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हर औरत के भीतर एक औरत है
और उसके भीतर एक और औरत।
यह बात स्वयं औरत भी नहीं जानती
कि उसके भीतर
कितनी लम्बी कड़ी है इन औरतों की।
धुरी पर घूमती चरखी है वह
जिसके चारों ओर
आदमी ही आदमी हैं
और वह घूमती है
हर आदमी के रिश्ते में।
वह दिखती है केवल
एक औरत-सी,
सजी-धजी, सुन्दर , रंगीन
शेष सब औरतें
उसके चारों ओर
टहलती रहती हैं,
उसके भीतर सुप्त रहती हैं।
कब कितनी औरतें जाग उठती हैं
और कब कितनी मर जाती हैं
रोज़ पैदा होती हैं कितनी नई औरतें
उसके भीतर
यह तो वह स्वयं भी नहीं जानती।
लेकिन,
ये औरतें संगठित नहीं हैं
लड़ती-मरती हैं,
अपने-आप में ही
अपने ही अन्दर।
कुछ जन्म लेते ही
दम तोड़ देती हैं
और कुछ को
वह स्वयं ही, रोज़, हर रोज़
मारती है,
वह स्वयं यह भी नहीं जानती।
औरत के भीतर सुप्त रहें
भीतर ही भीतर लड़ती-मरती रहें
जब तक ये औरतें,
सिलसिला सही रहता है।
इनका जागना, संगठित होना
खतरनाक होता है समाज के लिए
और, खतरनाक होता है
आदमी के लिए।
जन्म से लेकर मरण तक
मरती-मारती औरतें
सुख से मरती हैं।
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जीवन क्या होता है
जीवन में अमृत चाहिए
तो पहले विष पीना पड़ता है।
जीवन में सुख पाना है
तो दुख की सीढ़ी पर भी
चढ़ना पड़ता है।
धूप खिलेगी
तो कल
घटाएँ भी घिर आयेंगी
रिमझिम-रिमझिम बरसातों में
बिजली भी चमकेगी
कब आयेगी आँधी,
कब तूफ़ान से उजड़ेगा सब
नहीं पता।
जीवन में चंदा-सूरज हैं
तो ग्रहण भी तो लगता है
पूनम की रातें होती हैं
अमावस का
अंधियारा भी छाता है।
किसने जाना, किसने समझा
जीवन क्या होता है।
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जिन्दगी संवारती हूं
भीतर ही भीतर
न जाने कितने रंग
बिखरे पड़े हैं,
कितना अधूरापन
खंगालता है मन,
कितनी कहानियां
कही-अनकही रह जाती हैं,
कितने रंग बदरंग हो जाते हैं।
आज उतारती हूं
सबको
तूलिका से।
अपना मन भरमाती हूं,
दबी-घुटी कामनाओं को
रंग देती हूं,
भावों को पटल पर
निखारती हूं,
तूलिका से जिन्दगी संवारती हूं।
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जीवन की अनहोनी घटना
मेरे जीवन में ऐसी बहुत-सी घटनाएं घटी हैं जो अनहोनी हैं।
हमारे परिवार पर एक प्रकोप रहा है न जाने क्यों, कि कभी भी परिवार में एक मृत्यु नहीं होती थी, दो होती थीं। एक साथ नहीं किन्तु तेहरवीं से पहले। जैसे जब मेरे पिता का निधन हुआ तब मेरे चाचाजी के बेटे का चैथे दिन निधन हुआ। इसी प्रकार दूर-पार की रिश्तेदारी में किसी न किसी का निधन हो जाता था। वर्षों तक ये सब हमने देखा।
यह परम्परा है कि यदि क्रिया से पूर्व कोई पातक मृत्यु या सूतक जन्म हो जाये तो क्रिया उस दिन से 13 दिन आगे बढ़ जाती है।
अर्थात मेरे पिता की क्रिया और चाचाजी के बेटे की क्रिया जिसे तेरहवीं कहते हैं एक ही दिन पर हुई।
सबसे बड़ा हादसा हमारे परिवार में नर्वदा बहन के निधन के बाद हुआ।
नर्वदा का निधन 26 फ़रवरी को हुआ। उनकी क्रिया अर्थात तेरहवीं 10 मार्च को होनी थी। 9 मार्च को मेरी चाचाजी के घर पोते ने जन्म लिया। अर्थात सूतक हो गया। अब नर्वदा की क्रिया 13 दिन आगे बढ़ गई और शायद 22 मार्च निर्धारित हुई। किन्तु 20 मार्च को मेरी मां का निधन हो गया। अर्थात पातक। अब 3 अप्रैल को दोनों की एक साथ क्रिया सम्पन्न हुई, नर्वदा के निधन के लगभग सवा महीने बाद। वे अत्यन्त खौफ़नाक दिन थे हमारे लिए।
