Share Me
रात और चांद का अजीब सा सिलसिला है
चांद तो चाहिए पर रात से सबको गिला है
चांद चाहिए तो रात का खतरा उठाना होगा
चांद या अंधेरा, देखना है, किसे क्या मिला है
Share Me
Write a comment
More Articles
जीवन के रंग
द्वार पर आहट हुई,
कुछ रंग खड़े थे
कुछ रंग उदास-से पड़े थे।
मैंने पूछा
कहां रहे पूरे साल ?
बोले,
हम तो यहीं थे
तुम्हारे आस-पास।
बस तुम ही
तारीखें गिनते हो,
दिन परखते हो,
तब खुशियां मनाते हो
मानों प्रायोजित-सी
हर दिन होली-सा देखो
हर रात दीपावली जगमगाओ
जीवन में रंगों की आहट पकड़ो।
हां, जीवन के रंग बहुत हैं
कभी ग़म, कभी खुशी
के संग बहुत हैं,
पर ये आना-जाना तो लगा रहेगा
बस जीवन में
रंगों की हर आहट पकड़ो।
हर दिन होली-सा रंगीन मिलेगा
हर दिन जीवन का रंग खिलेगा।
बस
मन से रंगों की हर आहट पकड़ो।
Share Me
कहीं लहर-लहर, कभी भंवर-भंवर
जीवन एक बहती धारा है, जब चाहे, नित नई राहें बदले
कभी दुख की घनघोर घटाएं, कभी सरस-सरस घन बरसें
पल-पल साथी बदले, कोई छूटा, कभी नया मीत मिला
कहीं लहर-लहर, कभी भंवर-भंवर यही जीवन है, पगले
Share Me
जिन्दगी के अफ़साने
लहरों पर डूबेंगे उतरेंगे, फिर घाट पर मिलेंगे
झंझावात है, भंवर है सब पार कर चलेंगे
मत सोच मन कि साथ दे रहा है कोई या नहीं
बस चलाचल,जिन्दगी के अफ़साने यूं ही बनेंगे
Share Me
प्रकृति के प्रपंच
प्रकृति भी न जाने कहां-कहां क्या-क्या प्रपंच रचा करती है
पत्थरों को जलधार से तराश कर दिल बना दिया करती है
कितना भी सजा संवार लो इस दिल को रंगीनियों से तुम
बिगड़ेगा जब मिज़ाज उसका, पल में सब मिटा दिया करती है
Share Me
मुहब्बतों की कहानियां
मुझे इश्तहार सी लगती हैं
ये मुहब्बतों की कहानियां
कृत्रिम सजावट के साथ
बनठन कर खिंचे चित्र
आँखों तक खिंची
लम्बी मुस्कान
हाथों में यूँ हाथ
मानों
कहीं छोड़कर न भाग जाये।
Share Me
मैमोरैण्डम
हर डायरी के
प्रारम्भ और अन्त में
जड़े कुछ पृष्ठ पर
जिन पर लिखा होता है
‘मैमोरैण्डम’ अर्थात् स्मरणीय।
मैमोरी के लिए
स्मरण रखने के लिए है क्या ?
वे बीते क्षण
जो बीतकर
या तो बीत गये हैं
या बीतकर भी
अनबीते रह गये हैं।
अथवा वे आने वाले क्षण
जो या तो आये ही नहीं
या बिना आये ही चले गये हैं।
बीत गये क्षण: एक व्यर्थता -
बडे़-बड़े विद्वानों ने कहा है
भूत को मत देखो
भविष्य में जिओ।
भविष्य: एक अनबूझ पहेली
उपदेश मिलता है
आने वाले कल की
चिन्ता क्यों करते हो
आज को तो जी लो।
और आज !
आज तो आज है
उसे क्या याद करें।
तो फिर मैमोरैण्डम फाड़ डालें।
Share Me
कुछ पाने के लिए सर टकराने पड़ते हैं
जीवन में
आगे बढ़ने के लिए
खतरे तो उठाने पड़ते हैं।
लीक से हटकर
चलते-चलते
अक्सर झटके भी
खाने पड़ते हैं।
हिमालय की चोटी छूने में
खतरा भी है,
जोखिम भी,
और शायद संकट भी।
जीवन में कुछ पाने के लिए
तीनों से सर
टकराने पड़ते हैं।
Share Me
अतिथि तुम तिथि देकर आना
शीत बहुत है, अतिथि तुम तिथि देकर आना
रेवड़ी, मूगफ़ली, गचक अच्छे से लेकर आना
लोहड़ी आने वाली है, खिचड़ी भी पकनी है
पकाकर हम ही खिलाएंगे, जल्दी-जल्दी जाना
Share Me
घर की पूरी खुशियां बसती थी
आंगन में चूल्हा जलता था, आंगन में रोटी पकती थी,
आंगन में सब्ज़ी उगती थी, आंगन में बैठक होती थी
आंगन में कपड़े धुलते थे, आंगन में बर्तन मंजते थे
गज़ भर के आंगन में घर की पूरी खुशियां बसती थी
Share Me
दोहरी मानसिकता
अपने पाँव पर आप हथौड़ी मारना मुहावरा तो सुना ही होगा आपने। महिलाओं के जीवन पर पूरा फ़िट होता है। इसी अर्थ को ध्वनित करते और भी बहुत से मुहावरे हैं, अभी याद नहीं आ रहे। जैसे अपने लिए कुँआ खोदना अथवा अपने लिए गढ्ढा खोदना आदि-आदि। जो कुठाराघात, हथौड़ा अपने विरुद्ध उठे कदमों पर उठाना चाहिए, अपने साथ हो रहे अन्याय पर उठाना चाहिए, मृत परम्पराओं, शोषण प्रधान रीति-रिवाज़ों पर उठाना चाहिए, वे अपने पर ही चलाती रहती हैं और फिर अपने लिए कहती हैं: वाह-वाह, वाह-वाह-वाह!!
