Share Me
ये त्योहार रोज़ रोज़, रोज़ रोज़ आयें
हम मेंहदी लगाएं वे ही रोटियां बनाएं
चूड़ियां, कंगन, हार नित नवीन उपहार
हम झूले पर बैठें वे संग झूला झुलाएं
Share Me
Write a comment
More Articles
जीवन के अनमोल पल
यादों की गठरियों में कुछ अनमोल रत्न हुआ करते हैं
कभी कभी कुछ रिसते-से जख्म भी हुआ करते हैं
इन सबके बीच झूलता है मन,क्या करे कोई
जीवन के पल जैसे भी हों,सब अनमोल हुआ करते है।
Share Me
कन्यादान -परम्परा या रूढ़ि
न तो मैं कोई वस्तु थी
न ही अन्न वस्त्र,
और न ही
घर के किसी कोने में पड़ा
कोई अवांछित, उपेक्षित पात्र
तो फिर हे पिता !
दान क्यों किया तुमने मेरा ?
धर्म, संस्कृति, परम्परा, रीति रिवाज़
सब बदल लिए तुमने अपने हित में।
किन्तु मेरे नाम पर
युगों युगों की परम्परा निभाते रहे हो तुम।
मुझे व्यक्तित्व से वस्तु बनाते रहे हो तुम।
दान करके
सभी दायित्वों से मुक्ति पाते रहे थे तुम।
और इस तरह, मुझे
किसी की निजी सम्पत्ति बनाते रहे तुम।
मेरे नाम से पुण्य कमाते रहे थे तुम ।
अपने लिए स्वर्गारोहण का मार्ग बनाते रहे तुम।
तभी तो मेरे लिए पहले से ही
सृजित कर लिये कुछ मुहावरे
“इस घर से डोली उठेगी उस घर से अर्थी”।
पढ़ा है पुस्तकों में मैंने
बड़े वीर हुआ करते थे हमारे पूर्वज
बड़े बड़े युद्ध जीते उन्होंनें
बस बेटियों की ही रक्षा नहीं कर पाते थे।
जौहर करना पड़ता था उन्हें
और तुम उनके उत्तराधिकारी।
युग बदल गये, तुम बदल गये
लेकिन नहीं बदला तो बस
मुझे देखने का तुम्हारा नज़रिया।
कभी बेटी मानकर तो देखो,
मुझे पहचानकर तो देखो।
खुला आकाश दो, स्वाधीनता का भास दो।
अपनेपन का एहसास दो,
विश्वास का आभास दो।
अधिकार का सन्मार्ग दो,
कर्त्तव्य का भार दो ।
सौंपों मत किसी को।
किसी का मेरे हाथ में हाथ दो,
जीवन भर का साथ दो।
अपनेपन का भान दो।
बस थोड़ा सा मान दो
बस दान मत दो। दान मत दो।
Share Me
धरा बिना आकाश नहीं
पंख पसारे चिड़िया को देखा
मन विस्तारित आकाश हुआ
मन तो करता है
पंछी-सा उन्मुक्त आकाश मिले
किन्तु
लौट धरा पर उतरूं कैसे,
कौन सिखलाएगा मुझको।
उंचा उड़ना बड़ा सरल है
पर कैसे जानूंगी फिर
धरा पर लौटूं कैसे मैं।
दूरी तो शायद पल भर की है
पर मन जब ऊंचा उड़ता है
दूर-दूर सब दिखता है
सब छोटे-छोटे-से लगते हैं
और अपना रूप नहीं दिखता
धरा बिना आकाश नहीं
पंछी तो जाने यह बात
बस हम ही भूले बैठें हैं यह।
Share Me
अब हर पत्थर के भीतर एक आग है।
मैंने तो सिर्फ कहा था "शब्द"
पता नहीं कब
वह शब्द नहीं रहे
चेतावनी हो गये।
मैंने तो सिर्फ कहा था "पत्थर"
तुम पता नहीं क्यों तुम
उसे अहिल्या समझ बैठे।
मैंने तो सिर्फ कहा था "नाम"
और तुम
