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रोशनी का बस एक तीर निकलना चाहिए
छल-कपट और पाप का घट फूटना चाहिए
तुम राम हो या रावण, कर्ण हो या अर्जुन
बस दुराचारियों का साहस तार-तार होना चाहिए
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विश्वास का एहसास
हर दिन रक्षा बन्धन का-सा हो जीवन में
हर पल सुरक्षा का एहसास हो जीवन में
कच्चे धागों से बंधे हैं जीवन के सब रिश्ते
इन धागों में विश्वास का एहसास हो जीवन में
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सघन-वन-कानन ये मन है
सघन-वन-कानन ये मन है।
चिड़िया भी चहके,
कोयल भी कूके,
फूलों की डाली भी महके,
कभी उलझ-उलझकर
मन-भाव बहके।
पर डर लगता है
जब
वानर, डाल-डाल बहके।
कब जाग उठेगा नृसिंह
कब गज की गर्जन से
गूंजेगा गगन,
कौन जाने।
कभी हरीतिमा, कभी सूखा,
कभी पतझड़, कभी रूखा
कब टूटेगी डाली,
कब बिखरेंगे पल्लव
कौन जाने।
दावानल भीतर ही भीतर चलता है
इसीलिए ये
सघन-वन-कानन मन डरता है।
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हां, मैं हूं कुत्ता
एक कुत्ते ने
फेसबुक पर अपना चित्र देखा,
और बड़बड़ाया
इस इंसान को देखो
फेसबुक पर भी मुझे ले आया।
पता नहीं क्या-क्या कह डालेगा मेरे बारे मे।
दुनिया-जहां में तो
नित्यप्रति मेरी कहानियां
गढ़-गढ़कर समय बिताता है।
पता नहीं कितने मुहावरे
बनाये हैं मेरे नाम से,
तरह तरह की बातें बनाता है।
यह तो शिष्ट-सभ्य,
सुशिक्षित बुद्धिजीवियों का मंच है,
मैं अपने मन की पीड़ा
यहां कह भी तो नहीं सकता।
कोई टेढ़ी पूंछ के किस्से सुनाता है,
तो कोई स्वामिभक्ति के गुण गाता है।
कोई तलुवे चाटने की बात करता है
तो कोई बेवजह ही दुत्कारता है।
किसी को मेरे भाग्य से ईर्ष्या होती है
तो कोई अपनी भड़ास निकालने के लिए
मुझे लात मारकर चला जाता है।
और महिलाओं के हाथ में
मेरा पट्टा देखकर तो
मेरी भांति ही लार टपकाता है।
बची बासी रोटी डालने से
कोई नहीं हिचकिचाता है।
बस,आज तक
एक ही बात समझ नहीं आई
कि मैं कुत्ता हूं, जानता हूं,
फिर मुझे कुत्ता-कुत्ता कहकर क्यों चिड़ाता है।
और हद तो तब हो गई
जब अपनी तुलना मेरे साथ करने लगता है।
बस, तभी मेरा मन
इस इंसान को
काट डालने का करता है।
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मैं भी तो
यहां
हर आदमी की ज़ुबान
एक धारदार छुरी है
जब चाहे, जहां चाहे,
छीलने लगती है
कभी कुरेदने तो कभी काटने।
देखने में तुम्हें लगेगी
एकदम अपनी सी।
विनम्र, झुकती, लचीली
तुम्हारे पक्ष में।
लेकिन तुम देर से समझ पाते हो
कि सांप की गति भी
कुछ इसी तरह की होती है।
उसकी फुंकार भी
आकर्षित करती है तुम्हें
किसी मौके पर।
उसका रंग रूप, उसका नृत्य _
बीन की धुन पर उसका झूमना
तुम्हें मोहने लगता है।
तुम उसे दूध पिलाने लगते हो
तो कभी देवता समझ कर
उसकी पूजा करते हो।
यह जानते हुए भी
कि मौका मिलते ही
वह तुम्हें काट डालेगा।
और तुम भी
सांप पाल लेते हो
अपनी पिटारी में।
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श्मशान में देखो
देश-प्रेम की आज क्यों बोली लगने लगी है
मौत पर देखो नोटों की गिनती होने लगी है
राजनीति के गलियारों में अजब-सी हलचल है
श्मशान में देखो वोटों की गिनती होने लगी है
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मेरे पास बहुत सी उम्मीदें हैं
