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प्रेम का प्रतीक है
हाथ में मेरे
न देख मेरा चेहरा
न पूछ मेरी आस।
भीख नहीं मांगती
दया नहीं मांगती
मेहनत की ज़िन्दगी है
छोटी है तो क्या
मुझ पर न दया दिखा।
मुझसे ज्यादा जानते हो तुम
जीवन के भाव को।
न कर बात यूं ही
इधर-उधर की
लेना हो तो ले
मंदिर में चढ़ा
किसी के बालों में लगा
कल को मसलकर
सड़कों पर गिरा
मुझको क्या
लेना हो तो ले
नहीं तो आगे बढ़
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इस रंगीन शाम में
इस रंगीन शाम में आओ पकड़म-पकड़ाई खेलें
तुम थामो सूरज, मैं चन्दा, फिर नभ के पार चलें
बदली को हम नाव बनायें, राह दिखाएं देखो पंछी
छोड़ो जग-जीवन की चिंताएं,चल हंस-गाकर जी लें
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चल आगे बढ़ जि़न्दगी
भूल-चूक को भूलकर, चल आगे बढ़ जि़न्दगी
अच्छा-बुरा सब छोड़कर, चल आगे बढ़ जि़न्दगी
हालातों से कभी-कभी समझौता करना पड़ता है
बदले का भाव छोड़कर, चल आगे बढ़ जि़न्दगी
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हमारा छोटा-सा प्रयास
ये न समझना
कि पीठ दिखाकर जा रहे हैं हम
तुमसे डरकर भाग रहे हैं हम
चेहरे छुपाकर जा रहे हैं हम।
क्या करोगे चेहरे देखकर,
बस हमारा भाव देखो
हमारा छोटा-सा प्रयास देखो
साथ-साथ बढ़ते कदमों का
अंदाज़ देखो।
तुम कुछ भी अर्थ निकालते रहो
कितने भी अवरोध बनाते रहो
ठान लिया है
जीवन-पथ पर यूँ ही
आगे बढ़ना है
दुःख-सुख में
साथ निभाना है।
बस
एक प्रतीक-मात्र है
तुम्हें समझाने का।
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काश ! इंसान वट वृक्ष सा होता
कहते हैं
जड़ें ज़मीन में जितनी गहरी हों
वृक्ष उतने ही फलते-फूलते हैं।
अपनी मिट्टी की पकड़
उन्हें उर्वरा बनाये रखती है।
किन्तु वट-वृक्ष !
मैं नहीं जानती
कि ज़मीन के नीचे
इसकी कहां तक पैठ है।
किन्तु इतना समझती हूं
कि अपनी जड़ों को
यह धरा पर भी ले आया है।
डाल से डाल निकलती है
उलझती हैं,सुलझती हैं
बिखरती हैं, संवरती हैं,
वृक्ष से वृक्ष बनते हैं।
धरा से गगन,
और गगन से धरा की आेर
बार-बार लौटती हैं इसकी जड़ें
नव-सृजन के लिए।
-
बस
इंसान की हद का ही पता नहीं लगता
कि कितना ज़मीन के उपर है
और कितना ज़मीन के भीतर।
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भ्रष्टाचार
जब हम भ्रष्टाचार की बात करते हैं और दूसरे की ओर उंगली उठाते हैं तो चार उंगलियां स्वयंमेव ही अपनी ओर उठती हैं जिन्हें हम स्वयं ही नहीं देखते। यह पुरानी कहावत है।
वास्तव में हम सब भ्रष्टाचारी हैं। बात बस इतनी है कि जिसकी जितनी औकात है उतना वह भ्रष्टाचार कर लेता है। किसी की औकात 100 रू. की है तो किसी की 100 करोड़ की। किन्तु 100 रू वाला स्वयं को ईमानदार कहता है। हम मंहगाई की बात करते हैं किन्तु सुविधाभेागी हो गये हैं। बिना कष्ट उठाये धन से हर कार्य करवा लेना चाहते हैं। हमें दूसरे का भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार लगता है और अपना आवश्यकता, विवशता।
यदि हम अपनी ओर उठने वाली चार उंगलियों के प्रश्न और उत्तर दे सकें तो शायद हम भ्रष्टाचार के विरूद्ध अपना योगदान दे सकते हैं:
पहली उंगली मुझसे पूछती है: क्या मैं विश्वास से कह सकते हूं कि मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं।
दूसरी उंगली कहती है: अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं तो क्या भ्रष्टाचार का विरोध करती हूं ?