अपने आप ही राम बन बैठे।
और मैंने तो सिर्फ कहा था
"अन्त"
पता नहीं कैसे
तुम उसे मौत समझ बैठे।
और यहीं से
ज़िन्दगी की नई शुरूआत हुई।
मौत, जो हुई नहीं
समझ ली गई।
पत्थर, जो अहिल्या नहीं
छू लिया गया।
और तुम राम नहीं।
और पत्थर भी अहिल्या नहीं।
जो शताब्दियों से
सड़क के किनारे पड़ा हो
किसी राम की प्रतीक्षा में
कि वह आयेगा
और उसे अपने चरणों से छूकर
प्राणदान दे जायेगा।
किन्तु पत्थर
जो अहिल्या नहीं
छू लिया गया
और तुम राम नहीं।
जब तक तुम्हें
सही स्थिति का पता लगता
मौत ज़िन्दगी हो गई
और पत्थर आग।
वैसे भी
अब तब मौमस बहुत बदल चुका है।
जब तक तुम्हें
सही स्थिति का पता लगता
मौत ज़िन्दगी हो गई
और पत्थर आग।
एक पत्थर से
दूसरे पत्थर तक
होती हुई यह आग।
अब हर पत्थर के भीतर एक आग है।
जिसे तुम देख नहीं सकते।
आज दबी है
कल चिंगारी हो जायेगी।
अहिल्या तो पता नहीं
कब की मर चुकी है
और तुम
अब भी ठहरे हो
संसार से वन्दित होने के लिए।
सुनो ! चेतावनी देती हूं !
सड़क के किनारे पड़े
किसी पत्थर को, यूं ही
छूने की कोशिश मत करना।
पता नहीं
कब सब आग हो जाये
तुम समझ भी न सको
सब आग हो जाये,एकाएक।।।।
Share Me
ये चांद है अदाओं का
चांद
यूं ही तो नहीं
चमकता है आसमान में।
उसकी भी अपनी अदाएं हैं।
किसी को तो चांद सी
सूरत दे देता है
और किसी के जीवन में
चांद से दाग
और किसी किसी के लिए तो
कभी चांद निकलता ही नहीं
बस
अमावस्या ही बनी रहती है जीवन भर।
बस एक भ्रम पालकर
जिन्दगी जी लेते हैं
कि चांद है उनकी जिन्दगी में
क्योंकि जब
चांद आसमान में है
तो कुछ तो उनकी
जिन्दगी में भी होगा ही।
और कहीं कहीं तो कभी
चांद डूबता ही नहीं,
बस पूर्णिमा ही बनी रहती है।
इसलिए इस भ्रम में
या इस गणना में मत रहना
कि इतने दिन बाद
चौथ का चांद
आ जायेगा जीवन में,
या अमावस्या या पूर्णिमा,
उसकी मर्ज़ी आये या न आये
Share Me
पवित्रता के मापदण्ड
पवित्रता के
मापदण्ड होते हैं
कहीं कम
कहीं ज़्यादा होते हैं।
लेकिन हर
किसी के लिए
नहीं होते हैं।
फिर
तोलते हैं
न जाने
किस तराजू में
हर बार
नये-नये माप
और दण्ड होते हैं।
जानती हूँ
अधिकांश को
मेरी यह बात
समझ नहीं आई होगी
क्योंकि
युगों-युगों से
बन रहे
इन माप और दण्डों को
आज तक
कौन समझ पाया है
जिसके माथे जड़े हैं
वह भी
वास्तविकता
कहाँ जान पाया है।
Share Me
जीवन में सदैव अमावस नहीं होता
जैसे इन्द्रधनुषी रंगों में स्याह रंग नहीं होता
वैसे जीवन में सदैव अमावस ही नहीं होता
रिमझिम बूंदों को जब गुनगुनी धूप निखारती है
आशा के पुष्पों पर कभी तुषारापात नहीं होता।
Share Me
ये चिड़िया
मां मुझको बतलाना
ये चिड़िया
क्या स्कूल नहीं जाती ?
