हारा मोदक है
ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक, क्षुद्र मूषक को सम्मान दिया
शिव गौरी के सुत, मां के वचन हेतु अपना मस्तक बलिदान किया
शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै जग का नित कल्याण किया
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कड़वाहटों को बो रहे हैं हम
गत-आगत के मोह में आज को खो रहे हैं हम
जो मिला या न मिला इस आस को ढो रहे हैं हम
यहां-वहां, कहां-कहां, किस-किसके पास क्या है
इसी कशमकश में कड़वाहटों को बो रहे हैं हम
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एक अजीब भटकाव है मेरी सोच में
एक अजीब भटकाव है मेरी सोच में
मेरे दिमाग में।
आपसे आज साझा करना चाहती हूं।
असमंजस में रहती हूं।
बात कुछ और चल रही होती है
और मैं कुछ और अर्थ निकाल लेती हूं।
अब आज की ही बात लीजिए।
नवरात्रों में
मां की चुनरी की बात हो रही थी
और मुझे होलिका की याद हो आई।
अब आप इसे मेरे दिमाग की भटकन ही तो कहेंगे।
लेकिन मैं क्या कर सकती हूं।
जब भी चुनरी की बात उठती है
मुझे होलिका जलती हुई दिखाई देती है,
और दिखाई देती है उसकी उड़ती हुई चुनरी।
कथाओं में पढ़ा है
उसके पास एक वरदान की चुनरी थी ।
शायद वैसी ही कोई चुनरी
जो हम कन्याओं का पूजन करके
उन्हें उढ़ाते हैं और आशीष देते हैं।
किन्तु कभी देखा है आपने
कि इन कन्याओं की चुनरी कब, कहां
और कैसे कैसे उड़ जाती है।
शायद नहीं।
क्योंकि ये सब किस्से कहानियां
इतने आम हो चुके हैं
कि हमें इसमें कुछ भी अनहोनी नहीं लगती।
देखिए, मैं फिर भटक गई बात से
और आपने रोका नहीं मुझे।
बात तो माता की चुनरी और
होलिका की चुनरी की कर रही थी
और मैं कहां कन्या पूजन की बात कर बैठी।
फिर लौटती हूं अपनी बात की आेर,
पता नहीं होलिका मां थी या नहीं।
किन्तु एक भाई की बहिन तो थी ही
और एक कन्या
जिसने भाई की आज्ञा का पालन किया था।
उसके पास एक वरदानमयी चुनरी थी।
और था एक अत्याचारी भाई।
शायद वह जानती भी नहीं थी
भाई के अत्याचारों, अन्याय को
अथवा प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति को।
और अपने वरदान या श्राप को।
लेकिन उसने एक बुरी औरत बनकर
बुरे भाई की आज्ञा का पालन किया।
अग्नि देवता आगे आये थे
प्रह्लाद की रक्षा के लिए।
किन्तु होलिका की चुनरी न बचा पाये,
और होलिका जल मरी।
वैसे भी चुनरी की आेर
किसी का ध्यान ही कहां जाता है
हर पल तो उड़ रही हैं चुनरियां।
और हम !
हमारे लिए एक पर्व हो जाता है
एक औरत जलती है
उसकी चुनरी उड़ती है और हम
आग जलाकर खुशियां मनाते हैं।
देखिए, मैं फिर भटक गई बात से
और आपने रोका नहीं मुझे।
अब आग तो बस आग होती है
जलाती है
और जिसे बचाना हो बचा भी लेती है।
अब देखिए न, अग्नि देव ले आये थे
सीता को ले आये थे सुरक्षित बाहर,
पवित्र बताया था उसे।
और राम ने अपनाया था।
किन्तु कहां बच पाई थी उसकी भी चुनरी
घर से बेघर हुई थी अपमानित होकर
फिर मांगा गया था उससे पवित्रता का प्रमाण।
और वह समा गई थी धरा में
एक आग लिए।
कहते हैं धरा के भीतर भी आग है।
आग मेरे भीतर भी धधकती है।
देखिए, मैं फिर भटक गई बात से
और आपने रोका नहीं मुझे।
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चल आज लड़की-लड़की खेलें
चल आज लड़की-लड़की खेलें।
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साल में
तीन सौ पैंसठ दिन।
कुछ तुम्हारे नाम
कुछ हमारे नाम
कुछ इसके नाम
कुछ उसके नाम।
रोज़ सोचना पड़ता है
आज का दिन
किसके नाम?
