माफ़ करना आप मुझे
मित्रो,
चाहकर भी आज मैं
कोई मधुर गीत ला न सकी।
माफ़ करना आप मुझे
देशप्रेम, एकता, सौहार्द पर
कोई नई रचना बना न सकी।
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मेरी कलम ने मुझे दे दिया धोखा,
अकेली पड़ गई मैं,
सुनिए मेरी व्यथा।
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भाईचारे, देशप्रेम, आज़ादी
और अपनेपन की बात सोचकर,
छुआ कागज़ को मेरी कलम ने,
पर यह कैसा हादसा हो गया
स्याही खून बन गई,
सन गया कागज़,
मैं अवाक् ! देखती रह गई।
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प्रेम, साम्प्रदायिक सौहार्द
और एकता की बात सोचते ही,
मेरी कलम बन्दूक की गोली बनी
हाथ से फिसली
बन्दूकों, गनों, तोपों और
मिसाईलों के नाम
कागज़ों को रंगने लगे।
आदमी मरने लगा।
मैं विवश ! कुछ न कर सकी।
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धार्मिक एकता के नाम पर
कागज़ पर उभर आये
मन्दिर, मस्जिद और गुरुद्वारे।
न पूजा थी न अर्चना।
अरदास थी न नमाज़ थी।
दीवारें भरभराती थीं
चेहरे मिट्टी से सने।
और इन सबके बीच उभरी एक चर्च
और सब गड़बड़ा गया।
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हार मत ! एक कोशिश और कर।
मेरे मन ने कहा।
साहस जुटाए फिर कलम उठाई।
नया कागज़ लाईए नई जगह बैठी।
सोचने लगी
नैतिकता, बंधुत्व, सच्चाई
और ईमानदारी की बातें।
पर क्या जानती थी
कलमए जिसे मैं अपना मानती थी,
मुझे देगी दगा फिर।
मैं काव्य रचना चाहती थी,
वह गणना करने लगी।
हज़ारों नहीं, लाखों नहीं
अरबों-खरबों के सौदे पटाने लगी।
इसी में उसको, अपनी जीत नज़र आने लगी।
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हारकर मैंने भारत-माता को पुकारा।
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नमन किया,
और भारत-माता के सम्मान में
लिखने के लिए बस एक गीत
अपने कागज़-कलम को नये सिरे से संवारा।
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पर, भूल गई थी मैं,
कि भारत तो कब का इंडिया हो गया
और माता का सम्मान तो कब का खो गया।
कलम की नोक तीखे नाखून हो गई।
विवस्त्र करते अंग-अंग,
दैत्य-सी चीखती कलम,
कागज़ पर घिसटने लगी,
मानों कोई नवयौवना सरेआम लुटती,
कागज़ उसके वस्त्र का-सा
तार-तार हो गया।
आज की माता का यही सत्कार हो गया।
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किस्सा रोज़ का था।
कहां तक रोती या चीखती
किससे शिकायत करती।
धरती बंजर हो गई।
मैं लिख न सकी।
कलम की स्याही चुक गई।
कलम की नोक मुड़ गई ! !
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मित्रो ! चाहकर भी आज मै
कोई मधुर गीत ल न सकी
माफ़ करना आप मुझे
देशप्रेम, एकता, सौहार्द पर
कोईए नई रचना बना न सकी!!