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रंगों की भी अब रंगत बदलने लगी है
सुबह भी अब शाम सी ढलने लगी है
इ्द्र्षधनुषी रंगों की चाहत में बीती जिन्दगी
अब इस मोड़ पर आकर क्यों दरकने लगी है।
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बहुत बाद समझ आया
कितनी बार ऐसा हुआ है
कि समय मेरी मुट्ठी में था
और मैं उसे दुनिया भर में
तलाश कर रही थी।
मंजिल मेरे सामने थी
और मैं बार-बार
पीछे मुड़-मुड़कर भांप रही थी।
समस्याएं बाहर थीं
और समाधान भीतर,
और मैं
आकाश-पाताल नाप रही थी।
बहुत बाद समझ आया,
कभी-कभी,
प्रयास छोड़कर
प्रतीक्षा कर लेनी चाहिए,
भटकाव छोड़
थोड़ा विश्राम कर लेना चाहिए।
तलाश छोड़
विषय बदल लेना चाहिए।
जीवन की आधी समस्याएं
तो यूं ही सुलझ जायेंगीं।
बस मिलते रहिए मुझसे,
ऐसे परामर्श का
मैं कोई शुल्क नहीं लेती।
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छोटे-छोटे घर हैं छोटे-छोटे सपने
छोटे-छोटे घर हैं, छोटे-छोटे सपने
घर के भीतर रहते हैं यहां सब अपने
न ताला-चाबी, न द्वार, न चोर यहां
फूलों से सज्जित, ये घर सुन्दर कितने
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कुर्सियां
भूल हो गई मुझसे
मैं पूछ बैठी
कुर्सी की
चार टांगें क्यों होती हैं?
हम आराम से
दो पैरों पर चलकर
जीवन बिता लेते हैं
तो कुर्सी की
चार टांगें क्यों होती हैं?
कुर्सियां झूलती हैं।
कुर्सियां झूमती हैं।
कुर्सियां नाचती हैं।
कुर्सियां घूमती हैं।
चेहरे बदलती हैं,
आकार-प्रकार बांटती हैं,
पहियों पर दौड़ती हैं।
अनोखी होती हैं कुर्सियां।
किन्तु
चार टांगें क्यों होती हैं?
जिनसे पूछा
वे रुष्ट हुए
बोले,
तुम्हें अपनी दो
सलामत चाहिए कि नहीं !
दो और नहीं मिलेंगीं
और कुर्सी की तो
कभी भी नहीं मिलेंगी।
मैं डर गई
और मैंने कहा
कि मैं दो पर ही ठीक हूँ
मुझे चौपाया नहीं बनना।
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जब भी दूध देखा
सुना ही है
कि भारत में कभी
दूध-घी की
नदियाँ बहा करती थीं।
हमने तो नहीं देखीं।
बहती होंगी किसी युग में।
हमने तो
दूध को सदा
टीन के पीपों से ही
बहते देखा है।
हम तो समझ ही नहीं पाये
कि दूध के लिए
दुधारु पशुओं का नाम
क्यों लिया जाता है।
कैसे उनका दूध समा जाता है
बन्द पीपों में
थैलियों में और बोतलों में।
हमने तो जब भी दूध देखा
सदा पीपों में, थैलियों में
बन्द बोतलों में ही देखा।
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राख पर किसी का नाम नहीं होता
युद्ध की विभीषिका
देश, शहर
दुनिया या इंसान नहीं पूछती
बस पीढ़ियों को
बरबादी की राह दिखाती है।
हम समझते हैं
कि हमने सामने वाले को
बरबाद कर दिया
किन्तु युद्ध में
इंसान मारने से
पहले भी मरता है
और मारने के बाद भी।
बच्चों की किलकारियाँ
कब रुदन में बदल जाती हैं
अपनों को अपनों से दूर ले जाती हैं
हम समझ ही नहीं पाते।
और जब तक समझ आता है
तब तक
इंसानियत
राख के ढेर में बदल चुकी होती है
किन्तु हम पहचान नहीं पाते
कि यह राख हमारी है
या किसी और की।
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आत्ममूल्यांकन
अत्यन्त सरल है
मेरे लिए
