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जिन्दगी
इतनी सरल सहज भी नहीं
कि जब चाहा
उठकर चहक लिए।
एक डर, एक खौफ़
के बीच घूमता है मन।
और यह डर
हर साये में है रहता है अब।
ज़्यादा सुरक्षा में भी
असुरक्षा का
एहसास सालने लगा है अब।
संदेह की दीवारें, दरारें
बहुत बढ़ गई हैं।
अपने-पराये के बीच का भेद
अब टालने लगा है मन।
किस वेश में कौन मिलेगा
पहचान भूलता जा रहा है मन।
हाथ से हाथ मिलाकर
चलने का रास्ता भूलने लगे हैं
और अपनी अपनी राह
चलने लगे हैं हम।
और जब मन में पसरता है
अपने ही भीतर का आतंकवाद
तब अकेलापन सालता है मन।
आने वाली पीढ़ी को
अपनेपन, शांति, प्रेम, भाईचारे का
पाठ नहीं पढ़ाते हम।
सिखाते हैं उसे
जीवन में कैसे रहना है डर डर कर
अविश्वास, संदेह और बंद तालों में
उसे जीना सिखाते हैं हम।
मुठ्ठियां कस ली हैं
किसी से मिलने-मिलाने के लिए
हाथ नहीं बढ़ाते हैं हम।
बस हर समय
अपने ही मन के
आतंक के साये में जीते हें हम।
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मेरी आंखों में आँसू देख
मुझसे
प्याज न कटवाया करो।
मुझे
प्याज के आँसू न रुलाया करो।
मेरी आंखों में आँसू देख
न मुस्कुराया करो।
खाना बनाने की
रोज़-रोज़
नई-नई
फ़रमाईशें न बताया करो।
रोज़-रोज़ मुझसे खाना बनवाते हो
कभी तो बनाकर खिलाया करो।
चलो, न बनाओ
तो बस
कभी तो हाथ बंटाया करो।
श्रृंगार किये बैठी थी मैं
कुछ तो
मुझ पर तरस खाया करो।
श्रृंगार का सामान मांगती हूँ
तब मँहगाई का राग न गाया करो।
मेरी आँसू देखकर
न जाने कितनी कहानियाँ बनेंगीं,
हँस-हँसकर मुझे न चिड़ाया करो।
शब्दों से न सही
भावों से ही
कभी तो प्रेम-भाव जतलाया करो।
रूठकर बैठती हूँ
कभी तो मनाने आ जाया करो।
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भीड़ पर भीड़-तंत्र
एक लाठी के सहारे
चलते
छोटे कद के
एक आम आदमी ने
कभी बांध ली थी
सारी दुनिया
अपने पीछे
बिना पुकार के भी
उसके साथ
चले थे
लाखों -लाखों लोग
सम्मिलित थे
उसकी तपस्या में
निःस्वार्थ, निःशंक।
वह हमें दे गया
एक स्वर्णिम इतिहास।
आज वह न रहा
किन्तु
उसकी मूर्तियाँ
हैं हमारे पास
लाखों-लाखों।
कुछ लोग भी हैं
उन मूर्तियों के साथ
किन्तु उसके
विचारों की भीड़
उससे छिटक कर
आज की भीड़ में
कहीं खो गई है।
दीवारों पर
अलंकृत पोस्टरों में
लटक रही है
पुस्तकों के भीतर कहीं
दब गई है।
आज
उस भीड़ पर
भीड़-तंत्र हावी हो गया है।
.
अरे हाँ !
आज उस मूर्ति पर
माल्यार्पण अवश्य करना।
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अपनापन
जब किसी अपने
या फिर
किसी अजनबी के साथ
समय का
अपनत्व होने लगता है,
तब जीवन की गाड़ी
सही पहियों पर
आप ही दौड़ने लगती है,
और गंतव्य तक
सुरक्षित
लेकर ही जाती है।
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नेह के मोती
अपने मन से,
अपने भाव से,
अपने वचनों से,
मज़बूत बांधी थी डोरी,
पिरोये थे
नेह के मोती,
रिश्तों की आस,
भावों का सागर,
अथाह विश्वास।
-
किन्तु
समय की धार
बहुत तीखी होती है।
-
अकेले
मेरे हाथ में नहीं थी
यह डोर।
हाथों-हाथ
घिसती रही
रगड़ खाती रही
गांठें पड़ती रहीं
और बिखरते रहे मोती।
और जब माला टूटती है
मोती बिखरते हैं
तो कुछ मोती तो
खो ही जाते हैं
कितना भी सम्हाल लें
बस यादें रह जाती हैं।
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आस्थाएं डांवाडोल हैं
किसे मानें किसे छोड़ें, आस्थाएं डांवाडोल हैं
करते पूजा-आराधना, पर कुण्ठित बोल हैं
अंधविश्वासों में उलझे, बाह्य आडम्बरों में डूबे,
विश्वास खण्डित, सच्चाईयां सब गोल हैं।
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ककहरा जान लेने से ज़िन्दगियां नहीं बदल जातीं
इस चित्र को देखकर सोचा था,
आज मैं भी
कोई अच्छी-सी रचना रचूंगी।
मां-बेटी की बात करूंगी।
लड़कियों की शिक्षा,
प्रगति को लेकर बड़ी-बड़ी
बात करूंगी।
पर क्या करूं अपनी इस सोच का,
अपनी इस नज़र का,
मुझे न तो मां दिखाई दी इस चित्र में,
किसी बेटी के लिए आधुनिकता-शिक्षा के
सपने बुनती हुई ,
और न बेटी एवरेस्ट पर चढ़ती हुई।
मुझे दिखाई दे रही है,
एक तख्ती परे सरकती हुई,
कुछ गुम हुए, धुंधलाते अक्षरों के साथ,
और एक छोटी-सी बालिका।
यहां कहां बेटी पढ़ाने की बात है।
कहां कुछ सिखाने की बात है।
नहीं है कोई सपना।
नहीं है कोई आस।
जीवन की दोहरी चालों में उलझे,
तख्ती, चाक और लिखावट
तो बस दिखावे की बात है।
एक ओर तो पढ़ ले,पढ़ ले,
का राग गा रहे हैं,
दूसरी ओर
इस छोटी सी बालिका को
सजा-धजाकर बिठा रहे हैं।
कोई मां नहीं बुनती
ऐसे हवाई सपने
अपनी बेटियों के लिए।
जानती है गहरे से,
ककहरा जान लेने से
ज़िन्दगियां नहीं बदल जातीं,
भाव और परम्पराएं नहीं उलट जातीं।
.
