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टोकरी-भर मुस्कुराहटें बांटती हूँ।
जीवन बोझ नहीं, ऐसा मानती हूँ।
काम जब ईमान हो तो डर कैसा,
नहीं किसी का एहसान माँगती हूँ।
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लिखने को तो बहुत कुछ है
पढ़ने की ललक है,
आगे बढ़ने की ललक है।
न जाने कहां तक
राह खुली है ,
और कहां ताला बन्द है।
आजकल
विज्ञापन बहुत हैं,
बनावट बहुत है,
तरह तरह की
सजावट बहुत है।
सरल-सहज
कहां जीवन रह गया,
कसावट बहुत है।
राहें दुर्गम हैं,
डर बहुत है।
पढ़ ले, पढ़ ले।
आजकल
पढ़ी-लिखी लड़कियों की
डिमांड बहुत है।
पर साथ-साथ
चूल्हा-चौका-घिसाई भी सीख लेना,
उसके बिना
लड़कियों का जीवन
नरक है।
अंग्रज़ी में गिट-पिट करना सीख ले,
पर मानस भी रट लेना ,
यह भी जीवन का जरूरी पक्ष है।
तुम्हारी सादगी, तुम्हारी यह मुस्कुराहट
आकर्षित करती है,
पर
सजना-संवरना भी सीख ले,
यहां भी होना दक्ष है।
लिखने को तो बहुत कुछ है,
पर कलम रोकती है,
चुप कर ,
यहां बहुत बड़ा विपक्ष है।
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इसे कहते हैं एक झाड़ू
कभी थामा है झाड़ू हाथ में
कभी की है सफ़ाई अंदर-बाहर की
या बस एक फ़ोटो खिंचवाई
और चल दिये।
साफ़ सड़कों की सफ़ाई
साफ़ नालियों की धुलाई
इन झकाझक सफ़ेद कपड़ों पर
एक धब्बा न लगा।
कभी हलक में हाथ डालकर
कचरा निकालना पड़े
तो जान जाती है।
कभी दांत में अटके तिनके को
तिनके से निकालना पड़े तो
जान हलक में अटक जाती है।
हां, मुद्दे की बात करें,
कल को होगी नीलामी
इस झाड़ू की,
बिकेगा लाखों-करोड़ों में
जिसे कोई काले धन का
कचरा जमा करने वाला
सम्माननीय नागरिक
ससम्मान खरीदेगा
या किसी संग्रहालय में रखा जायेगा।
देखेगी इसे अगली पीढ़ी
टिकट देकर, देखो-देखो
इसे कहते हैं एक झाड़ू
पिछली सदी में
साफ़ सड़कों पर कचरा फैलाकर
साफ़ नालियों में साफ़ पानी बहाकर
एक स्वच्छता अभियान का
आरम्भ किया गया था।
लाखों नहीं
शायद करोड़ों-करोड़ों रूपयों का
अपव्यय किया गया था
और सफ़ाई अभियान के
वास्तविक परिचालक
पीछे कहीं असली कचरे में पड़े थे
जिन्होंने अवसर पाते ही
बड़ों-बड़ों की कर दी थी सफ़ाई
किन्तु जिन्हें अक्ल न आनी थी
न आई !!!!!