महिलाएँ सारा जीवन यही करती हैं। वे तय ही नहीं कर पातीं कि उन्हें जीवन में क्या चाहिए और कितना और किसके लिए चाहिए।
संस्कार, रीति-रिवाज़, परम्पराएँ, व्रतोपवास, पूजा-अर्चना, अर्थात भारतीयता, भारतीय संस्कृति उनके भीतर बोलती है। किन्तु पढ़ना भी है, नौकरी भी करनी है, स्वभाव में व रहन-सहन में पुरातनता नहीं दिखनी चाहिए। किन्तु इतनी आधुनिकता भी न दिखे कि लोग अंगुलियां उठाने लगें। अन्यान्य गतिविधियों में भी आजकल पांरगत होना आवश्यक है। घर-गृहस्थी, परिवार तो उनका दायित्व रहता ही है। आत्मनिर्भर होना आवश्यक है। किन्तु इतना आत्मनिर्भर भी न हो जायें कि पुरुष, पति अथवा परिवार पर हावी होने लगें। गाड़ी चलाना भी सीखना चाहिए। उनके जीवन की सार्थकता सभी रिश्तों को ओढ़कर चलने और उनकी सफ़लता में है, वही उनका व्यक्तित्व है और इससे ही समाज उनके व्यक्तित्व को पारिभाषित करता है।
उनमें संस्कारों के प्रति गहरी आस्था रहती है। वे रीति-रिवाज़ों का पालन भी करना चाहती हैं और उन्हें बदलना भी चाहती हैं।
बहुत पहले की बात है जब समाचार पत्रों में वैवाहिक विज्ञापनों का बहुत महत्व हुआ करता था। उस समय लड़कों की ओर से लड़कियों के लिए प्रकाशित होने वाले विज्ञापनों की भाषा कुछ इस तरह की हुआ करती थी, ‘‘आवश्यकता है एक संस्कारी, पारिवारिक, घरेलू लड़की की , जो घर का काम-काज जानती हो। अनुपम सुन्दरी,गोरा रंग, आकर्षक, पतली, कान्वैंट से पढ़ी, लड़का विदेश में सैटलड्। देश-विदेश में फैला व्यवसाय, लड़की माहौल के अनुसार एडजैस्ट हो सके।’’
मुझे यह विज्ञापन अधूरा लगता था। तब मैंने पहले दिये गये विवरण के अतिरिक्त लिखा था, ‘‘ आवश्यकता है एक लड़की की, ..................... जो किटी, क्लब के योग्य हो, करवाचैथ का व्रत रखना जानती हो, मेंहदी लगाना, लाल साड़ी पहनना, मांग में सिंदूर और और इस तरह के सभी कार्यक्रम जानती हो। आवश्यकता पड़ने पर साड़ी को सूट, मिनी स्कर्ट बनाना जानती हो, और मिनी स्कर्ट को स्विमिंग सूट बनाना जानती हो। साग-मक्की की रोटी बनाना और चिकन खाना जानती हो, भरतनाट्यम में पाॅप और कथक में बैले करना जानती हो।’’ क्योंकि विदेशों में भारतीय संस्कृति का प्रदर्शन महिलाओं के ही माध्यम से उनके पति करते हैं।
यद्यपि इस तरह के विज्ञापन बहुत ही पुरानी बात है किन्तु इस तरह के भाव आज भी हमारे समाज में जीवन्त हैं।
मैं जानती हो आप कहेंगे कि यह तो अतिशयोक्ति है अथवा अपमानजनक है। किन्तु इन शब्दों का प्रयोग चाहे न हो किन्तु चाहतें तो ऐसी ही होती हैं और जीवन के इस दोहरेपन को स्वीकार करते हुए हम अपने ही हाथ में हथौड़ा लिए रहते हैं।
किन्तु इस दोहरेपन के लिए न समाज दोषी है और न पुरुष-समाज। महिलाएं स्वयं ही अपनी जीवन-शैली निश्चित-निर्धारित नहीं कर पातीं। वे यही देखती रह जाती हैं कि सामने वाले क्या चाहते हैं। फिर वे माता-पिता, भाई, पति, समाज, कार्य-स्थल कुछ भी हो सकता है। उनके निर्णय दूसरों की अपेक्षाओं से अत्याधिक प्रभावित होते हैं।