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विषधर तो है !
लेकिन देखना होगा,
विष कहां है?
आजकल लोग
परिपक्व हो गये हैं,
विष निकाल लिया जाता है,
और इंसान के मुख में
संग्रहीत होता है।
तुम यह समझकर
नाग को मारना,
कुचलना चाहते हो,
कि यही है विषधर
जो तुम्हें काट सकता है।
अब न तो
नाग पकड़ने वाले रह गये,
कि नाग का नृत्य दिखाएंगे,
न नाग पंचमी पर
दुग्ध-दहीं से अभिषेक करने वाले।
मन में विषधर पाले
ढूंढ लो चाहे कितने,
मिल जायेंगे चाहने वाले।
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रोशनी की एक लकीर
राहें कितनी भी सूनी हों
अंधेरे कितने भी गहराते हों
वक्त के किसी कोने से
रोशनी की एक लकीर
कभी न कभी,
ज़रूर निकलती ही है।
फिर वह एक रेखा हो,
चांद का टुकड़ा
अथवा चमकता सूरज।
इसलिए कभी भी
निराश न होना
अपने जीवन के सूनेपन से
अथवा अंधेरों से
और साथ ही
ज़रूरत से ज़्यादा रोशनी से भी ।
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परिवर्तन नित्य है
सन्मार्ग पर चलने के लिए रोशनी की बस एक किरण ही काफ़ी है
इरादे नेक हों, तो, राही दो हों न हों, बढ़ते रहें, इतना ही काफ़ी है
सूर्य अस्त होगा, रात आयेगी, तम भी फैलेगा, संगी साथ छोड़ देंगे,
तब भी राह उन्मुक्त है, परिवर्तन नित्य है, इतना जानना ही काफ़ी है
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नई शुरूआत
जो मैं हूं
वैसा सब मुझे जान नहीं पाते
और जैसा सब मुझे जान पाते हैं
वह मैं बन नहीं पाती।
बार बार का यह टकराव
हर बार हताश कर जाता है मुझे
फिर साथ ही उकसा जाता है
एक नई शुरूआत के लिए।।।।।।।।।।।
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न समझे हम न समझे तुम
सास-बहू क्यों रूठ रहीं
न हम समझे न तुम।
पीढ़ियों का है अन्तर
न हम पकड़ें न तुम।
इस रिश्ते की खिल्ली उड़ती,
किसका मन आहत होता,
करता है कौन,
न हम समझें न तुम।
शिक्षा बदली, रीति बदली,
न बदले हम-तुम।
कौन किसको क्या समझाये,
न तुम जानों न हम।
रीतियों को हमने बदला,
संस्कारों को हमने बदला,
नया-नया करते-करते
क्या-क्या बदल डाला हमने,
न हम समझे न तुम।
हर रिश्ते में उलझन होती,
हर रिश्ते में कड़वाहट होती,
झगड़े, मान-मनौवल होती,
पर न बात करें,
न जाने क्यों,
हम और तुम।
जहां बात नारी की आती,
बढ़-बढ़कर बातें करते ,
हास-परिहास-उपहास करें,
जी भरकर हम और तुम।
किसकी चाबी किसके हाथ
क्यों और कैसे
न जानें हम और न जानें हो तुम।
सब अपनी मनमर्ज़ी करते,
क्यों, और क्या चुभता है तुमको,
न समझे हैं हम
और क्यों न समझे तुम।
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बुद्धम् शरणम गच्छामि
कथाओं के अनुसार आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व की कथा है। 563 ईसा पूर्व। एक राजकुमार अपनी सोती हुई पत्नी एवं नवजाव शिशु को आधी रात में त्याग कर ज्ञान प्राप्ति के लिए चला गया। उस युवक ने घोर तपस्या की, साधना की और दिव्य ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने सम्पूर्ण जगत को जरा, मरण, दुखों से मुक्ति दिलाने के लिए, सत्य एवं दिव्य ज्ञान की खोज के लिए जगत के हित के लिए वर्षों कठोर साधना की और अन्त में बिहार बोध गया में बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई ओर वे सिद्धार्थ गौतम से भगवान बुद्ध बन गये।
जिस ज्ञान की प्राप्ति के लिए बुद्ध ने अपने परिवार का परित्याग किया, जो कि उनका दायित्व था क्या उस ज्ञान का उपयोग आज यह संसार कर रहा है? क्या जगत के लिए उनका ज्ञान और उपदेश चरम उपलब्धि था?