कुछ झुनझुने लेकर
घूमते हैं हम।
आम से खास बनाने की
चाह लिए
जूझते हैं हम।
समस्याओं से भागते
कुछ नारे
गूंथते हैं हम।
कभी सरकार को कोसते
कभी हालात पर बोलते
नित नये नारे
जोड़ते हैं हम।
हालात को समझते नहीं
खोखले नारों से हटते नहीं
वास्तविकता के धरातल पर
चलते नहीं
सच्चाई को परखते नहीं
ज़िन्दगी को समझते नहीं
उधेड़-बुन में लगे हैं
मन से जुड़ते नहीं
जो करना चाहिए
वह करते नहीं
बस बेचारगी का मज़ा लेते हैं
फिर आनन्द से
अगले दिन पर लिखने के लिए
मचलते हैं।
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सोच हमारी लूली-लंगड़ी
विचार हमारे भटक गये
सोच हमारी लूली-लंगड़ी
टांग उठाकर भाग लिए
पीठ मोड़कर चल दिये
राह छोड़कर चल दिये
राहों को हम छोड़ चले
चिन्तन से हम भाग रहे
सोच-समझ की बात नहीं
सब मिल-जुलकर यही करें
गलबहियां डालें घूम रहे
सत्य से हम भाग रहे
बोल हमारे कुंद हुए
पीठ पर हम वार करें
बच-बचकर चलना आ गया
दुनिया कुछ भी कहती रहे
पीठ दिखाना आ गया
बच-बचकर रहना आ गया।
चरण-चिन्ह हम छोड़ रहे
पीछे-पीछे जग आयेगा
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बैठे ठाले
चित्राधारित रचना हास्य
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मैं जिस डाल पर बैठा हूं, उसे ही काट रहा हूं, आपको कोई आपत्ति, कोई कष्ट आपको? नहीं न, तो काटने दीजिए, गिरूंगा तो मैं गिरूंगा, हड्डियां टूटेंगी तो मेरी टूटेंगी, आपको क्या? क्यों अपनी टांग अड़ाते हैं आप किसी और के मामले में। बता दूं कि दूसरों के मामलों में टांग अड़ाने पर भी टांग टूट जाती है।
हा हा! आजकल आरी से पेड़ कौन काटता है भला। आजकल तो मशीने हैं, पलभर में पूरा वृक्ष धराशायी। मैं जानता हूं कि आप क्या कहेंगे। आप कहेंगे कि यह तो मूर्खता प्रदर्शित करने का प्रतीक है कि जिस डाली पर बैठे उसी को काटना। मुहावरा है। किन्तु मूर्खता प्रदर्शित करने की आवश्यकता ही क्या ? प्रदर्शित करना है तो बुद्धिमानी कीजिए, चतुराई कीजिए, दक्षता कीजिए। किसी की भी मूर्खता तो उसके मुंह खोलते ही पता लग जाती है।
और हर समय गम्भीर बात करना ज़रूरी होता है क्या? जानता हूं मैं कि वृक्ष पर्यावरण की सुरक्षा के लिए ज़रूरी हैं। हमने विकास की आंधी में बहुत कुछ खो दिया है। आधुनिकता के पीछे भाग कर हम अपनी बहुत हानि कर रहे हैं। पर सूखा वृक्ष है तो काटेंगे ही, लकड़ी काम आयेगी और नये वृक्ष लगायेंगे किन्तु आपने तो पता नहीं कितनी कहानियां बना डालीं कि जिस डाल पर बैठा है, उसे ही काट रहा है।
मैं तो आप सबकी कल्पनाशक्ति देख रहा था कि मेरे इस चित्र को देखकर आप क्या सोचते हैं। आप ही इस चित्र को ध्यान से देखकर बताईये ज़रा, मैं इस वृक्ष पर चढ़ा कैसे? न डाली, न सहारा, न सीढ़ी। और लक्कड़हारे की तो मेरी यूनिफ़ार्म भी नहीं है। तो फिर ! प्रतीकात्मक है, मूर्खता प्रदर्शित करने का।
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नहीं बोलती नहीं बोलती
नहीं बोलती नहीं बोलती ,
जा जा अब मैं नहीं बोलती,
जब देखो सब मुझको गुस्सा करते।
दादी कहती छोरी है री,
कम बोला कर कम बोला कर।
मां कहती है पढ़ ले पढ़ ले।
भाई बोला छोटा हूं तो क्या,
तू लड़की है मैं लड़का।
मैं तेरा रक्षक।
क्या करना है मुझसे पूछ।
क्या कहना है मुझसे पूछ।
न कर बकबक न कर झकझक।
पापा कहते दुनिया बुरी,
सम्हलकर रहना ,
सोच-समझकर कहना,
रखना ज़बान छोटी ।
दिन भर चिडि़या सी चींचीं करती।
कोयल कू कू कू कू करती।
कौआ कां कां कां कां करता।
टामी भौं भौं भौं भौं करता।
उनको कोई कुछ नहीं कहता।
मुझको ही सब डांट पिलाते।
मैं पेड़ पर चढ़ जाउंगी।
चिडि़या संग रोटी खाउंगी।
वहीं कहीं सो जाउंगी।
फिर मुझसे मिलने आना,
गीत मधुर सुनाउंगी।
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असली-नकली की पहचान कहाँ
पीतल में सोने से ज़्यादा चमक आने लगी है
सत्य पर छल-कपट की परत चढ़ने लगी है
असली-नकली की पहचान कहाँ रह गई अब
बस जोड़-तोड़ से अब ज़िन्दगी चलने लगी है।
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बचाकर रखी है भीतर तरलता
कितना भी काट लो, कुछ है, जो जड़ें जमाये रखता है।
न भीतर से टूटने देता है, मन में इक आस बनाये रखता है।
बचाकर रखी है भीतर तरलता, नयी पौध तो पनपेगी ही,
धरा से जुड़े हैं तो कदम संभलेंगे, यह विश्वास जगाये रखता है ।