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रूठकर बैठी हूं
कभी तो मनाने आओ।
आज मैं नहीं,
तुम खाना बनाओ।
फिर चलेंगे सिनेमा
वहां पापकार्न खिलाओ।
चप्पल टूट गई है मेरी
मैंचिंग सैंडल दिलवाओ।
चलो, इसी बात पर आज
आफ़िस से छुट्टी मनाओ।
अरे!
मत डरो,
कि काम के लिए कह दिया,
चलो फिर,
बस आज बाहर खाना खिलाओ।
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सुनो, एकान्त का मधुर-मनोहर स्वर
सुनो,
एकान्त का
मधुर-मनोहर स्वर।
बस अनुभव करो
अन्तर्मन से उठती
शून्य की ध्वनियां,
आनन्द देता है
यह एकाकीपन,
शान्त, मनोहर।
कितने प्रयास से
बिछी यह श्वेत-धवल
स्वर लहरी
मानों दूर कहीं
किसी
जलतरंग की ध्वनियां
प्रतिध्वनित हो रही हों
उन स्वर-लहरियों से
आनन्दित
झुक जाते हैं विशाल वृक्ष
तृण भारमुक्त खड़े दिखते हैं
ऋतु बांध देती है हमें
जताती है
ज़रा मेरे साथ भी चला करो
सदैव मनमानी न करो
आओ, बैठो दो पल
बस मेरे साथ
बस मेरे साथ।
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हम श्मशान बनने लगते हैं
इंसान जब मर जाता है,
शव कहलाता है।
जिंदा बहुत शोर करता था,
मरकर चुप हो जाता है।
किन्तु जब मर कर बोलता है,
तब प्रेत कहलाता है।
.
श्मशान में टूटती चुप्पी
बहुत भयंकर होती है।
प्रेतात्माएं होती हैं या नहीं,
मुझे नहीं पता,
किन्तु जब
जीवित और मृत
के सम्बन्ध टूटते हैं,
तब सन्नाटा भी टूटता है।
कुछ चीखें
दूर तक सुनाई देती हैं
और कुछ
भीतर ही भीतर घुटती हैं।
आग बाहर भी जलती है
और भीतर भी।
इंसान है, शव है या प्रेतात्मा,
नहीं समझ आता,
जब रात-आधी-रात
चीत्कार सुनाई देती है,
सूर्यास्त के बाद
लाशें धधकती हैं,
श्मशान से उठती लपटें,
शहरों को रौंद रही हैं,
सड़कों पर घूम रही हैं,
बेखौफ़।
हम सिलेंडर, दवाईयां,
बैड और अस्पताल का पता लिए,
उनके पीछे-पीछे घूम रहे हैं
और लौटकर पंहुच जाते हैं
फिर श्मशान घाट।
.
फिर चुपचाप
गणना करने लगते हैं, भावहीन,
आंकड़ों में उलझे,
श्मशान बनने लगते हैं।
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नयन क्यों भीगे
मन के उद्गारों को कलम उचित शब्द अक्सर दे नहीं पाती
नयन क्यों भीगे, यह बात कलम कभी समझ नहीं पाती
धूप-छांव तो आनी-जानी है हर पल, हर दिन जीवन में
इतनी सी बात क्यों इस पगले मन को समझ नहीं आती
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दिल आजमाने में लगे हैं
अब गुब्बारों में दिल सजाने लगे हैं
उनकी कीमत हम लगाने लगे हैं
पांच-सात रूपये में ले जाईये मनचाहे
फुलाईये, फोड़िए
या यूं ही समय बिताने में लगे हैं
मायूसे दिल की ओर तो कोई देखता ही नहीं
सोने चांदी के भाव अब लगाने लगे हैं
दिल कहां, दिलदार कहां अब
बातें करते बहुत
पर असल ज़िन्दगी में टांके लगाने लगे हैं
कुछ तुम दीजिए, कुछ हमसे लीजिए
पर न फोड़ना इस दिल को
न काटना इसे
असलियत निकल आयेगी
न खून बहेगा, न आस आहें भरेंगी
बस रोंआ-रोंआ बिखरेगा
सरकार ने प्लास्टिक बन्द कर दिया है
बस इतनी सी बात हम बताने में लगे हैं
