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दीवारों पर
उकेरित ये कृतियां
भाव अनमोल।
नेह, अपनत्व, संस्कारों का
न लगा सके कोई मोल।
घर की रंगीनियां,
खुशियां यहां बरसती हैं,
सबके हित की कामना
यहां करती हैं।
प्रतिदिन यहां
रंगीनियां सजती हैं,
पर्वों पर हर बार
जीवन में नये रंग भरती हैं।
किन्तु
जब समय चलता है
तो जीवन में बहुत कुछ बदलता है।
नहीं कहते कि ठीक है या नहीं,
किन्तु
रह गई अब स्मृतियां अशेष,
नवरंगों से सजी दीवारों पर
अब ये कृतियां
किन्हीं मूल्यवान
बंधन में बंधी दीवारों पर लटकती हैं।
स्मृतियां यूं ही भटकती हैं।
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क्षणिक तृप्ति हेतु
घाट घाट का पानी पीकर पहुंचे हैं इस ठौर
राहों में रखते थे प्याउ, बीत गया वह दौर
नीर प्रवाह शुष्क पड़े, जल बिन तरसे प्राणी
क्षणिक तृप्ति हेतु कृत्रिम सज्जा का है दौर
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कहां गई वह गिद्ध-दृष्टि
बने बनाये मुहावरों के फेर में पड़कर हम यूं ही गिद्धों को नोचने में लगे हैं
पर्यावरणिकों से पूछिये ज़रा, गिद्धों की कमी से हम भी तो मरने लगे हैं
कहां गई हमारी वह गिद्ध-दृष्टि जो अच्छे और बुरे को पहचानती थी
स्वच्छता-अभियान के इस महानायक को हम यूं ही कोसने में लगे हैं
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आनन्द उठाने चल रही ज़िन्दगी
रंगों के बीच कदम उठाकर चल रही है ज़िन्दगी।
चांद की मद्धम रोशनी में पल रही है ज़िन्दगी।
धरा और आकाश में भावों का ज्वार उठ रहा,
एकाकीपन का आनन्द उठाने चल रही है ज़िन्दगी।
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मन के भाव देख प्रेयसी
रंग रूप की ऐसी तैसी
मन के भाव देख प्रेयसी
लीपा-पोती जितनी कर ले
दर्पण बोले दिखती कैसी
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डर-डर कर जी रहे हैं
खुले आसमान के नीचे
विघ्न-बाधाओं को लांघकर
समुद्र मापकर
आकाश और धरा को नापकर,
हवाओं को बांधकर,
मानव समझ बैठा था
स्वयं को विधाता, सर्वशक्तिमान।
और आज
अपनी ही करनी से,
अपनी ही कथनी से,
अपने ही कर्मों से,
अपने लिए, आप ही,
तैयार कर लिया है कारागार।
सीमाओं में रहना सीख रहा है,
अपनापन अपनाना सीख रहा है।
उच्च विचार पता नहीं,
पर सादा जीवन जी रहा है।
इच्छाओं पर प्रतिबन्ध लगा है।
आशाओं पर तुषारापात हुआ है।
चाबी अपने पास है
पर खोलने से डरा हुआ है।
दूरियों में जी रहा है
नज़दीकियों से भाग रहा है।
हर पल मर-मर कर जी रहा है,
हर पल डर-डर कर जी रहा है।
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कौन से रिश्ते अपने, कौन से पराये
हम रह-रहकर मरम्मत करवाते रहे
लोग टूटी छतें आजमाते रहे।
दरारों से झांकने में
ज़माने को बड़ा मज़ा आता है
मौका मिलते ही दीवारें तुड़वाते रहे।
छत तक जाने के लिए
सीढ़ियां चिन दी
पर तरपाल डालने से कतराते रहे।
कब आयेगी बरसात, कब उड़ेंगी आंधियां
ज़िन्दगी कभी बताती नहीं है
हम यूं ही लोगों को समझाते रहे।
कौन से रिश्ते अपने, कौन से पराये
उलझते रहे हम यूं ही इन बातों में
पतंग के उलझे मांझे सुलझाते रहे
अपनी उंगलियां यूं ही कटवाते रहे।
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रिश्तों का असमंजस
कुछ रिश्ते
फूलों की तरह होते हैं
और कुछ कांटों की तरह।
फूलों को सहेज लीजिए
कांटों को उखाड़ फेंकिए।
नहीं तो, बहुत
असमंजस की स्थिति
बनी रहती है।
किन्तु, कुछ कांटे
फूलों के रूप में आते हैं ,
और कुछ फूल
कांटों की तरह
दिखाई देते हैं।
और कभी कभी,
दोनों
साथ-साथ उलझे भी रहते हैं।
बड़ा मुश्किल होता है परखना।
पर परखना तो पड़ता ही है।
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प्रलोभनों के पीछे भागता मन
सर्वाधिकार की चाह में बहुत कुछ खो बैठते हैं
और-और की चाह में हर सीमा तोड़ बैठते हैं
प्रलोभनों के पीछे भागता मन, वश कहां रहा
अच्छे-बुरे की पहचान भूल, अपकर्म कर बैठते हैं
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प्रेम-प्यार की बात न करना
प्रेम-प्यार की बात न करना,
घृणा के बीज हम बो रहे हैं।
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सम्बन्धों का मान नहीं अब,
दीवारें हम अब चिन रहे हैं।
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काले-गोरे की बात चल रही,
चेहरों को रंगों से पोत रहे हैं ।
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अमीर-गरीब की बात कर रहे,
पैसे से दुनिया को तोल रहे हैं ।अ
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कौन है सच्चा, कौन है झूठा,
बिन जाने हम कोस रहे हैं।
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पढ़ना-लिखना बात पुरानी
सुनी-सुनाई पर चल रहे हैं।
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सर्वधर्म समभाव भूल गये,
भेद-भाव हम ढो रहे हैं।
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अपने-अपने रूप चुन लिए,
किस्से रोज़ नये बुन रहे हैं।
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राजनीति का ज्ञान नहीं है
चर्चा में हम लगे हुए हैं।
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ज़िन्दगी बहुत झूले झुलाती है
ज़िन्दगी बहुत झूले झुलाती है
कभी आगे,कभी पीछे ले जाती है
जोश में कभी ज़्यादा उंचाई ले लें
तो सीधे धराशायी भी कर जाती है