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याद है आपको, भूगोल की कक्षा में ग्लोब घुमाया करते थे
शहरों की गलत पहचान करने पर कितने डंडे खाया करते थे
नदी, रेल, सड़क, सूखा, हरियाली के चिह्न याद नहीं होते थे
मास्टर जी के जाते ही ग्लोब को गेंद बनाकर नचाया करते थे
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यादों का पिटारा
इस डिब्बे को देखकर
यादों का पिटारा खुल गया।
भूली-बिसरी चिट्ठियों के अक्षर
मस्तिष्क पटल पर
उलझने लगे।
हरे, पीले, नीले रंग
आंखों के सामने चमकने लगे।
तीन पैसे का पोस्ट कार्ड
पांच पैसे का अन्तर्देशीय,
और
बहुत महत्वपूर्ण हुआ करता था
बन्द लिफ़ाफ़ा
जिस पर डाकघर से खरीदकर
पचास पैसे का
डाक टिकट चिपकाया करते थे।
पत्र लिखने से पहले
कितना समय लग जाता था
यह निर्णय करने में
कि कार्ड प्रयोग करें
अन्तर्देशीय या लिफ़ाफ़ा।
तीन पैसे और पचास पैसे में
लाख रुपये का अन्तर
लगता था
और साथ ही
लिखने की लम्बाई
संदेश की सच्चाई
जीवन की खटाई।
वृक्षों पर लटके ,
सड़क के किनारे खड़े
ये छोटे-छोटे लाल डब्बे
सामाजिकता का
एक तार हुआ करते थे
अपनों से अपनी बात करने का,
दूरियों को पाटने का
आधार हुआ करते थे
द्वार से जब सरकता था पत्र
किसी अपने की आहट का
एहसास हुआ करते थे।
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कोरोनामय वातावरण में मानसिकता
एक बात समझ नहीं पा रही हूं। जब से कोरोना या कोविड -19 आया है, पहले की तरह साधारण बुखार, वायरल, गला खराब, खांसी-जुकाम होना बन्द हो गया है क्या? मौसम बदलने पर, बारिश में भीगने पर, सर्दी लग जाने पर, ज़्यादा धूप में घूमने या लू लग जाने पर, ए सी या कूलर की सीधी हवा लग जाने से उक्त समस्याएं हो जाती थीं। अब क्या ये सब बन्द हो गई हैं, सीधा कोरोना ही होता है क्या? आजकल चिकित्सकों की बात से तो ऐसा ही लगता है। घर में किसी को इनमें से कोई समस्या होने पर किसी चिकित्सक को फोन कीजिए कि एक-दो दिन से बुखार है अथवा उक्त सारी समस्याओं में से कोई समस्या है। सीधा दो टूक उत्तर मिलता है कोरोना टैस्ट करवा लीजिए।
नहीं डाक्टर ऐसी बात नहीं है।
डाक्टर कुछ भी सुनने को तैयार नहीं।
नहीं पहले आप कोरोना टैस्ट करवा लीजिए, फिर देखेंगे।
लेकिन डाक्टर, उसमें तो दो दिन लग जायेंगे, बुखार तो तेज़ है।
तो ठीक है ये दो गोली नोट कर लीजिए, 100 बुखार होने तक पहली गोली दे देना दिन में एक बार। 101 से ज़्यादा होने पर पी सी एम दे देना।
मिलते-जुलते उत्तर ही मिलते हैं।
अब मान लीजिए 1 तारीख को बुखार हुआ। हर कोई पहले तो घर में ही रखी पी सी एम या क्रोसीन ले लेता है। दूसरे दिन बुखार न उतरने पर डाक्टर को फोन किया। डाक्टर का उत्तर आपने पढ़ लिया। तीसरे दिन टैस्ट करवाया। पांचवें दिन रिपोर्ट मिली। नैगेटिव।
डाक्टर ने नैगेटिव रिपोर्ट की बात सुनकर कहा, चलो ठीक है, आप बुखार की ये दवाई ले लीजिए।
किन्तु वे पांच दिन कितने भारी थे, उन पांच दिन में बुखार बिगड़कर कोई भी रूप ले लेता है, कोरोना का नहीं। क्या उन पांच दिन के लिए साधारण बुखार की या वायरल की दवाई नहीं दी जा सकती थी, मैं तो डाक्टर नहीं हूं। कोई बतायेगा क्या?
