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चिड़िया के बच्चे सी
उतरी थी मेरे आंगन में।
दुबकी, सहमी सी रहती थी
मेरे आंचल में।
चिड़िया सी चीं-चीं करती
दिन भर
घर-भर में रौनक भरती।
फिर कब पंख उगे
उड़ना सिखलाया तुझको।
धीरे धीरे भरना पग
समझाया तुझको।
दुर्गम हैं राहें,
तपती धरती है,
कंकड़ पत्थर बिखरे हैं,
कदम सम्हलकर रखना
बतलाया तुझको।
हाथ छोड़कर तेरा
पीछे हटती हूं।
अब तुझको
अपने ही दम पर
है आगे बढ़ना।
हिम्मत रखना।
डरना मत ।
जब मन में कुछ भ्रम हो
तो आंखें बन्द कर
करना याद मुझे।
कहीं नहीं जाती हूं
बस तेरे पीछे आती हूं।
मन में बस इतना ही
सम्बल रखना।
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रंग-बिरंगी ज़िन्दगी
इन पत्तों में रंग-बिरंगी दिखती है ज़िन्दगी
इन पत्तों-सी उड़ती-फिरती है ये जिन्दगी
कब झड़े, कब उड़े, हुए रंगहीन, क्या जानें
इन पत्तों-सी धरा पर उतार लाती है जिन्दगी।
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आदरणीय शिव जी पर एक रचना
कुछ कथाएं
मुझे कपोल-कल्पित लगती हैं
एक आख्यान
किसी कवि-कहानीकार की कल्पना
किसी बीते युग का
इतिहास का पुर्नआख्यन,
कहानी में कहानी
कहानी में कहानी और
फिर कहानी में कहानी।
जाने-अनजाने
घर कर गई हैं हमारे भीतर
इतने गहरे तक
कि समझ-बूझ से परे हो जाती हैं।
** ** ** **
भूत-पिचाश हमारे भीतर
बुद्धि पर भभूत चढ़ी है,
विषधर पाले अपने मन में
नर-मुण्डों-सा भावहीन मन है।
वैरागी की बातें करते
लूट-खसोट मची हुई है।
आंख-कान सब बंद किये हैं
गौरी, सुता सब डरी हुई हैं।
त्रिपुरारी, त्रिशूलधारी की बातें करते
हाथों में खंजर बने हुए हैं।
गंगा की तो बात न करना
भागीरथी रो रही है।
डमरू पर ताण्डव करते
यहां सब डरे हुए हैं।
** ** ** **
फिर कहते
शिव-शिव, शिव-शिव,
शिव-शिव, शिव-शिव।
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असमंजस में रहते हैं हम
कितनी बार,
हम समझ ही नहीं पाते,
कि परम्पराओं में जी रहे हैं,
या रूढ़ियों में।
.
दादी की परम्पराएं,
मां के लिए रूढ़ियां थीं,
और मां की परम्पराएं
मुझे रूढ़ियां लगती हैं।
.
हमारी पिछली पीढ़ियां
विरासत में हमें दे जाती हैं,
न जाने कितने अमूल्य विचार,
परम्पराएं, संस्कृति और व्यवहार,
कुछ पुराने यादगार पल।
इस धरोहर को
कभी हम सम्हाल पाते हैं,
और कभी नहीं।
कभी सार्थक लगती हैं,
तो कभी अर्थहीन।
गठरियां बांधकर
रख देते हैं
किसी बन्द कमरे में,
कभी ज़रूरत पड़ी तो देखेंगे,
और भूल जाते हैं।
.
