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अजीब है इंसान का मन।
कभी गहरे सागर पार उतरता है।
कभी
आकाश की उंचाईयों को
नापता है।
ज़िन्दगी में अक्सर
रोशनी की परछाईयां भी
राह दिखा जाती हैं।
ज़रूरी नहीं
कि सीधे-सीधे
किरणों से टकराओ।
फिर सूरज डूबता है,
या चांद चमकता है,
कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
ज़िन्दगी में,
कोई एक पल
तो ऐसा होता है,
जब सागर-तल
और गगन की उंचाईयों का
अन्तर मिट जाता है।
बस!
उस पल को पकड़ना,
और मुट्ठी में बांधना ही
ज़रा कठिन होता है।
*-*-*-*-*-*-*-*-*-
कविता सूद 1.10.2020
चित्र आधारित रचना
यह अनुपम सौन्दर्य
आकर्षित करता है,
एक लम्बी उड़ान के लिए।
रंगों में बहकता है
किसी के प्यार के लिए।
इन्द्रधनुष-सा रूप लेता है
सौन्दर्य के आख्यान के लिए।
तरू की विशालता
संवरती है बहार के लिए।
दूर-दूर तम फैला शून्य
समझाता है एक संवाद के लिए।
परिदृश्य से झांकती रोशनी
विश्वास देती है एक आस के लिए।
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करते पूजा-आराधना, पर कुण्ठित बोल हैं
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मुझे इश्तहार सी लगती हैं
ये मुहब्बतों की कहानियां
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बनठन कर खिंचे चित्र
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लम्बी मुस्कान
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मेरी यह बात
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वास्तविकता
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बहती धार सी देखो लगती है जिन्दगी।
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अवसान एवं उदित
यह कैसा समय है,
अंधेरे उजालों को
डराने में लगे हैं,
अपने पंख फैलाने में लगे हैं।
दूर जा रही रोशनियां,
अंधेरे निकट आने में लगे हैं।
अक्सर मैंने पाया है,
अवसान एवं उदित में
ज़्यादा अन्तर नहीं होता।
दोनों ही तम-प्रकाश से
जूझते प्रतीत होते हैं मुझे।
एक रोशनी-रंगीनियां समेटकर
निकल लेता है,
किसी पथ पर,
किसी और को
रोशनी बांटने के लिए।
और दूसरा
बिखरी रोशनी-रंगीनियों को
एक धुरी में बांधकर
फिर बिखेरता है
धरा पर।
चलो, आज एक नई कोशिश करें,
दोनों में ही रंगीनियां-रोशनी ढूंढे।
अंधेरे सिमटने लगेंगें
रोशनियां बिखरने लगेंगी।
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कुछ चमकते सपने बुनूं
जीवन में अकेलापन
बहुत कुछ बोलता है
कभी कभी
अथाह रस घोलता है।
अपने से ही बोलना
मन के तराने छेड़ना
कुछ पूछना कुछ बताना
अपने आप से ही रूठना, मनाना
उलटना पलटना
कुछ स्मृतियों को।
यहां बैठूं या वहां बैठूं
पेड़ों पर चढ़ जाउं
उपवन में भागूं दौड़ूं
तितली को छू लूं
फूलों को निहारूं
बादलों को पुकारूं
आकाश को पुकारूं
फिर चंदा-तारों को ले मुट्ठी में
कुछ चमकते सपने बुनूं
अपने मन की आहटें सुनूं
अपनी चाहतों को संवारू
फिर
ताज़ी हवा के झोंके के साथ
लौट आउं वर्तमान में
सहज सहज।