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साहस है मेरा
साहस है मेरा, इच्छा है मेरी, पर क्यों लोग हस्तक्षेप करने चले आते हैं
जीवन है मेरा, राहें हैं मेरी, पर क्यों लोग “कंधा” देने चले आते हैं
अपने हैं, सपने हैं, कुछ जुड़ते हैं बनते हैं, कुछ मिटते हैं, तुमको क्या
जीती हूं अपनी शर्तों पर, पर पता नहीं क्यों लोग आग लगाने चले आते हैं
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कहां समझ पाते हैं हम
आंखें बोलती हैं
कहां पढ़ पाते हैं हम
कुछ किस्से खोलती हैं
कहां समझ पाते हैं हम
किसी की मानवता जागी
किसी की ममता उठ बैठी
पल भर के लिए
मन हुआ द्रवित
भूख से बिलखते बच्चे
बेसहारा अनाथ
चल आज इनको रोटी डालें
दो कपड़े पुराने साथ।
फिर भूल गये हम
इनका कोई सपना होगा
या इनका कोई अपना होगा,
कहां रहे, क्या कह रहे
क्यों ऐसे हाल में है
हमारी एक पीढ़ी
कूड़े-कचरे में बचपन बिखरा है
किस पर डालें दोष
किस पर जड़ दें आरोप
इस चर्चा में दिन बीत गया !!
सांझ हुई
अपनी आंखों के सपने जागे
मित्रों की महफ़िल जमी
कुछ गीत बजे, कुछ जाम भरे
सौ-सौ पकवान सजे
जूठन से पंडाल भरा
अनायास मन भर आया
दया-भाव मन पर छाया
उन आंखों का सपना भागा आया
जूठन के ढेर बनाये
उन आंखों में सपने जगाये
भर-भर उनको खूब खिलाये
एक सुन्दर-सा चित्र बनाया
फे़सबुक पर खूब सजाया
चर्चा का माहौल बनाया
अगले चुनाव में खड़े हो रहे हम
आप सबको अभी से करते हैं नमन
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कुछ पाने के लिए सर टकराने पड़ते हैं
जीवन में
आगे बढ़ने के लिए
खतरे तो उठाने पड़ते हैं।
लीक से हटकर
चलते-चलते
अक्सर झटके भी
खाने पड़ते हैं।
हिमालय की चोटी छूने में
खतरा भी है,
जोखिम भी,
और शायद संकट भी।
जीवन में कुछ पाने के लिए
तीनों से सर
टकराने पड़ते हैं।
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यह मेरा शिमला है
बस एक छोटी सी सूचना मात्र है
तुम्हारे लिए,
कि यह शहर
जहां तुम आये हो,
इंसानों का शहर है।
इसमें इतना चकित होने की
कौन बात है।
कि यह कैसा अद्भुत शहर है।
जहां अभी भी इंसान बसते हैं।
पर तुम्हारा चकित होना,
कहीं उचित भी लगता है ।
क्योंकि ,जिस शहर से तुम आये हो,
वहां सड़कों पर,
पत्थरों को चलते देखा है मैंने,
बातें गाड़ियां और मोटरें करती हैं हवा से।
हंसते और खिलखिलाते हैं
भोंपू और बाजे।
सिक्का रोटी बन गया है।
पर यह शहर जहां तुम अब आये हो,
यहां अभी भी इंसान ही बसते हैं।
स्वागत है तुम्हारा।
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कैसे मना रहे हम अपने राष्ट्रीय दिवस
हमें स्वतन्त्र हुए
इतने
या कितने वर्ष हो गये,
इस बार हम
कौन सा
गणतन्त्र दिवस
या स्वाधीनता दिवस
