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मां,
मास्टर जी कहते हैं
धरती गोल घूमती।
चंदा-तारे सब घूमते
सूरज कैसे आता-जाता
बहुत कुछ बतलाते।
मेरी समझ नहीं कुछ आता
फिर हम क्यों नहीं गिरते।
पेड़-पौधे खड़े-खड़े
हम पर क्यों नहीं गिरते।
चंदा लटका आसमान में
कभी दिखता
कभी खो जाता।
कैसे कहां चला जाता है
पता नहीं क्या-क्या समझाते।
इतने सारे तारे
घूम-घूमकर
मेरे बस्ते में क्यों नहीं आ जाते।
कभी सूरज दिखता
कभी चंदा
कभी दोनों कहीं खो जाते।
मेरी समझ कुछ नहीं आता
मास्टर जी
न जाने क्या-क्या बतलाते।
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खींच-तान में मन उलझा रहता है
आशाओं का संसार बसा है, मन आतुर रहता है
यह भी ले ले, वह भी ले ले, पल-पल ये ही कहता है
क्या छोड़ें, क्या लेंगे, और क्या मिलना है किसे पता
बस इसी खींच-तान में जीवन-भर मन उलझा रहता है
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दाना डाला जाल बिछाया
नदी किनारे बैठे बैठे मन में आया चल डूब मरें
फिर देखा मीन बड़ी बड़ी, सोचा मस्ती खूब करें
दाना डाला, जाल बिछाया, सारे हथकंडे अपनाये
पकड़ी तो नकली निकली, आप न ऐसी भूल करें
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कब छूटेगी यह नाटकबाजी
देह पर पुस्तक-सज्जा से
पढ़ना नहीं आ जाता।
मांग में कलम सजाने से
लिखना नहीं आ जाता।
कपोत उड़ाने भर से
स्वाधीनता के द्वार
उन्मुक्त नहीं हो जाते।
पहले हाथ की बेड़ियां
तो तोड़।
फिर सोच,
कान के झुमके,
माथे की टिकुली,
नाक की नथनी,
और नर्तन मुद्रा के साथ,
इन फूलों के बीच
कितनी सजती हो तुम।
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मन के पिंजरे खोल रे मनवा
मन विहग!
मन के पिंजरे खोल रे मनवा,
मन के बंधन तोड़ रे मनवा।
कुछ तो टूटेगा,
कुछ तो बिखरेगा,
कुछ तो बदलेगा।
गगन विशाल,
उड़ान बड़ी है,
पंख मिले छोटे,
कुछ कतरे गये।
कुछ टूटे,
कुछ बिखर गये।
चाहत न छोड़,
मन को न मोड़,
उड़ान भर,
आज नहीं तो कल,
कल नहीं तो कभी,
या फिर अभी
चाहतों को जोड़,
मन को न मोड़।
उड़ान भर।
न डर, बस
मन के पिंजरे खोल रे मनवा,
मन के बंधन तोड़ रे मनवा।
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कर्मनिष्ठ जीवन तो जीना होगा
ये कैसा रंगरूप अब तुम ओढ़कर चले हो,
क्यों तुम दुनिया से यूं मुंह मोड़कर चले हो,
कर्मनिष्ठ-जीवन में विपदाओं से जूझना होगा,
त्याग के नाम पर कौन से सफ़र पर चले हो।
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सूखी धरती करे पुकार
वातानुकूलित भवनों में बैठकर जल की योजनाएं बनाते हैं
खेल के मैदानों पर अपने मनोरंजन के लिए पानी बहाते हैं
बोतलों में बन्द पानी पी पीकर, सूखी धरती को तर करेंगे
सबको समान सुविधाएं मिलेंगी, सुनते हैं कुछ ऐसा कहते हैं
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सरकारी कुर्सी
आज मैं
कुर्सी लेने बाज़ार गई।
विक्रेता से कुर्सी दिखाने के लिए कहा।
वह बोला,
कैसी कुर्सी चाहिए आपको ?
मेरा सीधा-सा उत्तर था ।
सुविधाजनक,
जिस पर बैठकर काम किया जा सके
जैसी कि सरकारी कार्यालयों में होती है।
उसके चेहरे पर कुटिल मुस्कुराहट आ गई
तो ऐसे बोलिए न मैडम
आप घर में सरकारी कुर्सी जैसी
कुर्सी चाहती है।
लगता है किसी सरकारी दफ़्तर से
सेवानिवृत्त होकर आई हैं
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निःस्वार्थ था उनका बलिदान
ये वे नाम हैं
जिन्हें हम स्मरण करते हैं
बस किसी एक दिन,
उनकी वीरता, साहस,
देश भक्ति और बलिदान।
विदेशी आक्रांताओं से मुक्ति,
स्वाधीन, महान भारत का सपना
हमें देकर गये।
निःस्वार्थ था उनका बलिदान
वे केवल जानते थे
हमारा भारत महान
और हर नागरिक समान।
** ** ** **
देशभक्ति क्या होती है
क्या होता है बलिदान,
काश! हम समझ पाते।
तो आज
न बहता सड़कों पर रक्त
न पूछते हम जाति
न करते किसी धर्म-अधर्म की बात
न पत्थर चिनते,
न दीवारें बनाते,
बस इंसानियत को जीते
और इंसानियत को समझते।
किसी ने कहा था
अच्छा हुआ
आज गांधी ज़िन्दा नहीं हैं
नहीं तो वे
सच को इस तरह सड़कों पर
मरता देख बहुत रोते।
अच्छा हुआ
इनमें से कोई आज ज़िन्दा नहीं है,
वे हमारी सोच देख
सच में ही मर जाते।
** ** ** **
ऐसा क्या हुआ
कि हम
इन्हें अपने भीतर
ज़िन्दा नहीं रख पाये।
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समझा रहे हैं राजाजी
वीरता दिखा रहे मंच पर आज राजाजी
हाथ उठा अपना ही गुणगान कर रहे हैं राजाजी
धर्म-कर्म, जाति-पाति के नाम पर ‘मत’ देना
बस इतना ही तो समझा रहे हैं राजाजी।
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बाल-मन की बात
हाथ जोड़कर तुम क्या मांग रहे मुझको कुछ भी नहीं पता
बैठा था गर्मी की छुट्टी की आस में, क्या की थी मैंने खता
मैं तो बस मांगूं एक टी.वी., एक पी.सी, एक आई फोन 6
और मांगू, गुम हो जाये चाबी स्कूल की, और मेरा बस्ता