Share Me
जिन्दगी
इतनी सरल सहज भी नहीं
कि जब चाहा
उठकर चहक लिए।
एक डर, एक खौफ़
के बीच घूमता है मन।
और यह डर
हर साये में है रहता है अब।
ज़्यादा सुरक्षा में भी
असुरक्षा का
एहसास सालने लगा है अब।
संदेह की दीवारें, दरारें
बहुत बढ़ गई हैं।
अपने-पराये के बीच का भेद
अब टालने लगा है मन।
किस वेश में कौन मिलेगा
पहचान भूलता जा रहा है मन।
हाथ से हाथ मिलाकर
चलने का रास्ता भूलने लगे हैं
और अपनी अपनी राह
चलने लगे हैं हम।
और जब मन में पसरता है
अपने ही भीतर का आतंकवाद
तब अकेलापन सालता है मन।
आने वाली पीढ़ी को
अपनेपन, शांति, प्रेम, भाईचारे का
पाठ नहीं पढ़ाते हम।
सिखाते हैं उसे
जीवन में कैसे रहना है डर डर कर
अविश्वास, संदेह और बंद तालों में
उसे जीना सिखाते हैं हम।
मुठ्ठियां कस ली हैं
किसी से मिलने-मिलाने के लिए
हाथ नहीं बढ़ाते हैं हम।
बस हर समय
अपने ही मन के
आतंक के साये में जीते हें हम।
Share Me
Write a comment
More Articles
हम धीरे-धीरे मरने लगते हैं We just Start Dying Slowly
जब हम अपने मन से
जीना छोड़ देते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम
अपने मन की सुनना
बन्द कर देते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम अपने नासूर
कुरेद कर
दूसरों के जख़्म भरने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम अपने आंसुओं को
आंखों में सोखकर
दूसरों की मुस्कुराहट पर
खिलखिलाकर हँसते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम अपने सपनों को
भ्रम समझकर
दूसरों के सपने संजोने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम अपने सत्कर्मों को भूलकर
दूसरों के अपराधों का
गुणगान करने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम सवालों से घिरे
उत्तर देने से बचने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम सच्चाईयों से
टकराने की हिम्मत खो बैठते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
जब हम
औरों के झूठ का पुलिंदा लिए
उसे सत्य बनाने के लिए
घूमने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम कांटों में
सुगन्ध ढूंढने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम
दुनियादारी की कोशिश में
परायों को अपना समझने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम
विरोध की ताकत खो बैठते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम औरों के अपराध के लिए
अपने-आपको दोषी मानने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हमारी आँखें
दूसरों की आँखों से
देखने लगती हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हमारे कान
केवल वही सुनने लगते हैं
जो तुम सुनाना चाहते हो
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम केवल
इसलिए खुश रहने लगते हैं
कि कोई रुष्ट न हो जाये
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हमारी तर्कशक्ति
क्षीण होने लगती है
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हमारी विरोध की क्षमता
मरने लगती है
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम
नीम-करेले के रस को
शहद समझकर पीने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम
सपने देखने से डरने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम
अकारण ही
हँसते- हँसते रोने लगते हैं
और हँसते-हँसते रोने
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
हम बस यूँ ही
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