मेरे पास बहुत सी उम्मीदें हैं
जिन्हें रखने–सहेजने के लिए,
मैं बार बार पर्स खरीदती हूं–
बहुत सी जेबों वाले
चेन, बटन, खुले मुंह
और ताले वाले।
फिर अलग अलग जेबों में
अलग अलग उम्मीदों को
सम्हालकर रख देती हूं।
और चिट लगा देती हूं
कि कहीं
किसी उम्मीद को भुनाते समय
कोई और उम्मीद न निकल जाये।
पर पता नहीं, कब
सब उम्मीदें गड्ड मड्ड हो जाती हैं।
कभी कहीं कोई उम्मीद गिर जाती है
तो कभी बिखर जाती है।
चिट लगी रहने के बावजूद,
ताला और चेन जड़े रहने के बावजूद,
उम्मीदों का रंग बदल जाता है,
तो कभी चिट पर लिखा नाम ही
और कभी उसका स्थान।
फिर पर्स में कहीं कोई छिद्र भी नहीं
फिर भी सिलती हूं, टांकती हूं, बदलती हूं।
पर उम्मीद है कि टिकती नहीं
पर मुझे
अभी भी उम्मीद है
कि एक दिन हर उम्मीद पूरी होगी।
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कुछ तो हुआ होगा
कुछ तो हुआ होगा
जो हाथों में मशालें उठीं
कुछ तो किया होगा
जो सड़कों पर आहें उगीं
कुछ तो जला होगा
जो नारों से गलियां गूंजीं
कुछ तो सहा होगा
जो शहर-शहर भीड़ उमड़ी
इतना आसान नहीं लगता मुझे
कि शहर-शहर
किसी एक बात को लेकर
किसी को यूं भड़काया जा सके
युवक ही नहीं
युवतियों को भी उकसाया जा सके
पुस्तकालयों में पढ़ते बच्चे
कैसे सड़कों पर आ बैठे
नहीं जानते हम, नहीं पढ़ते हम
नहीं समझते हम
सुनी-सुनाई, अधकचरी सूचनाओं से
भड़कते हम।
बस , कचरा परोसा जा रहा
गली-गली परनाले बहते
हम उसे उंडेल उंडेल कर
नाक सिकुड़ते, भौं मरोड़ते
सच्चाई के पीछे भागते
तो हाथ जलते
कहां से शुरू हो रहा
और कहां होगा अन्त
नहीं जानते हम।
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आदमी आदमी से पूछता
आदमी आदमी से पूछता है
कहां मिलेगा आदमी
आदमी आदमी से पूछता है
कहीं मिलेगा आदमी
आदमी आदमी से डरता है
कहीं मिल न जाये आदमी
आदमी आदमी से पूछता है
क्यों डर कर रहता है आदमी
आदमी आदमी से कहता है
हालात बिगाड़ गया है आदमी
आदमी आदमी को बताता है
कर्त्तव्यों से भागता है आदमी
आदमी आदमी को बताता है
अधिकार की बात करता है आदमी
आदमी आदमी को सताता है
यह बात जानता है हर आदमी
आदमी आदमी को बताता है
हरपल जीकर मरता है आदमी
आदमी आदमी को बताता है
सबसे बेकार जीव है तू आदमी
आदमी आदमी से पूछता है
ऐसा क्यों हो गया है आदमी
आदमी आदमी को समझाता है
आदमी से बचकर रहना हे आदमी
और आदमी, तू ही आदमी है
कैसे भूल गया, तू हे आदमी !
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अंधेरों और रोशनियों का संगम है जीवन
भाव उमड़ते हैं,
मिटते हैं, उड़ते हैं,
चमकते हैं।
पंख फैलाती हैं
आशाएं, कामनाएं।
लेकिन, रोशनियां
धीरे-धीरे पिघलती हैं,
बूंद-बूंद गिरती हैं।
अंधेरे पसरने लगते हैं।
रोशनियां यूं तो
लुभावनी लगती हैं,
लेकिन अंधेरे में
खो जाती हैं
कितनी ही रोशनियां।
मिटती हैं, सिमटती हैं,
जाते-जाते कह जाती हैं,
अंधेरों और रोशनियों का
संगम है जीवन,
यह हम पर है
कि हम किसमें जीते हैं।
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कड़वाहटों को बो रहे हैं हम
गत-आगत के मोह में आज को खो रहे हैं हम
जो मिला या न मिला इस आस को ढो रहे हैं हम
यहां-वहां, कहां-कहां, किस-किसके पास क्या है
इसी कशमकश में कड़वाहटों को बो रहे हैं हम