आज ही देख रही है ,
उसमें अपना प्रतिरूप।
.
सच कड़वा होता है
किन्तु यही सच है।
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गूंगी,बहरी, अंधी दुनिया
कान तो हम
पहले ही बन्द किये बैठे थे,
चलो आज आंख भी मूंद लेते हैं।
वैसे भी हमने अपने दिमाग से तो
कब का
काम लेना बन्द कर दिया है
और दिल से सोचना-समझना।
हर बात के लिए
दूसरों की ओर ताकते हैं।
दायित्वों से बचते हैं
एक ने कहा
तो किसी दूसरे से सुना।
किसी तीसरे ने देखा
और किसी चौथे ने दिखाया।
बस इतने से ही
अब हम
अपनी दुनिया चलाने लगे हैं।
अपने डर को
औरों के कंधों पर रखकर
बंहगी बनाने लगे हैं।
कोई हमें आईना न दिखाने लग जाये
इसलिए
काला चश्मा चढ़ा लिया है
जिससे दुनिया रंगीन दिखती है,
और हमारी आंखों में झांककर
कोई हमारी वास्तविकता
परख नहीं सकता।
या कहीं कान में कोई फूंक न मार दे
इसलिए “हैड फोन” लगा लिए हैं।
अब हम चैन की नींद सोते हैं,
नये ज़माने के गीत गुनगुनाते हैं।
हां , इतना ज़रूर है
कि सब बोल-सुन चुकें
तो जिसका पलड़ा भारी हो
उसकी ओर हम हाथ बढ़ा देते हैं।
और फिर चश्मा उतारकर
हैडफोन निकालकर
ज़माने के विरूद्ध
एक लम्बी तकरीर देते हैं
फिर एक लम्बी जम्हाई लेकर
फिर अपनी पुरानी
मुद्रा में आ जाते हैं।
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अहं सर्वत्र रचयिते : एक व्यंग्य
हम कविता लिखते हैं।
कविता को गज़ल, गज़ल को गीत, गीत को नवगीत, नवगीत को मुक्त छन्द, मुक्त छन्द को मुक्तक और चतुष्पदी बनाना जानते हैं। और इन सबको गद्य की विविध विधाओं में परिवर्तित करना भी जानते हैं।
अर्थात् , मैं ही लेखक हूँ, मैं ही कवि, गीतकार, गज़लकार, साहित्यकार, गद्य-पद्य की रचयिता, , प्रकाशक, मुद्रक, विक्रेता, क्रेता, आलोचक, समीक्षक भी मैं ही हूँ।
मैं ही संचालक हूँ, मैं ही प्रशासक हूँ।
सब मंचों पर मैं ही हूँ।
इस हेतु समय-समय पर हम कार्यशालाएँ भी आयोजित करते हैं।
अहं सर्वत्र रचयिते।
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पांच-सात क्या पी ली
जगती हूं,उठती हूं, फिर सोती हूं,मनमस्त हूं
घड़ी की सूईयों को रोक दिया है, अलमस्त हूं
पूरा दिन पड़ा है कर लेंगे सारे काम देर-सबेर
बस पांच-सात क्या पी ली,(चाय),मदमस्त हूं
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प्रश्न सुलझा नहीं पाती मैं
वैसे तो
आप सबको
बहुत बार बता चुकी हूँ
कि समझ ज़रा छोटी है मेरी।
आज फिर एक
नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ
मेरे सामने।
पता नहीं क्यों
बहुत छोटे-छोटे प्रश्न
सुलझा नहीं पाती मैं
इसलिए
बड़े प्रश्नों से तो
उलझती ही नहीं मैं।
जब हम छोटे थे
तब बस इतना जानते थे
कि हम बच्चे हैं
लड़का-लड़की
बेटा-बेटी तो समझ ही नहीं थी
न हमें
न हमारे परिवार वालों को।
न कोई डर था न चिन्ता।
पूजा-वूजा के नाम पर
ज़रूर लड़कियों की
छंटाई हुआ करती थी
किन्तु और किसी मुद्दे पर
कभी कोई बात
होती हो
तो मुझे याद नहीं।
अब आधुनिक हो गये हैं हम
ठूँस-ठूँसकर भरा जाता है
सोच में
लड़का-लड़की एक समान।
बेटा-बेटी एक समान।
किसी को पता हो तो
बताये मुझे
अलग कब हुए थे ये।