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अवसान एक प्रेम-कथा का
अपनी कामनाओं को
मुट्ठी में बांधे
चुप रहे हम
कैसे जान गये
धरा-गगन
क्यों हवाओं में
छप गया हमारा नाम
बादलों में क्यों सिहरन हुई
क्यों पंछियों ने तान छेड़ी
लहरों में एक कशमकश
कहीं भंवर उठे
कहीं सागर मचले
धूमिल-धूमिल हुआ सब
और हम
देखते रह गये
पाषाण बनते भाव
अवसान
एक प्रेम-कथा का।
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वहम की दीवारें
बड़ी नाज़ुक होती हैं
वहम की दीवारें
ज़रा-सा हाथ लगते ही
रिश्तों में
बिखर-बिखर जाती हैं
कांच की किरचों की तरह।
कितने गहरे तक
घाव कर जायेंगी
हम समझ ही नहीं पाते।
सच और झूठ में उलझकर
अनजाने में ही
किरचों को समेटने लग जाते हैं,
लेकिन जैसे
कांच
एक बार टूट जाने पर
जुड़ता नहीं
घाव ही देता है
वैसे ही
वहम की दीवारों से रिसते रिश्ते
कभी जुड़ते नहीं।
जब तक
हम इस उलझन को समझ सकें
दीवारों में
किरचें उलझ चुकी होती हैं।
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गुनगुनाता है चांद
शाम से ही
गुनगुना रहा है चांद।
रोज ही की बात है
शाम से ही
गुनगुनाता है चांद।
सितारों की उलझनों में
वृक्षों की आड़ में
नभ की गहराती नीलिमा में
पत्तों के झरोखों से,
अटपटी रात में
कभी इधर से,
कभी उधर से
झांकता है चांद।
छुप-छुपकर देखता है
सुनता है,
समझता है सब चांद।
कुछ वादे, कुछ इरादे
जीवन भर
साथ निभाने की बातें
प्रेम, प्यार के किस्से,
कुछ सच्चे, कुछ झूठे
कुछ मरने-जीने की बातें
सब जानता है
इसीलिए तो
रोज ही की बात है
शाम से ही
गुनगुनाता है चांद
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उनकी यादों में
क्यों हमारे दिन सभी मुट्ठियों से फ़िसल जायेंगे
उनकी यादों में जीयेंगे, उनकी यादों में मर जायेंगे
मरने की बात न करना यारो, जीने की बात करें
दिल के आशियाने में उनकी एक तस्वीर सजायेंगे।
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जिन्दगी की आग में सिंकी मां
बहुत याद आती हैं
मां के हाथ की वो दो सूखी रोटियां
आम की फांक के साथ
अखबार के पन्ने में लपेटकर दिया करती थी
स्कूल के लिए।
और उन दो सूखी रोटियों की ताकत से
हम दिन भर मस्त रहते थे।
आम की फांक को तब तक चूसते थे
जब तक उसकी जान नहीं निकल जाती थी।
चूल्हे की आग में तपी रोटियां
एक बेनामी सी दाल-सब्जी
अजब-गजब स्वाद वाली
कटोरियां भर-भर पी जाते थे
आग में भुने आलू-कचालू
नमक के साथ निगल जाते थे।
चूल्हे को घेरकर बैठे
बतियाते, हंसते, लड़ते,
झीना-झपटी करते।
अपनी थाली से ज्यादा स्वाद
दूसरे की थाली में आता था।
रात की बची रोटियों का करारापन
चाय के प्याले के साथ।
और तड़का भात नाश्ते में
खट्टी-मीठी चटनियां
गुड़-शक्कर का मीठा
चूरी के साथ खा जाते थे पूरी रोटी।
जिन्दगी की आग में सिंकी मां,
और उसके हाथ की बनी रोटियों से मिली
संघर्ष की पौष्टिकता
आज भी भीतर ज्वलन्त है।
छप्पन भोग बनाने-खाने के बाद भी
तरसती हूं इस स्वाद के लिए।
बनाने की कोशिश करती हूं
पर वह स्वाद तो मां के साथ चला गया।
अगर आपके घर में हो ऐसी रोटियां और ऐसा स्वाद
तो मुझे ज़रूर न्यौता देना
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न इधर मिली न उधर मिली
नहीं जा पाये हम शाला, बाहर पड़ा था गहरा पाला
राह में इधर आई गउशाला, और उधर आई मधुशाला
एक कदम इधर जाता था, एक कदम उधर जाता था
न इधर मिली, न उधर मिली, हम रह गये हाला-बेहाला
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मुस्कानों को नहीं छीन सकता कोई
ज़िन्दगियाँ पानी-पानी हो रहीं
जंग खातीं काली-काली हो रहीं
मुस्कानों को नहीं छीन सकता कोई
चाहें थालियाँ खाली-खाली हो रहीं।