सारा दिन बैठी-बैठी,
दाना खाती, पानी पीती,
चीं-चीं करती शोर मचाती।
क्या इसकी टीचर
इसको नहीं डराती।
इसकी मम्मी कहां जाती ,
होमवर्क नहीं करवाती।
सारा दिन गाना गाती,
जब देखो तब उड़ती फिरती।
कब पढ़ती है,
कब लिखती है,
कब करती है पाठ याद
इसको क्यों नहीं कुछ भी कहती।
Share Me
पहचान खोकर मिले हैं खुशियां
कल खेली थी छुपन-छुपाई आज रस्सी-टप्पा खेलेंगे।
मैं लाई हूं चावल-रोटी, हिल-मिलकर चल खालेंगे।
तू मेरी चूड़ी-चुनरी ले लेना, मैं तेरी ले लेती हूं,
मां कैसे पहचानेगी हमको, मज़े-मज़े से देखेंगे।
Share Me
चाहती हूं खोल दूं कपाट सारे
चाहती हूं खोल दूं कपाट सारे
पर स्वतन्त्र नहीं हैं ये कपाट
चिटखनियों, कुण्डों
और कब्ज़ों में जकड़े ये कपाट।
जंग खाया हुआ सब।
पुराना और अर्थहीन।
कहीं से टेढ़े, टूटे, उलझे
ये पुरातात्विक पहरेदार।
चाहती हूं
उखाड़ फेंकूं इन सबको।
बदल देना चाहती हूं
सब पल भर में ।
औज़ार भी जुटाये हैं मैंने।
पर मैं ! विवश !
कपाट को कपाट के रूप में
प्रयोग करने में असमर्थ।
मेरे औज़ार छोटे
पहरेदार बड़े, मंजे हुए।
फिर इन्हें जंग भी पसन्द है
और अपना टेढ़ा टूटापन भी।
मेरे औज़ार इन्हें
विपक्ष का समझौता लगते हैं।
ताज़ी हवा को ये
घुसपैठिया समझते हैं।
और फूलों की गंध से इन्हें
विदेशी हस्तक्षेप की बू आती है।
इनका कहना है
कि कपाट खोल का प्रयास
हमारा षड्यन्त्र है।
पुरातात्विक अवशेषों,
इतिहास और संस्कृति को
नष्ट कर देने का।
पर अद्भुत तो यह
कि ये पुरातात्विक अवशेष
इतिहास और संस्कृति के ये जड़ प्रतीक
बन्द कपाटों के भीतर भी
बढ़ते ही जा रहे हैं दिन प्रति दिन।
ज़मीन के भीतर भी
और ज़मीन के बाहर भी।
वैसे, इतना स्वयं भी नहीं जानते वे
कि यदि उनका जंग घिसा नहीं गया
तेल नहीं दिया गया इनमें
तो स्वयं ही काट डालेगा
इन्हें एक दिन।
और अनजाने में ही
बन्द कपाटों पर
इनकी पकड़ कमज़ोर हो जायेगी।
कपाट खोलने
बहुत ज़रूरी हो गये हैं।
क्योंकि, हम सब
बाहर होकर भी कहीं न कहीं
कपाटों के भीतर जकड़े गये हैं।
अत: मैंने सोच लिया है
कि यदि औज़ार काम नहीं आये
तो मैं दीमक बनकर
कपाटों पर लग जाउंगी।
न सही तत्काल, धीरे धीरे ही सही
कपाट अन्दर ही अन्दर मिट्टी होने लगेंगे।
पहरेदार समझेंगे
उनके हाथ मज़बूत हो रहे हैं।
फिर एक दिन
पहरेदार, खड़े के खड़े रह जायेंगे
और बन्द दरवाज़े, टूटी खिड़कियां
पुरानी दीवारें
सब भरभराकर
गिर जायेंगे
कपाट स्वयंमेव खुल जायेंगे।
फिर रोशनी ही रोशनी
नयापन, ताज़ी हवा और ज़िन्दगी
सब मिलेगा एक दिन
सब बदलेगा एक दिन।