मनाने जा रहे हैं,
गणना करने लगे हैं हम।
उत्सवधर्मी तो हम हैं ही।
सजने-संवरने में लगे हैं हम।
गली-गली नेता खड़े हैं,
अपने-अपने मोर्चे पर अड़े हैं,
इस बार कौन ध्वज फ़हरायेगा
चर्चा चल रही है।
स्वाधीनता सेनानियों को
आज हम इसलिए
स्मरण नहीं कर रहे
कि उन्हें नमन करें,
हम उन्हें जाति, राज्य और
धर्म पर बांध कर नाप रहे।
सड़कों पर चीखें बिखरी हैं,
सुनाई नहीं देती हमें।
सैंकड़ों जाति, धर्म वर्ग बताकर
कहते हैं
हम एक हैं, हम एक हैं।
किसको सम्मान मिला,
किसे नहीं
इस बात पर लड़-मर रहे।
मूर्तियों में
इनके बलिदानों को बांध रहे।
पर उनसे मिली
अमूल्य धरोहर को कौन सम्हाले
बस यही नहीं जान रहे।
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चांदनी को तारे खिल-खिल हंस रहे
चांद से छिटककर चांदनी धरा पर है चली आई
पगली-सी डोलती, देखो कहां कहां है घूम आई
देख-देखकर चांदनी को तारे खिल-खिल हंस रहे
रवि की आहट से डर,फिर चांद के पास लौट आई
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चिड़िया ने कहानी सुनाई
अरे,
एक–एक कर बोलो।
थक-हार कर आई हूं,
दाना-पानी लाई हूं,
कहां-कहां से आई हूं।
तुमको रोज़ कहानी चाहिए।
दुनिया की रवानी चाहिए।
अब तुमको क्या बतलाउं मैं
सुन्दर है यह दुनिया
बस लोग बहुत हैं।
रहने को हैं घर बनाते
जैसे हम अपना नीड़ सजाते।
उनके भी बच्चे हैं
छोटे-छोटे
वे भी यूं ही चिन्ता करते,
जब भी घर से बाहर जाते।
प्रेम, नेह , ममता लुटाते।
वे भी अपना कर्त्तव्य निभाते।
रूको, रूको, बतलाती हूं
अन्तर क्या है।
आशाओं, अभिलाषाओं का अन्त नहीं है।
जीने का कोई ढंग नहीं है।
भागम-भाग पड़ी है।
और चाहिए, और चाहिए।
बस यूं ही मार-काट पड़ी है।
घर-संसार भरा-पूरा है,
तो भी लूट-खसोट पड़ी है।
उड़ते हैं, चलते हैं, गिरते हैं,
मरते हैं
पता नहीं क्या क्या करते है।
चाहतें हैं कि बढ़ती जातीं।
बच्चों पर भी डाली जातीं।
बचपन मानों बोझ बना
मां-पिता की इच्छाओं का संसार घना।
अब क्या –क्या बतलाउं मैं।
आज बस इतना ही,
दाना लो और पिओ
जी भरकर विश्राम करो।
बस इतना ही जानो कि
इन तिनकों, पत्तों में,
रूखे-सूखे चुग्गे में,
बूंद-बूंद पानी में,
अपनी इस छोटी सी कहानी में,
जीवन में आनन्द भरा है।
उड़ना तुमको सिखलाती हूं।
बस इतना ही बतलाती हूं।
पंख पसारे
उड़ जाना तुम,
अपनी दुनिया में रहना तुम।
अपना कर्त्तव्य निभाना तुम।
अगली पीढ़ी को
अपने पंखों पर उड़ना सिखलाना तुम।
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यह कैसी विडम्बना है
सुना है,
मानव
चांद तक हो आया।
वहां जल की
खोज कर लाया।
ताकती हूं
अक्सर, चांद की ओर
काश !
मेरा घर चांद पर होता
तो मानव
इस रेगिस्तान में भी
जल की खोज कर लेता।