समझ आया हो कुछ, तो ठीक
नहीं तो हम
कहीं और दिल आजमाने में लगे हैं।
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बांसुरी छोड़ो आंखें खोलो
बांसुरी छोड़ो, आंखें खोलो,
ज़रा मेरी सुनो।
कितने ही युगों में
नये से नये अवतार लेकर
तुमने
दुष्टों का संहार किया,
विश्व का कल्याण किया।
और अब इस युग में
राधा-संग
आंख मूंदकर निश्चिंत बैठे हो,
मानों सतयुग हो, द्वापर युग हो
या हो राम-राज्य।
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अथवा मैं यह मान लूं,
कि तुम
साहस छोड़ बैठे हो,
आंख खोलने का।
क्योंकि तुम्हारे प्रत्येक युग के दुष्ट
रूप बदलकर,
इस युग में संगठित होकर,
तुमसे पहले ही अवतरित हो चुके हैं,
नाम-ग्राम-पहचान सब बदल चुके हैं,
निडर।
क्योंकि वे जानते हैं,
तुम्हारे आयुध पुराने हो चुके हैं,
तुम्हारी सारी नीतियां,
बीते युगों की बात हो चुकी हैं,
और कोई अर्जुन, भीम नहीं हैं यहां।
अत: ज़रा संम्हलकर उठना।
वे राह देख रहे हैं तुम्हारी
दो-दो हाथ करने के लिए।
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लौट-लौटकर जीती हूं जीवन
चेहरे की रेखाओं को
नहीं गिनती मैं,
मन के दर्पण में
भाव परखती हूं।
आयु से
अपनी कामनाओं को
नहीं नापती मैं,
अधूरी छूटी कामनाओं को
पूरा करने के लिए
दर्पण में
राह तलाशती हूं मैं।
अपनी वह छाया
परखती हूं,
जिसके सपने देखे थे।
कितने सच्चे थे
कितने अपने थे,
कितने छूट गये
कितने मिट गये
दोहराती हूं मैं।
चेहरे की रेखाओं को
नहीं गिनती मैं,
अपनी आयु से
नहीं डरती मैं।
लौट-लौटकर
जीती हूं जीवन।
जीवन-रस पीती हूं।
क्योंकि
मैं रेखाएं नहीं गिनती,
मैं मरने से नहीं डरती।
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शब्द में अभिव्यक्ति हो
मान देकर प्रतिमान की आशा क्यों करें
दान देकर प्रतिदान की आशा क्यों करें
शब्द में अभिव्यक्ति हो पर भाव भी रहे
विश्वास देकर आभार की आशा क्यों करें
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छोटी-छोटी बातों पर
छोटी-छोटी बातों पर
अक्सर यूँ ही
उदासी घिर आती है
जीवन में।
तब मन करता है
कोई सहला दे सर
आँखों में छिपे आँसू पी ले
एक मुस्कुराहट दे जाये।
पर सच में
जीवन में
कहाँ होता है ऐसा।
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आ गया है
अपने-आपको
आप ही सम्हालना।
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कहते हैं कोई ऊपरवाला है
कहते हैं कोई ऊपरवाला है, सब कुछ वो ही तो दिया करता है
पर हमने देखा है, जब चाहे सब कुछ ले भी तो लिया करता है
लोग मांगते हाथ जोड़-जोड़कर, हरदम गिड़गिड़ाया करते हैं
पर देने की बारी सबसे ज़्यादा टाल-मटोल वही किया करता है
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कभी हमारी रचना पर आया कीजिए
समीक्षा कीजिए, जांच कीजिए, पड़ताल कीजिए।
इसी बहाने कभी-कभार रचना पर आया कीजिए।
बहुत आशाएं तो हम करते नहीं समीक्षकों से,
बहुत खूब, बहुत सुन्दर ही लिख जाया कीजिए।