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तर्पण कर,
मन अर्पण कर,
कर समर्पण।
भाव रख, मान रख,
प्रण कर, नमन कर,
सबके हित में नाम कर।
अंजुरि में जल की धार
लेकर सत्य की राह चुन।
मन-मुटाव छांटकर
वैर-भाव तिरोहित कर।
अपनों को स्मरण कर,
उनके गुणों का मनन कर।
राहों की तलाश कर
जल-से तरल भाव कर।
कष्टों का हरण कर,
मन में सुबोल वरण कर।
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नेह की पौध बीजिए
घृणा की खरपतवार से बचकर चलिए।
इस अनचाही खेती को उजाड़कर चलिए।
कब, कहां कैसे फैले, कहां समझें हैं हम,
नेह की पौध बीजिए, नेह से सींचते चलिए।
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कभी गोल हुआ करता था पैसा
कभी गोल हुआ करता था पैसा
इसलिए कहा जाता था
टिकता नहीं किसी के पास।
पता नहीं
कब लुढ़क जाये,
और हाथ ही न आये।
फिर खन-खन भी करता था पैसा।
भरी और भारी रहती थीं
जेबें और पोटलियां।
बचपन में हम
पैसों का ढेर देखा करते थे,
और अलग-अलग पैसों की
ढेरियां बनाया करते थे।
घर से एक पैसा मिलता था
स्कूल जाते समय।
जिस दिन पांच या दस पैसे मिलते थे,
हमारे अंदाज़ शाही हुआ करते थे।
लेकिन अब कहां रह गये वे दिन,
जब पैसों से आदमी
शाह हुआ करता था।
अब तो कागज़ से सरक कर
एक कार्ड में पसर कर
रह गया है पैसा।
वह आनन्द कहां
जो रेज़गारी गिनने में आता था।
तुम क्या समझोगे बाबू!!!
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शब्दों की झोली खाली पाती हूं
जब भावों का ज्वार उमड़ता है, तब सोच-समझ उड़ जाती है
लिखने बैठें तो अपने ही मन की बात कहां समझ में आती है
कलम को क्यों दोष दूं, क्यों स्याही फैली, सूखी या मिट गई
भावों को किन शब्दों में ढालूं, शब्दों की झोली खाली पाती हूं
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नौ दिन बीतते ही
वर्ष में
बस दो बार
तेरे अवतरण की
प्रतीक्षा करते हैं
तेरे रूप-गुण की
चिन्ता करते हैं
सजाते हैं तेरा दरबार
तेरे मोहक रूप से
आंखें नम करते हैं
गुणगान करते हैं
तेरी शक्ति, तेरी आभा से
मन शान्त करते हैं।
दुराचारी
प्रवृत्तियों का
दमन करते हैं।
किन्तु
नौ दिन बीतते ही
तिरोहित कर
भूल जाते हैं
और लौट आते हैं
अपने चिर-स्वभाव में।
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सूर्यग्रहण के अवसर पर लिखी गई एक रचना
दूर कहीं गगन में
सूरज को मैंने देखा
चन्दा को मैंने देखा
तारे टिमटिम करते
जीवन में रंग भरते
लुका-छिपी ये खेला करते
कहते हैं दिन-रात हुई
कभी सूरज आता है
कभी चंदा जाता है
और तारे उनके आगे-पीछे
देखो कैसे भागा-भागी करते
कभी लाल-लाल
कभी काली रात डराती
फिर दिन आता
सूरज को ढूंढ रहे
कोहरे ने बाजी मारी
दिन में देखो रात हुई
चंदा ने बाजी मारी
तम की आहट से
दिन में देखो रात हुई
प्रकृति ने नवचित्र रचाया
रेखाओं की आभा ने मन मोहा
दिन-रात का यूं भाव टला
जीवन का यूं चक्र चला
कभी सूरज आगे, कभी चंदा भागे
कभी तारे छिपते, कभी रंग बिखरते
बस, जीवन का यूं चक्र चला
कैसे समझा, किसने समझा
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कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो
ममता, नेह, मातृछाया बरसाने वाली नारी में भी चाहत होती है
कोई उसके मस्तक को भी सहला दे तो कितनी राहत होती है
पावनता के सारे मापदण्ड बने हैं बस एक नारी ही के लिए
कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो यह भी चाहत होती है
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नादानियां भी आप ही तो कर रहे हैं हम
बाढ़ की विभीषिका से देखो डर रहे हैं हम
नादानियां भी आप ही तो कर रहे हैं हम
पेड़ काटे, नदी बांधी, जल-प्रवाह रोक लिए
आफ़त के लिए सरकार को कोस रहे हैं हम
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मन चंचल करती तन्हाईयां
जीवन की धार में
कुछ चमकते पल हैं
कुछ झिलमिलाती रोशनियां
कुछ अवलम्ब हैं
तो कुछ
एकाकीपन की झलकियां
स्मृतियों को संजोये
मन लेता अंगड़ाईयां
मन को विह्वल करती
बहती हैं पुरवाईयां
कुछ ठिठके-ठिठके से पल हैं
कुछ मन चंचल करती तन्हाईयां
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मन की भोली-भाली हूं
डील-डौल पर जाना मत
मुझसे तुम घबराना मत
मन की भोली-भाली हूं
मुझसे तुम कतराना मत
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बनती रहती हैं गांठें बूंद-बूंद
कहां है अपना वश !
कब के रूके
कहां बह निकलेगें
पता नहीं।
चोट कहीं खाई थी,
जख्म कहीं था,
और किसी और के आगे
बिखर गये।
सबने अपना अपना
अर्थ निकाल लिया।
अब
क्या समझाएं
किस-किसको
क्या-क्या बताएं।
तह-दर-तह
बूंद-बूंद
बनती रहती हैं गांठें
काल की गति में
कुछ उलझी, कुछ सुलझी
और कुछ रिसती
बस यूं ही कह बैठी,
जानती हूं वैसे
तुम्हारी समझ से बाहर है
यह भावुकता !!!