यदि था तो उनके उपरान्त क्यों आवश्यकता पड़ी कि एक-अनेक युग-पुरुष आये जिन्होंने संसार को पुनः उपदेश दिये, अपने ज्ञान की धारा बहाई, ग्रंथ लिखे गये, आप्त वाक्य बने और यह क्रम आज भी चल रहा है। एक समय बाद ज्ञान की धारा धर्म का रूप ले लेती है। उपदेश की पुनरावृत्ति होती है हर युग में, केवल नाम बदलते हैं, स्थापनाएँ नहीं बदलतीं।
जब भी गौतम बुद्ध के त्याग, ज्ञान, बौद्धित्व, साधना की बात की जाती है मुझे केवल नवजात शिशु और यशोधरा की याद आती है, उनके प्रति कर्तव्य, विश्वास की डोर टूटी तो सम्पूर्ण जगत के साथ कैसे जोड़ी?
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हाथों में हाथ हो
जब अपनों का साथ हो
हाथों में हाथ हो
तब धरा से गगन तक
मार्ग सुगम हो जाते हैं
चांद राहें रोशन करता है
ज्वार भावनाओं का
उमड़ता है
राहों में फूल बिछते हैं
दिल से दिल मिलते हैं
-
तो तुम्हें क्या ! ! ! !
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छटा निखर कर आई
शीत ऋतृ ने पंख समेटे धूप निखरकर आई
तितली ने मकरन्द चुना,फूलों ने ली अंगड़ाई
बासन्ती चूनर ओढ़े उपवन ने देखो रंग बदले,
पल्लव निखरे,पुष्प खिले,छटा निखर कर आई
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अजब-सी भटकन है
फ़िरकी की तरह
घूमती है ज़िन्दगी।
कभी इधर, कभी उधर।
दुनियादारी में उलझी
कभी सुलझी, कभी न सुलझी।
अपनी-सी न लगती
जैसे उधारी किसी की।
अजब-सी भटकन है
कामनाओं का पर्वत है
उम्र पूछती है नाम।
अक्सर मन करता है
चादर ले
सिर ढक और लम्बी तान।
किन्तु
उन सलवटों का क्या करुं
जिन्हें वर्षों से छुपाती आ रही हूँ,
उन धागों का क्या करुँ
जिन्हें दुनिया-भर में तानती आ रही हूँ।
.
यार ! छोड़ अब ये ढकोसले।
बस, अपनी छान।
चादर ले
सिर ढक और लम्बी तान।
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नारी बेचारी नेह की मारी
बस इतना पूछना है
कि क्या अब तुमसे बन्दूक
भी न सम्हल रही
जो मेरे हाथ दे दी!
कहते हो
नारी बेचारी
अबला, ममता, नेह की मारी
कोमल, प्यारी, बेटी बेचारी
घर-द्वार, चूल्हा-चौखट
सब मेरे काम
और प्रकृति का उपहार
ममत्व !
मेरे दायित्व!!
कभी दुर्गा, कभी सीता कहते
कभी रणचण्डी, कभी लक्ष्मीबाई बताते
कभी जौहर करवाते
अब तो हर जगह
बस औरतों के ही काम गिनवाते
कुछ तो तुम भी कर लो
अब क्या तुमसे यह बन्दूक
भी न चल रही
जो मेरे हाथ थमा दी !!
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मैं और मेरी बिल्लो रानी
छुप्पा छुप्पी खेल रहे थे
कहां गये सब साथी
हम यहां बैठे रह गये
किसने मारी भांजी
शाम ढली सब घर भागे
तू मत डर बिल्लो रानी
मेरे पीछे आजा
मैं हूं आगे आगे
दूध मलाई रोटी दूंगी
मां मंदिर तो जा ले।