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जीवन की धार में
कुछ चमकते पल हैं
कुछ झिलमिलाती रोशनियां
कुछ अवलम्ब हैं
तो कुछ
एकाकीपन की झलकियां
स्मृतियों को संजोये
मन लेता अंगड़ाईयां
मन को विह्वल करती
बहती हैं पुरवाईयां
कुछ ठिठके-ठिठके से पल हैं
कुछ मन चंचल करती तन्हाईयां
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धागों का रिश्ता
कहने को कच्चे धागों का रिश्ता, पर मज़बूत बड़ा होता है
निःस्वार्थ भावों से जुड़ा यह रिश्ता बहुत अनमोल होता है
भाई यादों में जीता है जब बहना दूर चली चली जाती है
राखी-दूज पर मिलने आती है, तब आनन्द दूना होता है।
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बीहड़ वन आकर्षित करते हैं मुझे
कभी भीतर तक जाकर
देखे तो नहीं मैंने बीहड़ वन,
किन्तु ,
आकर्षित करते हैं मुझे।
कितना कुछ समेटकर रहते हैं
अपने भीतर।
गगन को झुकते देखा है मैंने यहां।
पल भर में धरा पर
उतर आता है।
रवि मुस्कुराता है,
छन-छनकर आती है धूप।
निखरती है, कण-कण को छूती है।
इधर-उधर भटकती है,
न जाने किसकी खोज में।
वृक्ष निःशंक सर उठाये,
रवि को राह दिखाते हैं,
धरा तक लेकर आते हैं।
धाराओं को
यहां कोई रोकता नहीं,
बेरोक-टोक बहती हैं।
एक नन्हें जीव से लेकर
विशाल व्याघ्र तक रहते हैं यहां।
मौसम बदलने से
यहां कुछ नहीं बदलता।
जैसा कल था
वैसा ही आज है,
जब तक वहां मानव का
प्रवेश नहीं होता।
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हमारी राहें ये संवारते हैं
यह उन लोगों का
स्वच्छता अभियान है
जो नहीं जानते
कि राजनीति क्या है
क्या है नारे
कहां हैं पोस्टर
जहां उनकी तस्वीर नहीं छपती
छपती है उन लोगों की छवि
जिनकी
छवि ही नहीं होती
कुछ सफ़ेदपोश
साफ़ सड़कों पर
साफ़ झाड़ू लगाते देखे जाते रहे
और ये लोग उनका मैला ढोते रहे।
प्रकृति भी इनकी परीक्षा लेती है,
तरू अरू पल्लव झरते हैं
एक नये की आस में
हम आगे बढ़ते हैं
हमारी राहें ये
संवारते हैं
और हम इन्हीं को नकारते हैं।
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सबके सपनों की गठरी बांधे
परदे में रहती थी पर परदे से बाहर की दुनिया समझाती थी मां
अक्षर ज्ञान नहीं था पर पढ़े-लिखों से ज्यादा ज्ञान रखती थी मां
सबके सपनों की गठरी बांधे, जाने कब सोती थी कब उठती थी
घर भर में फिरकी सी घूमती पल भर में सब निपटा लेती थी मां
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अपनी बत्ती गुल हो जाती है
बड़ा हर्ष होता है जब दफ्तर में बिजली गुल हो जाती है
काम छोड़ कर चाय-पानी की अच्छी दावत हो जाती है
इधर-उधर भटकते, इसकी-उसकी चुगली करते, दिन बीते
काम नहीं, वेतन नहीं, यह सुनकर अपनी बत्ती गुल हो जाती है
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धुआँ- धुआँ ज़िन्दगी
कुछ चेतावनियों के साथ
बेहिचक बिकता है
कोई भी, कहीं भी
पी ले
सुट्टा ले
हवा ले और हवाओं में ज़हर घोले
पूर्ण स्वतन्त्र हैं हम।
शानौ-शौकत का प्रतीक बन जाता है।
कहीं गम भुलाने के लिए
तो कहीं सर-दर्द मिटाने के लिए
कभी दोस्ती के लिए
तो कभी
देखकर मन ललचाता है
कुछ आधुनिक दिखने की चाहत
खींच ले जाती है
एकान्त में, छिपकर
फिर दिखाकर
और बाद में अकड़कर।
और जब तक समझ आता है
तब तक
धुआँ- धुआँ हो चुकी होती है ज़िन्दगी।
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धरा बिना आकाश नहीं
पंख पसारे चिड़िया को देखा
मन विस्तारित आकाश हुआ
मन तो करता है
पंछी-सा उन्मुक्त आकाश मिले
किन्तु
लौट धरा पर उतरूं कैसे,
कौन सिखलाएगा मुझको।
उंचा उड़ना बड़ा सरल है
पर कैसे जानूंगी फिर
धरा पर लौटूं कैसे मैं।
दूरी तो शायद पल भर की है
पर मन जब ऊंचा उड़ता है
दूर-दूर सब दिखता है
सब छोटे-छोटे-से लगते हैं
और अपना रूप नहीं दिखता
धरा बिना आकाश नहीं
पंछी तो जाने यह बात
बस हम ही भूले बैठें हैं यह।
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पर मूर्ख बहुत था रावण
कहते हैं दुराचारी था, अहंकारी था, पर मूर्ख बहुत था रावण
बहन के मान के लिए उसने दांव पर लगाया था सिंहासन
जानता था जीत नहीं पाउंगा, पर बहन का मान रखना था उसे
अपने ही कपटी थे, जानकर भी, दांव पर लगाया था सिंहासन
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ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक
वक्रतुण्ड , एकदन्त, चतुर्भुज, फिर भी रूप तुम्हारा मोहक है
शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै प्रिय भोज तुम्हारा मोदक है
ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक, क्षुद्र मूषक को सम्मान दिया
शिव गौरी के सुत, मां के वचन हेतु अपना मस्तक बलिदान किया
शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै जग का नित कल्याण किया
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प्रकृति है जीवन सौन्दर्य
रक्त पीत वर्ण में बासंती बयार फ़लक है।
आकर्षित करता तुम्हारा रूप दृष्टि ललक है।
न जाने कब छा जायें घटाएं, बदले मौसम,
जीवन के सौन्दर्य की यह बस एक झलक है।