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जब-जब
जीने का प्रयास किया मैंने,
तब-तब
मुझे बता दिया गया,
कि ज़िन्दगी में
मरना बड़ा जरूरी है।
यह ज़रूरी नहीं कि
आप ज़िन्दगी में
एक ही बार मरें,
ज़िन्दा रहते हुए भी
बार-बार
मरने के अनेक रास्ते हैं ।
ज़िंदा रहते हुए भी
मरना ही तो
असली मौत है ।
जिसे हम स्वयं भोगते हैं।
वह मौत क्या
जिसे और लोग भुगतें।
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कौन पापी कौन भक्त कोई निष्कर्ष नहीं
कुछ कथाएं
जिस रूप में हमें
समझाई जाती हैं
उतना ही समझ पाते हैं हम।
ये कथाएं, हमारे भीतर
रस-बस गई हैं,
बस उतना ही
मान जाते हैं हम।
प्रश्न नहीं करते,
विवाद में नहीं पड़ते,
बस स्वीकार कर लेते हैं,
और सहज भाव से
इस परम्परा को आगे बढ़ाते हैं।
कौन पापी, कौन भक्त
कोई निष्कर्ष नहीं निकाल पाते हैं हम।
अनगिन चरित्र और कथाओं में
उलझे पड़े रहते हैं हम।
विशेष पर्वों पर उनकी
महानता या दुष्कर्मों को
स्मरण करते हैं हम।
सत्य-असत्य को
कहां समझ पाये हम।
सत्य और कपोल-कल्पना के बीच,
कहीं पूजा-आराधना से,
कहीं दहन से, कहीं सज्जा से,
कहीं शक्ति का आह्वान,
तो कहीं राम का नाम,
उलझे मस्तिष्क को
शांत कर लेते हैं हम।
और जयकारा लगाते हुए
भीड़ का हिस्सा बनकर
आनन्द से प्रसाद खाते हैं हम।
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साहस है मेरा
साहस है मेरा, इच्छा है मेरी, पर क्यों लोग हस्तक्षेप करने चले आते हैं
जीवन है मेरा, राहें हैं मेरी, पर क्यों लोग “कंधा” देने चले आते हैं
अपने हैं, सपने हैं, कुछ जुड़ते हैं बनते हैं, कुछ मिटते हैं, तुमको क्या
जीती हूं अपनी शर्तों पर, पर पता नहीं क्यों लोग आग लगाने चले आते हैं
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ज़िन्दगी कोई गणित नहीं
ज़िन्दगी
जब कभी कोई
प्रश्नचिन्ह लगाती है,
उत्तर शायद पूर्वनिर्धारित होते हैं।
यह बात
हम समझ ही नहीं पाते।
किसी न किसी गणित में उलझे
अपने-आपको महारथी समझते हैं।
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यह ज़िन्दगी है
यह ज़िन्दगी है,
भीड़ है, रेल-पेल है ।
जाने-अनजाने लोगों के बीच ,
बीतता सफ़र है ।
कभी अपने पराये-से,
और कभी पराये
अपने-से हो जाते हैं।
दुख-सुख के ठहराव ,
कभी छोटे, कभी बड़े पड़ाव,
कभी धूप कभी बरसात ।
बोझे-सी लदी जि़न्दगी,
कभी जगह बन पाती है
कभी नहीं।
कभी छूटता सामान
कभी खुलती गठरियां ।
अन्तहीन पटरियों से सपनों का जाल ।
दूर कहीं दूर पटरियों पर
बेटिकट दौड़ती-सी ज़िन्दगी ।
मिल गई जगह तो ठीक,
नहीं तो खड़े-खड़े ही,
बीतती है ज़िन्दगी ।
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जिन्दगी का एक नया गीत
चलो
आज जिन्दगी का
एक नया गीत गुनगुनाएं।
न कोई बात हो
न हो कोई किस्सा
फिर भी अकारण ही मुस्कुराएं
ठहाके लगाएं।
न कोई लय हो न धुन
न करें सरगम की चिन्ता
ताल सब बिखर जायें।
कुछ बेसुरी सी लय लेकर
सारी धुनें बदल कर
कुछ बेसुरे से राग नये बनाएं।
अलंकारों को बेसुध कर
तान को बेसुरा गायें।
न कोई ताल हो न कोई सरगम
मंद्र से तार तक
हर सप्तक की धज्जियां उड़ाएं
तानों को खींच –खींच कर
पुरज़ोर लड़ाएं
तारों की झंकार, ढोलक की थाप
तबले की धमक, घुंघुरूओं की छनक
बेवजह खनकाएं।
मीठे में नमकीन और नमकीन में
कुछ मीठा बनायें।
चाहने वालों को
ढेर सी मिर्ची खिलाएं।
दिन भर सोयें
और रात को सबको जगाएं।
पतंग के बहाने छत पर चढ़ जाएं
इधर-उधर कुछ पेंच लड़ाएं
कभी डोरी खींचे
तो कभी ढिलकाएं।
और, इस आंख का क्या करें
आप ही बताएं।
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सबके सपनों की गठरी बांधे
