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माता-पिता के लिए बच्चे वरदान होते हैं।
बच्चों के लिए माता-पिता सरताज होते हैं।
इन रिश्तों में गंगा-यमुना-सी पवित्र धारा बहती है,
यह रिश्ते मानों जीवन का मधुर साज़ होते हैं।
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बीहड़ वन आकर्षित करते हैं मुझे
कभी भीतर तक जाकर
देखे तो नहीं मैंने बीहड़ वन,
किन्तु ,
आकर्षित करते हैं मुझे।
कितना कुछ समेटकर रहते हैं
अपने भीतर।
गगन को झुकते देखा है मैंने यहां।
पल भर में धरा पर
उतर आता है।
रवि मुस्कुराता है,
छन-छनकर आती है धूप।
निखरती है, कण-कण को छूती है।
इधर-उधर भटकती है,
न जाने किसकी खोज में।
वृक्ष निःशंक सर उठाये,
रवि को राह दिखाते हैं,
धरा तक लेकर आते हैं।
धाराओं को
यहां कोई रोकता नहीं,
बेरोक-टोक बहती हैं।
एक नन्हें जीव से लेकर
विशाल व्याघ्र तक रहते हैं यहां।
मौसम बदलने से
यहां कुछ नहीं बदलता।
जैसा कल था
वैसा ही आज है,
जब तक वहां मानव का
प्रवेश नहीं होता।
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दाना डाला जाल बिछाया
नदी किनारे बैठे बैठे मन में आया चल डूब मरें
फिर देखा मीन बड़ी बड़ी, सोचा मस्ती खूब करें
दाना डाला, जाल बिछाया, सारे हथकंडे अपनाये
पकड़ी तो नकली निकली, आप न ऐसी भूल करें
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अब तो कुछ बोलना सीख
आग दिल में जलाकर रख
अच्छे बुरे का भाव परख कर रख।
न सुन किसी की बात को
अपने मन से जाँच-परख कर रख।
कब समझ पायेंगें हम!!
किसी और के घर में लगी
आग की चिंगारी
जब हवा लेती है
तो हमारे घर भी जलाकर जाती है।
तब
दिलों के भाव जलते हैं
अपनों के अरमान झुलसते हैं
पहचान मिटती है,
जिन्दगियां बिखरती हैं
धरा बिलखती है।
गगन सवाल पूछता है।
इसीलिए कहती हूँ
न मौन रह
अब तो कुछ बोलना सीख।
अपने हाथ आग में डालना सीख
आग परख। हाथ जला।
कुछ साहस कर, अपने मन से चल।
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निरभिलाष कर्म का संदेश दिया था
माखन की हांडी ले बैठे रहना हर युग में, ऐसा मैंने कब बोला था
बस राधे राधे रटते रहना हर युग में, ऐसा मैंने कब बोला था
निरभिलाष कर्म का संदेश दिया था गीता में उसको कैसे भूले तुम
पत्थर गढ़ गढ़ मठ मन्दिर में बैठे रहना, ऐसा मैंने कब बोला था
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एक और विभीषिका की प्रतीक्षा में।
हर वर्ष आती है यह विभीषिका।
प्रतीक्षा में बैठै रहते हैं
कब बरसेगा जल
कब होगी अतिवृष्टि
डूबेंगे शहर-दर-शहर
टूटेंगे तटबन्ध
मरेगा आदमी
भूख से बिलखेगा
त्राहि-त्राहि मचेगी चारों ओर।
फिर लगेंगे आरोप-प्रत्यारोप
वातानुकूलित भवनों में
योजनाओं का अम्बार लगेगा
मीडिया को कई दिन तक
एक समाचार मिल जायेगा,
नये-पुराने चित्र दिखा-दिखा कर
डरायेंगे हमें।
कितनी जानें गईं
कितनी बचा ली गईं
आंकड़ों का खेल होगा।
पानी उतरते ही
भूल जायेंगे हम सब कुछ।
मीडिया कुछ नया परोसेगा
जो हमें उत्तेजित कर सके।
और हम बैठे रहेंगे
अगले वर्ष की प्रतीक्षा में।
नहीं पूछेंगे अपने-आपसे
कितने अपराधी हैं हम,
नहीं बनायेंगे
कोई दीर्घावधि योजना
नहीं ढूंढेगे कोई स्थायी हल।
बस, एक-दूसरे का मुंह ताकते
बैठे रहेंगे
एक और विभीषिका की प्रतीक्षा में।
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बसन्त
आज बसन्त मुझे
कुछ उदास लगा
रंग बदलने लगे हैं।
बदलते रंगों की भी
एक सुगन्ध होती है
बदलते भावों के साथ
अन्तर्मन को
महका-महका जाती है।
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ले जीवन का आनन्द
सपनों की सीढ़ी तानी
चलें गगन की ओर
लहराती बदरियां
सागर की लहरियां
चंदा की चांदनी
करती उच्छृंखल मन।
लरजती डालियों से
झांकती हैं रोशनियां
कहती हैं
ले जीवन का आनन्द।
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छोड़ दो अब मुफ्त की बात
क्या तुम्हारी शिक्षा
क्या आयु
कितनी आय
कौन-सी नौकरी
कौन-सा आरक्षण
और इस सबका क्या आधार ?