तुम्हारे गुण दोष
रूप रंग, चाल ढाल
उठने बैठने, बातचीत करने
और तुम्हारी अन्य सभी
बातों का निरूपण करना।
किन्तु ऐसा तो सभी कर लेते हैं,
तुम कुछ अलग करके देखो।
दर्पण देखना सीखो।
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कहां गये वे दिन बारिश के
कहां गये वे दिन जब बारिश की बातें होती थीं, रिमझिम फुहारों की बातें होती थीं,
मां की डांट खाकर भी, छिप-छिपकर बारिश में भीगने-खेलने की बातें होती थीं
अब तो बारिश के नाम से ही बाढ़, आपदा, भूस्खलन की बातों से मन डरता है,
कहां गये वे दिन जब बारिश में चाट-पकौड़ी खाकर, आनन्द मनाने की बातें होती थीं।
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किसान क्यों है परेशान
कहते हैं मिट्टी से सोना उगाता है किसान।
पर उसकी मेहनत की कौन करता पहचान।
कैसे कोई समझे उसकी मांगों की सच्चाई,
खुले आकाश तले बैठा आज क्यों परेशान।
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हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि काकभुशुण्डि
काकभुशुण्डि की कथा बहुत रोचक है। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार इनका जन्म अयोध्या में शूद्र परिवार में हुआ था। ये अनन्य रामभक्त थे। ज्ञानी ऋषि थे, भगवान शिव का मंत्र प्राप्त कर महाज्ञानी बने किन्तु अभिमानी भी। इस अभिमान में उन्होंने अपने गुरु ब्राह्मण का एवं शिव का भी अपमान किया जिस कारण भगवान शिव ने उन्हें सर्प की अधर्म योनि में जाने के श्राप के साथ उपरान्त एक हज़ार योनियों में जन्म लेने का भी श्राप दिया। काकभुशुण्डि के गुरु ने शिव से उन्हें श्राप से मुक्त करने की प्रार्थना की। किन्तु शिव ने कहा कि वे श्रापमुक्त तो नहीं हो सकते किन्तु उन्हें इन जन्म-मरण में कोई कष्ट नहीं होगा, ज्ञान भी नहीं मिटेगा एवं रामभक्ति भी बनी रहेगी। इस तरह इन्हें अन्तिम जन्म ब्राह्मण का मिला। इस जन्म में वे ज्ञान प्राप्ति के लिए लोमश ऋषि के पास गये किन्तु वहां उनके तर्क-वितर्क से कुपित होकर लोमश ऋषि ने उन्हें चाण्डाल पक्षी कौआ बनने का श्राप दे दिया। बाद में लोमश ऋषि को अपने दिये श्राप पर पश्चाताप हुआ और उन्होंने कौए को वापिस बुलाकर राम-मंत्र दिया और इच्छा मृत्यु का वरदान भी। श्रीराम का मंत्र मिलने पर कौए को अपने इसी रूप से प्यार हो गया और वह कौए के रूप में ही रहने लगा, तभी से उन्हें काकभुशुण्डि नाम से जाना जाने लगा।
वेद और पुराणों के अनुसार काकभुशुण्डि न 11 बार रामायण और 16 बार महाभारत देखीं वह कल्प अर्थात जब तक यह संसार रहेगा वे उसके अन्त तक अपने शाश्वत रूप में जीवित रहेंगे। यह अमरता राम ने ही प्रदान की कि काल भी काकभुशुण्डि को नहीं मार सकता और वे इस कल्प के अन्त तक जीवित रहेंगे। इस शाश्वत आनन्द को काकभुशुण्डि समय यात्रा अर्थात Time Travel कहा जाता है।
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शिलालेख हैं मेरे भीतर
शिलालेख हैं मेरे भीतर कल की बीती बातों के
अपने ही जब चोट करें तब नासूर बने हैं घातों के
इन रिसते घावों की गांठे बनती हैं न खुलने वाली
अन्तिम यात्रा तक ढोते हैं हम खण्डहर इन आघातों के