परदे में रहती थी पर परदे से बाहर की दुनिया समझाती थी मां
अक्षर ज्ञान नहीं था पर पढ़े-लिखों से ज्यादा ज्ञान रखती थी मां
सबके सपनों की गठरी बांधे, जाने कब सोती थी कब उठती थी
घर भर में फिरकी सी घूमती पल भर में सब निपटा लेती थी मां
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स्वप्न हों साकार
तुम बरसो, मैं थाम लूं मेह की रफ्तार
न कहीं सूखा हो न धरती बहे धार धार
नदी, कूप, सर,निर्झर सब हों अमृतमय
शस्यश्यामला धरा पर स्वप्न हों साकार
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साथ समय के चलना होगा
तुमको क्यों ईर्ष्या होती है मैंने भी आई-फोन लिया है।
साथ समय के चलना होगा इतना मैंने समझ लिया है।
चिट्ठियां-विट्ठियां पीछे छूटीं, इतना ज्ञान मिला है मुझको,
ई-मेल, फेसबुक, ट्विटर सब कुछ मैंने खोल लिया है।
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अब शब्दों के अर्थ व्यर्थ हो गये हैं
शब्दकोष में अब शब्दों के अर्थ
व्यर्थ हो गये हैं।
हर शब्द
एक नई अभिव्यक्ति लेकर आया है।
जब कोई कहना है अब चारों ओर शांति है
तो मन डरता है
कोई उपद्रव हुआ होगा, कोई दंगा या मारपीट।
और जब समाचार गूंजता है
पुलिस गश्त कर रही है, स्थिति नियन्त्रण में है
तो स्पष्ट जान जाते हैं हम
कि बाहर कर्फ्यू है, कुछ घर जले हैं
कुछ लोग मरे हैं, सड़कों पर घायल पड़े हैं।
शायद, सेना का फ्लैग मार्च हुआ होगा
और हमें अब अपने आपको
घर में बन्द करना होगा ।
अहिंसा के उद्घोष से
घटित हिंसा का बोध होता है।
26 जनवरी, 15 अगस्त जैसे दिन
और बुद्ध, नानक, कबीर, गांधी, महावीर के नाम पर
मात्र एक अवकाश का एहसास होता है
न कि किसी की स्मृति, ज्ञान, शिक्षा, बलिदान का।
धर्म-जाति, धर्मनिरप्रेक्षता, असाम्प्रदायिकता,
सद्भाव, मानवता, समानता, मिलन-समारोह
जैसे शब्द डराते हैं अब।
वहीं, आरोपी, अपराधी, लुटेरे,
स्कैम, घोटाले जैसे शब्द
अब बेमानी हो गये हैं
जो हमें न डराते हैं, और न ही झिंझोड़ते हैं।
“वन्दे मातरम्” अथवा “भारत माता की जय”
के उद्घोष से हमारे भीतर
देश-भक्ति की लहर नहीं दौड़ती
अपितु अपने आस-पास
किसी दल का एहसास खटकता है
और प्राचीन भारतीय योग पद्धति के नाम पर
हमारा मन गर्वोन्नत नहीं होता
अपितु एक अर्धनग्न पुरूष गेरूआ कपड़ा ओढ़े
घनी दाढ़ी और बालों के साथ
कूदता-फांदता दिखाई देता है
जिसने कभी महिला वस्त्र धारण कर
पलायन किया था।
कोई मुझे “बहनजी” पुकारता है
तो मायावती होने का एहसास होता है
और “पप्पू” का अर्थ तो आप जानते ही हैं।
कुछ ज़्यादा तो नहीं हो गया।
कहीं आप उब तो नहीं गये
चलो आज यहीं समाप्त करती हूं
बदले अर्थों वाले शब्दकोष के कुछ नये शब्द लेकर
फिर कभी आउंगी
अभी आप इन्हें तो आत्मसात कर लें
और अन्त में, मैं अब
बुद्धिजीवी, साहित्यकार, कलाकार और
सम्मान शब्दों के
नये अर्थों की खोज करने जा रही हूं।
ज्ञात होते ही आपसे फिर मिलूंगी
या फिर उनमें जा मिलूंगी
फिर कहां मिलूंगी ।।।।।।।
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‘गर किसी पर न हो मरना तो जीने का मजा क्या
कुछ यूं बात हुई
उनसे आंखें चार हुईं
दिल, दिल से छू गया
कहां-कहां से बात हुई
कुछ हम न समझे
कुछ वे न समझे
कुछ हम समझे
और कुछ वे समझे
कभी नींद उड़ी
कभी दिन में तारे चमके
कभी सपनों ही सपनों में बात हुई
बहके-बहके भाव चले
आंखों ही आंखों में कुछ बात हुई
उम्र हमारी साठ हुई
मिलने लगे कुछ उलाहने
सुनने में आया
ये क्या कर बैठे
हम तो उन पर मर बैठे
ये भी क्या बात हुई
जी हां,
हमने उनको समझाया
‘गर किसी पर
न हो मरना
तो
जीने का मजा क्या