अनुत्तरित हैं सब प्रश्न।
यह कौन सी आग है
जो अपने-आप को ही जला रही है।
कैसे भूल सकते हैं हम
तिनका-तिनका जोड़कर
बनता है एक घरौंदा।
शताब्दियों से लूटे जाते रहे हम
आततायियों से।
जाने कहां से आते थे
और देश लूटकर चले जाते थे,
अपनों से ही युद्धों में
झोंक दिये जाते थे हम।
कैसे निकले उस सबसे बाहर
फिर शताब्दियां लग गईं,
कैसे भूल सकते हैं हम।
और आज !
अपना ही परिश्रम,
अपनी ही सम्पत्ति
अपना ही घर फूंक रहे हैं हम।
अपने ही भीतर
आततायियों को पाल रहे हैं हम।
किसके झांसे में आ गये हैं हम।
न शिक्षा चाहिए
न विकास, न उद्यम।
खैरात में मिले, नाम बाप के मिले
एक नौकरी सरकारी
धन मिले, घर मिले,
अपना घर फूंककर मिले,
मरे की मिले
या जिंदा दफ़न कर दें तो मिले
लाश पर मिले, श्मशान में मिले
कफ़न बेचकर मिले
बस मुफ्त की मिले
बस जो भी मिले, मुफ्त ही मिले
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न समझना हाथ चलते नहीं हैं
हाथों में मेंहदी लगी,
यह न समझना हाथ चलते नहीं हैं ।
केवल बेलन ही नहीं
छुरियां और कांटे भी
इन्हीं हाथों से सजते यहीं हैं ।
नमक-मिर्च लगाना भी आता है ।
और यदि किसी की दाल न गलती हो,
तो बड़ों-बड़ों की
दाल गलाना भी हमें आता है।
बिना गैस-तीली
आग लगाना भी हमें आता है।
अब आपसे क्या छुपाना
दिल तो बड़ों-बड़ों के जलाये हैं,
और न जाने
कितने दिलजले तो आज भी
आगे-पीछे घूम रहे हैं ,
और जलने वाले
आज भी जल रहे हैं।
तड़के की जैसी खुशबू हम रचते हैं,
बड़े-बड़े महारथी
हमारे आगे पानी भरते हैं।
मेंहदी तो इक बहाना है ।
आज घर का सारा काम
उनसे जो करवाना है।
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प्रेम प्रतीक बनाये मानव
चहक-चहक कर
फुदक-फुदक कर
चल आज नया खेल हम खेंलें।
प्रेम प्रतीक बनाये मानव,
चल हम इस पर इठला कर देखें।
तू क्या देखे टुकुर-टुकुर,
तू क्या देखे इधर-उधर,
कुछ बदला है, कुछ बदलेगा।
कर लो तुम सब स्वीकार अगर,
मौसम बदलेगा,
नव-पल्लव तो आयेंगे।
अभी चलें कहीं और
लौटकर अगले मौसम में,
घर हम यहीं बनायेंगे।