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नैया का क्या करना है, अब तो यूं ही पार उतरना है
कुछ डूबेंगे, कुछ तैरेंगे, सब अपनी हिम्मत से करना है
नहीं खड़ा है अब खेवट कोई, नैया पार लगाने को
जान लिया है सब दिया-लिया इस जीवन में ही भरना है
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चिड़िया फूल रंग और मन
चिड़िया की कुहुक-कुहुक, फूलों की महक-महक।
राग बजे मधुर-मधुर, मन गया बहक-बहक।
सरगम की तान छिड़ी, साज़ बजे, राग बने।
सतरंगी आभा छाई , ताल बजे ठुमुक-ठुमुक।
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वादों की फुलवारी
यादों का झुरमुट, वादों की फुलवारी
जीवन की बगिया , मुस्कानों की क्यारी
सुधि लेते रहना मेरी पल-पल, हर पल
मैं तुझ पर, तू मुझ पर हर पल बलिहारी
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डर-डर कर जी रहे हैं
खुले आसमान के नीचे
विघ्न-बाधाओं को लांघकर
समुद्र मापकर
आकाश और धरा को नापकर,
हवाओं को बांधकर,
मानव समझ बैठा था
स्वयं को विधाता, सर्वशक्तिमान।
और आज
अपनी ही करनी से,
अपनी ही कथनी से,
अपने ही कर्मों से,
अपने लिए, आप ही,
तैयार कर लिया है कारागार।
सीमाओं में रहना सीख रहा है,
अपनापन अपनाना सीख रहा है।
उच्च विचार पता नहीं,
पर सादा जीवन जी रहा है।
इच्छाओं पर प्रतिबन्ध लगा है।
आशाओं पर तुषारापात हुआ है।
चाबी अपने पास है
पर खोलने से डरा हुआ है।
दूरियों में जी रहा है
नज़दीकियों से भाग रहा है।
हर पल मर-मर कर जी रहा है,
हर पल डर-डर कर जी रहा है।
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कैसे मना रहे हम अपने राष्ट्रीय दिवस
हमें स्वतन्त्र हुए
इतने
या कितने वर्ष हो गये,
इस बार हम
कौन सा
गणतन्त्र दिवस
या स्वाधीनता दिवस
मनाने जा रहे हैं,
गणना करने लगे हैं हम।
उत्सवधर्मी तो हम हैं ही।
सजने-संवरने में लगे हैं हम।
गली-गली नेता खड़े हैं,
अपने-अपने मोर्चे पर अड़े हैं,
इस बार कौन ध्वज फ़हरायेगा
चर्चा चल रही है।
स्वाधीनता सेनानियों को
आज हम इसलिए
स्मरण नहीं कर रहे
कि उन्हें नमन करें,
हम उन्हें जाति, राज्य और
धर्म पर बांध कर नाप रहे।
सड़कों पर चीखें बिखरी हैं,
सुनाई नहीं देती हमें।
सैंकड़ों जाति, धर्म वर्ग बताकर
कहते हैं
हम एक हैं, हम एक हैं।
किसको सम्मान मिला,
किसे नहीं
इस बात पर लड़-मर रहे।
मूर्तियों में
इनके बलिदानों को बांध रहे।
पर उनसे मिली
अमूल्य धरोहर को कौन सम्हाले
बस यही नहीं जान रहे।
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कोई हमें क्यों रोक रहा
आँख बन्द कर सोने में मज़ा आने लगता है।
बन्द आँख से झांकने में मज़ा आने लगता है।
पकी-पकाई मिलती रहे, मुँह में ग्रास आता रहे
कोई हमें क्यों रोक रहा, यही खलने लगता है
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मुझे तो हर औरत दिखाई देती है
तुम सीता हो या सावित्री
द्रौपदी हो या कुंती
अहिल्या हो या राधा-रूक्मिणी
मैं अक्सर पहचान ही नहीं पाती।
सम्भव है होलिका, अहिल्या,
गांधारी, कुंती, उर्मिला,
अम्बा-अम्बालिका हो।
या नीता, गीता
सुशीला, रमा, शमा कोई भी हो।
और भी बहुत से नाम
स्मरण आ रहे हैं मुझे
किन्तु मैं स्वयं भी
किसी असमंजस में नहीं
पड़ना चाहती,
और न ही चाहती हूं
कि तुम सोचने लगो,
कि इसकी तो बातें
सदैव ही अटपटी-होती हैं
उलझी-उलझी।
तुम्हें क्या लगता है
कौन है यह?