तीसरी उंगली कहती है: कि अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं किन्तु भ्रष्टाचार का विरोध नहीं करती तो मैं उनसे भी बड़े भ्रष्टाचारी हूं।
और अंत में चौथी उंगली कहती है: अगर मैं भी भ्रष्टाचारी हूं तो सामने की उंगली को भी अपनी ओर मोड़ लेना चाहिए और मुक्का बनाकर अपने पर वार करना चाहिए। दूसरों को दोष देने और सुधारने से पहले पहला कदम अपने प्रति उठाना होगा।
यदि प्रत्येक नागरिक आत्मनियन्त्रण करे तो भ्रष्टाचार अवश्य ही दूर होगा।
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सावन की बातें मनभावन की बातें
वो सावन की बातें, वो मनभावन की बातें, छूट गईं।
वो सावन की यादें, वो प्रेम-प्यार की बातें, भूल गईं।
मन डरता है, बरसेगा या होगा महाप्रलय कौन जाने,
वो रिमझिम की यादें, वो मिलने की बातें, छूट गईं ।
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अब कांटों की बारी है
फूलों की बहुत खेती कर ली
अब कांटों की बारी है।
पत्ता–पत्ता बिखर गया
कांटों की सुन्दर मोहक क्यारी है।
न जाने कितने बीज बोये थे
रंग-बिरंगे फूलों के।
सपनों में देखा करती थी
महके महके गुलशन के रंगों के।
मिट्टी महकी, बरसात हुई
तब भी, धरा न जाने कैसे सूख गई।
नहीं जानती, क्योंकर
फूलों के बीजों से कांटे निकले
परख –परख कर जीवन बीता
कैसे जानूं कहां-कहां मुझसे भूल हुई।
दोष नहीं किसी को दे सकती
अब इन्हें सहेजकर बैठी हूं।
वैसे भी जबसे कांटों को अपनाया
सहज भाव से जीवन में
फूलों का अनुभव दे गये
रस भर गये जीवन में।
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कहते हैं हाथ की है मैल रूपया
जब से आया बजट है भैया, अपनी हो गई ता-ता थैया
जब से सुना बजट है वैरागी होने को मन करता है भैया
मेरा पैसा मुझसे छीनें, ये कैसी सरकार है भैया
देखो-देखो टैक्स बरसते, छाता कहां से लाउं मैया
कहते हैं हाथ की है मैल रूपया, थोड़ी मुझको देना भैया
छल है, मोह-माया है, चाह नहीं, कहने की ही बातें भैया
टैक्स भरो, टैक्स भरो, सुनते-सुनते नींद हमारी टूट गई
मुट्ठी से रिसता है धन, गुल्लक मेरी टूट गई
जब से सुना बजट है भैया, मोह-माया सब छूट गई
सिक्के सारे खन-खन गिरते किसने लूटे पता नहीं
मेरी पूंजी किसने लूटी, कैसे लूटी मुझको यह तो पता नहीं
किसकी जेबें भर गईं, किसकी कट गईं, कोई न जानें भैया
इससे बेहतर योग चला लें, चल मुफ्त की रोटी खाएं भैया
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कोई तो आयेगा
भावनाओं का वेग
किसी त्वरित नदी की तरह
अविरल गति से
सीमाओं को तोड़ता
तीर से टकराता
कंकड़-पत्थर से जूझता
इक आस में
कोई तो आयेगा
थाम लेगा गति
सहज-सहज।
.
जीवन बीता जाता है
इसी प्रतीक्षा में
और कितनी प्रतीक्षा
और कितना धैर्य !!!!
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श्रम की धरा पर पांव धरते हैं
श्रम की धरा पर पांव धरते हैं
न इन राहों से डरते हैं
दिन-भर मेहनत कर
रात चैन की नींद लेते हैं
कहीं भी कुछ नया
या अटपटा नहीं लगता
यूं ही
जीवन की राहों पर चलते हैं
न बड़े सपनों में जीते हैं
न आहें भरते हैं।
न किसी भ्रम में रहते हैं
न आशाओं का
अनचाहा जाल बुनते हैं।
पर इधर कुछ लोग आने लगे हैं
हमें औरत होने का एहसास
कराने लगे हैं
कुछ अनजाने-से
अनचाहे सपने दिखाने लगे हैं
हमें हमारी मेहनत की
कीमत बताने लगे हैं
दया, दुख, पीड़ा जताने लगे हैं
महल-बावड़ियों के
सपने दिखाने लगे हैं
हमें हमारी औकात बताने लगे हैं
कुछ नारे, कुछ दावे, कुछ वादे
सिखाने लगे हैं
मिलें आपसे तो
मेरी ओर से कहना
एक बार धरा पर पांव रखकर देखो
काम को छोटा या बड़ा न देखकर
बस मेहनत से काम करके देखो
ईमान की रोटी तोड़ना
फिर रात की नींद लेकर देखो