ऐसे ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी
सौंपी जाती है विरासत,
किसी की समझ आती है
किसी की नहीं।
किन्तु यह परम्परा
कभी टूटती नहीं,
चाहे गठरियों
या बन्द कमरों में ही रहें,
इतना ही बहुत है।
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एक साईकिल दिलवा दो न
ए जी,
मुझको भी
एक साईकिल दिलवा दो न।
कार-वार का क्या करना है,
यू. पी. से दिल्ली तक
ही तो फ़र्राटे भरना है।
बस उसमें
आरक्षण का ए.सी. लगवा देना।
लुभावने वादों की
दो-चार सीटें बनवा देना।
कुछ लैपटाप लटका देना।
कुछ हवा-भवा भरवा देना।
एक-ठौं पत्रकार बिठा देना।
कुछ पूरी-भाजी बनवा देना।
हां,
एक कुर्सी ज़रूर रखवा देना,
उस पर रस्सी बंधवा देना।
और
लौटे में देर हो जाये
तो फुनवा घुमा लेना।
ए जी,
एक ठौ साईकिल दिलवा दो न।
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जीवन चलता तोल-मोल से
सड़कों पर बाज़ार बिछा है
रोज़ सजाते, रोज़ हटाते।
आज हरी हैं
कल बासी हो जायेंगी।
आस लिए बैठे रहते हैं
देखें कब तक बिक जायेंगी
ग्राहक आते-जाते
कभी ख़रीदें, कभी सुनाते।
धरा से उगती
धरा पर सजती
धरा पर बिकती।
धूप-छांव में ढलता जीवन
सांझ-सवेरे कब हो जाती।
तोल-मोल से काम चले
और जीवन चलता तोल-मोल से
यूँ ही दिन ढलते रहते हैं
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कैसा बिखराव है यह
मन घुटता है ,बेवजह।
कुछ भीतर रिसता है,बेवजह।
उधेड़ नहीं पाती
पुरानी तरपाई।
स्वयं ही टूटकर
बिखरती है ।
समेटती लगती हूं
पुराने धागों को,
जो किसी काम के नहीं।
कितनी भी सलवटें निकाल लूं
किन्तु ,तहों के निशान
अक्सर जाते नहीं।
क्यों होता है मेरे साथ ऐसा,
कहना कुछ और चाहती हूं
कह कुछ और जाती हूं।
बात आज की है,
और कल की बात कहकर
कहानी को पलट जाती हूं,
कि कहीं कोई
समझ न ले मेरे मन को,
मेरे आज को
या मेरे बीते कल को ।
शायद इसीलिए
उलट-पलट जाती हूं।
कहना कुछ और चाहती हूं,
कह कुछ और जाती हूं।
यह सिलसिला
‘गर ज़िन्दगी भर चलेगा,
तो कहां तक, और कब तक ।
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पूजा में हाथ जुड़ते नहीं
पूजा में हाथ जुड़ते नहीं,
आराधना में सिर झुकते नहीं।
मंदिरों में जुटी भीड़ में
भक्ति भाव दिखते नहीं।
पंक्तियां तोड़-तोड़कर
दर्शन कर रहे,
वी आई पी पास बनवा कर
आगे बढ़ रहे।
पण्डित चढ़ावे की थाली देखकर
प्रसाद बांट रहे,
फिल्मी गीतों की धुनों पर
भजन बज रहे,
प्रायोजित हो गई हैं
प्रदर्शन और सजावट
बन गई है पूजा और भक्ति,
शब्दों से लड़ते हैं हम
इंसानियत को भूलकर
जी रहे।
सच्चाई की राह पर हम चलते नहीं।
इंसानियत की पूजा हम करते नहीं।
पत्थरों को जोड़-जोड़कर
कुछ पत्थरों के लिए लड़ मरते हैं।
पर किसी डूबते को
तिनका का सहारा
हम दे सकते नहीं।
शिक्षा के नाम पर पाखण्ड
बांटने से कतराते नहीं।
लेकिन शिक्षा के नाम पर
हम आगे आते नहीं।
कैसे बढ़ेगा देश आगे
जब तक
पिछले कुछ किस्से भूलकर
हम आगे आते नहीं।
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कड़वा सच पिलवाऊँगा
न मैंने पी है प्यारी
न मैंने ली है।
नई यूनिफ़ार्म
बनवाई है
चुनाव सभा के लिए आई है।
जनसभा से आया हूँ,
कुछ नये नारे
लेकर आया हूँ।
चाय नहीं पीनी है मुझको
जाकर झाड़ू ला।
झाड़ू दूँगा,
हाथ भी दिखलाऊँगा,
फूलों-सा खिल जाऊँगा,
साईकिल भी चलाऊँगा,
हाथी पर तुझको
बिठलाऊँगा,
फिर ढोलक बजवाऊँगा।
वहाँ तीर-कमान भी चलते हैं
मंजी पर बिठलाऊँगा।
आरी भी देखी मैंने
हल-बैल भी घूम रहे,
तुझको
क्या-क्या बतलाउँ मैं।
सूरज-चंदा भी चमके हैं
लालटेन-बल्ब
सब वहाँ लटके हैं।
चल ज़रा मेरे साथ
वहाँ सोने-चाँदी भी चमके है,
टाट-पैबन्द भी लटके हैं,
चल तुझको
असली दुनियाँ दिखलाऊँगा,
चाय-पानी भूलकर
कड़वा सच पिलवाऊँगा।
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मैं बहुत बातें करता हूं
मम्मी मुझको गुस्सा करतीं
पापा भी हैं डांट पिलाते
मैं बहुत बातें करता हूं
कहते-कहते हैं थक जाते
चिड़िया चीं-चीं-ची-चीं करती
कौआ कां-कां-कां-कां करता
टाॅमी दिन भर भौं-भौं करता
उनको क्यों नहीं कुछ भी कहते
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तेरा ख़याल
उदास कर जाता है तेरा ख़याल
यादों में ले जाता है तेरा ख़याल
यूँ लगता है मानों युग बीत गये
मिलन की आस है तेरा ख़याल