सती-सावित्री?
मुझे तो हर औरत
दिखाई देती है इसके भीतर
सदैव पति के लिए
दुआएं मांगती,
यमराज के आगे सिर झुकाकर
अपनी जीवन देकर ।
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जब आग लगती है
किसी आग में घर उजड़ते हैं ।
कहीं किसी के भाव जलते हैं ।
जब आग लगती है किसी वन में
मन के संताप उजड़ते हैं ।
शेर-चीतों को ले आये हम
अभयारण्य में ।
कोई बताये मुझे
क्या कहूं उस चिडि़या से,
किसी वृक्ष की शाख पर,
जिसके बच्चे पलते हैं ।
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हम भी शेर हुआ करते थे
एक प्राचीन कथा है
गीदड़ ने शेर की खाल ओढ़ ली थी
और जंगल का राजा बन बैठा था।
जब साथियों ने हुंआ-हुंआ की
तब वह भी कर बैठा था।
और पकड़ा गया था,
पकड़ा क्या, बेचारा मारा गया था।
ज़माना बदल गया ।
शेर न सोचा
मैं गीदड़ की खाल ओढ़कर देखूं एक बार।
एक की देखा-देखी,
सभी शेरों ने गीदड़ की खाल ओढ़ ली
और हुंआ-हुंआ करने लगे।
धीरे-धीरे वे
अपनी असलियत भूलते चले गये।
आज सारे शेर
दहाड़ना भूलकर
हुंआ-हुंआ करने में लगे हैं।
अपना शिकार करना छोड़कर
औरों की जूठन खाने में लगे हैं।
गीदड़-भभकियां दे रहे हैं,
और सारे अपने-आप को
राजा समझ बैठे हैं।
शोक किस बात का, आरोप किस बात का।
हमारे भीतर का शेर भी तो
हुंआ-हुंआ करने में ही लगा है।
लेकिन बड़ी बात यह,
कि हमें यही नहीं पता
कि हम भीतर से वास्तव में शेर हैं
जो गीदड़ की खाल ओढ़े बैठे हैं,
या हैं ही गीदड़
और इस भ्रम में जी रहे हैं,
कि एक समय की बात है,
हम भी शेर हुआ करते थे।
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अवसान एक प्रेम-कथा का
अपनी कामनाओं को
मुट्ठी में बांधे
चुप रहे हम
कैसे जान गये
धरा-गगन
क्यों हवाओं में
छप गया हमारा नाम
बादलों में क्यों सिहरन हुई
क्यों पंछियों ने तान छेड़ी
लहरों में एक कशमकश
कहीं भंवर उठे
कहीं सागर मचले
धूमिल-धूमिल हुआ सब
और हम
देखते रह गये
पाषाण बनते भाव
अवसान
एक प्रेम-कथा का।
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सिक्के सारे खन-खन गिरते
कहते हैं जी,
हाथ की है मैल रूपया,
थोड़ी मुझको देना भई।
मुट्ठी से रिसता है धन,
गुल्लक मेरी टूट गई।
सिक्के सारे खन-खन गिरते
किसने लूटे पता नहीं।
नोट निकालो नोट निकालो
सुनते-सुनते
नींद हमारी टूट गई।
छल है, मोह-माया है,
चाह नहीं है
कहने की ही बातें हैं।
मेरा पैसा मुझसे छीनें,
ये कैसी सरकार है भैया।
टैक्सों के नये नाम
समझ न आयें
कोई हमको समझाए भैया
किसकी जेबें भर गईं,
किसकी कट गईं,
कोई कैसे जाने भैया।
हाल देख-देखकर सबका
अपनी हो गई ता-ता थैया।
नोटों की गद्दी पर बैठे,
उठने की है चाह नहीं,
मोह-माया सब छूट गई,
बस वैरागी होने को
मन करता है भैया।
आगे-आगे हम हैं
पीछे-पीछे है सरकार,
बचने का है कौन उपाय
कोई हमको सुझाओ दैया।