Share Me
वास्तविकता से परे
किसका संधान तू करने चली
फूलों से तेरी कमान सजी
पर्वतों पर तू दूर खड़ी
अकेली ही अकेली
किस युद्ध में तू तनी
कौन-सा अभ्यास है
क्या यह प्रयास है
इस तरह तू क्यों है सजी
वास्तविकता से परे
तेरी यह रूप सज्जा
पल्लू उड़ रहा, सम्हाल
बाजूबंद, करघनी, गजरा
मांगटीका लगाकर यूँ कैसे खड़ी
धीरज से कमान तान
आगे-पीछे देख-परख
सम्हल कर रख कदम
आगे खाई है सामने पहाड़
अब गिरी, अब गिरी, तब गिरी
या तो वेश बदल या लौट चल।
Share Me
स्मृतियों के खण्डहर
कुछ
अनचाही स्मृतियाँ
कब खंडहर बन जाती हैं
पता ही नहीं लग पाता
और हम
उन्हीं खंडहरों पर
साल-दर-साल
लीपा-पोती
करते रहते हैं
अन्दर-ही-अन्दर
दीमक पालते रहते हैं
देखने में लगती हैं
ऊँची मीनारें
किन्तु एक हाथ से
ढह जाती हैं।
प्रसन्न रहते हैं हम
इन खंडहरों के बारे में
बात करते हुए
सुनहरे अतीत के साक्षी
और इस अतीत को लेकर
हम इतने
भ्रमित रहते हैं
कि वर्तमान की
रोशनियों को
नकार बैठते हैं।
Share Me
करें किससे आशाएँ
मन में चिन्ताएँ सघन
मानों कानन में अगन
करें किससे आशाएँ
कैसे बुझाएँ ये तपन
Share Me
चैन से सो लेने दो
अच्छे-भले मुंह ढककर सो रहे थे यूं ही हिला हिलाकर जगा दिया
अच्छा-सा चाय-नाश्ता कराओं खाना बनाओ, हुक्म जारी किया
अरे अवकाश हमारा अधिकार है, चैन से सो लेने दो, न जगाओ
नींद तोड़ी हमारी तो मीडिया बुला लेंगे हमने बयान जारी किया
Share Me
किसकी टोपी किसका सिर
बचपन में कथा पढ़ी है,
टोपी वाला टोपी बेचे,
पेड़ के नीचे सो जाये।
बन्दर उसकी टोपी ले गये,
पेड़ पर बैठे उसे चिड़ायें।
टोपी पहने भागे जायें।
बन्दर थे पर नकल उतारें।
टोपी वाले ने आजमाया
अपनी टोपी फेंक दिखलाया।
बन्दरों ने भी टोपी फेंकी,
टोपी वाला ले उठाये।
.
हर पांच साल में आती हैं,
टोपी पहनाकर जाती हैं।
समझ आये तो ठीक
नहीं तो जाकर माथा पीट।
Share Me
भीड़-तन्त्र
आज दो किस्से हुए।
एक भीड़-तन्त्र स्वतन्त्र हुआ।
मीनारों पर चढ़ा आदमी
आज मस्त हुआ।
28 वर्ष में घुटनों पर चलता बच्चा
युवा हो जाता है,
अपने निर्णय आप लेने वाला।
लेकिन उस भीड़-तन्त्र को
कैसे समझें हम
जो 28 वर्ष पहले दोषी करार दी गई थी।
और आज पता लगा
कितनी निर्दोष थी वह।
हम हतप्रभ से
अभी समझने की कोशिश कर ही रहे थे,
कि ज्ञात हुआ
किसी खेत में
एक मीनार और तोड़ दी
किसी भीड़-तन्त्र ने।
जो एक लाश बनकर लौटी
और आधी रात को जला दी गई।
किसी और भीड़-तन्त्र से बचने के लिए।
28 वर्ष और प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
यह जानने के लिए
कि अपराधी कौन था,
भीड़-तन्त्र तो आते-जाते रहते हैं,
परिणाम कहां दे पाते हैं।
दूध की तरह उफ़नते हैं ,
और बह जाते हैं।
लेकिन कभी-कभी
रौंद भी दिये जाते हैं।
Share Me
विरोध से दुनिया नहीं चलती
ज़रा ज़रा सी बात पर अक्सर क्रोध करने लगी हूं मैं
किसी ने ज़रा सी बात कह दी तर्क करने लगी हूं मैं
विरोध से दुनिया नहीं चलती, सब समझाते हैं मुझे
समझाने वालों से भी इधर बहुत लड़ने लगी हूं मैं
Share Me
शब्दों से जलाने वाले
आग लगाने वाले यहां बहुत हैं
बिना आग सुलगाने वाले बहुत हैं
बुझाने की बात तो करना ही मत
शब्दों से जलाने वाले यहां बहुत हैं
Share Me
प्रकृति का सौन्दर्य चित्र
कभी-कभी सूरज
के सामने ही
बादल बरसने लगते हैं।
और जल-कण,
रजत-से
दमकने लगते हैं।
तम
खण्डित होने लगता है,
घटाएं
किनारा कर जाती हैं।
वे भी
इस सौन्दय-पाश में
बंध दर्शक बन जाती हैं।
फिर
मानव-मन कहां
तटस्थ रह पाता है,
सरस-रस से सराबोर
मद-मस्त हो जाता है।