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कौन है अपना कौन पराया कैसे जानें हम
अधिकार भी व्यापार हो गये हैं
तंग गलियों में हथियार हो गये हैं।
किसको मारें किसको काटें
कौन जलेगा, कहां मरेगा
अब क्या जानें हम।
अंधेरी राहों में भटक रहे हैं
अपने ही चेहरों से अनजाने हम।
दिन की भटकन छूट गई
रातें भीतर बिखर गईं
कौन है अपना कौन पराया
कैसे जानें हम।
अनजानी राहों पर
किसके पीछे
क्यों निकल पड़े हैं
इतना भी न जाने हम।
अपना ही घर फूंक रहे हैं,
राख में मोती ढूंढ रहे हैं,
श्मशानों में न घर बनते
इतना कब जानेंगे हम।
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निरभिलाष कर्म का संदेश दिया था
माखन की हांडी ले बैठे रहना हर युग में, ऐसा मैंने कब बोला था
बस राधे राधे रटते रहना हर युग में, ऐसा मैंने कब बोला था
निरभिलाष कर्म का संदेश दिया था गीता में उसको कैसे भूले तुम
पत्थर गढ़ गढ़ मठ मन्दिर में बैठे रहना, ऐसा मैंने कब बोला था
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भावों की छप-छपाक
यूं ही जीवन जीना है।
नयनों से छलकी एक बूंद
कभी-कभी
सागर के जल-सी गहरी होती है,
भावों की छप-छपाक
न जाने क्या-क्या कह जाती है।
और कभी ओस की बूंद-सी
झट-से ओझल हो जाती है।
हो सकता है
माणिक-मोती मिल जायें,
या फिर
किसी नागफ़नी में उलझे-से रह जायें।
कौन जाने, कब
फूलों की सुगंध से मन महक उठे,
तरल-तरल से भाव छलक उठें।
इसी निराश-आस-विश्वास में
ज़िन्दगी बीतती चली जाती है।
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हमारा छोटा-सा प्रयास
ये न समझना
कि पीठ दिखाकर जा रहे हैं हम
तुमसे डरकर भाग रहे हैं हम
चेहरे छुपाकर जा रहे हैं हम।
क्या करोगे चेहरे देखकर,
बस हमारा भाव देखो
हमारा छोटा-सा प्रयास देखो
साथ-साथ बढ़ते कदमों का
अंदाज़ देखो।
तुम कुछ भी अर्थ निकालते रहो
कितने भी अवरोध बनाते रहो
ठान लिया है
जीवन-पथ पर यूँ ही
आगे बढ़ना है
दुःख-सुख में
साथ निभाना है।
बस
एक प्रतीक-मात्र है
तुम्हें समझाने का।
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आशाओं का उगता सूरज
चिड़िया को पंख फैलाए नभ में उड़ते देखा
मुक्त गगन में आशाओं का उगता सूरज देखा
सूरज डूबेगा तो चंदा को भेजेगा राह दिखाने
तारों को दोनों के मध्य हमने विहंसते देखा
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हिम्मतों का सफ़र है ज़िन्दगी
हिम्मतों का सफ़र है ज़िन्दगी।
राहों में खतरा है ज़िन्दगी।
पर्वतों-सी बाधाएं झेलती है ज़िन्दगी।
साहस और श्रम का नाम है ज़िन्दगी।
कहते हैं जहां चाह वहां राह,
यह बात यहां बताती है ज़िन्दगी।
कहीं गहरी खाई और कहीं
सिर पर पहाड़-सी समस्याओं से
डराती है ज़िन्दगी।
राह देना
और सही राह लेना
समझाती है ज़िन्दगी।
चलना सदा सम्हल कर
यह समझाती है जिन्दगी।
एक गलत मोड़
एक अन्त का संकेत
दे जाती है ज़िन्दगी।
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छोटी-छोटी बातों पर
छोटी-छोटी बातों पर
अक्सर यूँ ही
उदासी घिर आती है
जीवन में।
तब मन करता है
कोई सहला दे सर
आँखों में छिपे आँसू पी ले
एक मुस्कुराहट दे जाये।
पर सच में
जीवन में
कहाँ होता है ऐसा।
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आ गया है
अपने-आपको
आप ही सम्हालना।