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ऐसा अक्सर क्यों होता है
कि हम
अपनी इच्छाओं,
आकांक्षाओं का
मान नहीं करते
और,
औरों के चेहरे निरखते हैं
कि उन्हें हमसे क्या चाहिए।
.
मेरी इच्छाओं का सागर
अपार है।
अनन्त हैं उसमें लहरें,
किलोल करती हैं
ज्वार-भाटा उठता है,
तट से टकरा-टकराकर
रोष प्रकट करती हैं,
सारी सीमाएं तोड़कर
पूर्णता की आकांक्षा लिए
बार-बार बढ़ती हैं
उठती हैं, गिरती हैं
फिर आगे बढ़ती हैं।
.
अपने मन के गुलाम नहीं बनेंगे
तो पूर्णता की आकांक्षा पूरी कैसे होगी ?
.
अपने मन की गुलामी से बड़ी
कोई सफ़लता नहीं जीवन में।
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More Articles
नेताजी का आसन
नेताजी ने कुर्सी त्याग दी
और भूमि पर आसन बिछाकर बैठ गये।
हमने पूछा, ऐसा क्यों किया आपने।
वैसे तो हमें पता है,
कि आपकी औकात ज़मीन की ही है,
किन्तु
कुर्सी त्यागना तो बहुत महानता की बात है,
कैसे किया आपने यह साहस।
नेताजी मुस्कुराये, बोले,
क्या तुम्हें भी बताना पड़ेगा,
कि कुर्सी की चार टांगे होती हैं
और इंसान की दो।
कोई भी, कभी भी पकड़कर
कोई-सी भी टांग खींच देता था।
अब हम भूमि पर, आसन जमाकर
पालथी मारकर बैठ गये हैं,
कोई दिखाये हमारी टांग खींचकर।
समझदारी की बात यह
कि कुर्सी के पीछे
तो लोग भागते-छीनते दिखाई देते हैं,
कभी आपने देखा है किसी को
आसन छीनते।
अब गांधी जी भी तो
भूमि पर आसन जमाकर ही बैठते थे,
कोई चला उनकी राह पर
आज तक मांगा उनका आसन किसी ने क्या।
नहीं न !
अब मैं नेताजी को क्या समझाती,
गांधी जी का आसन तो उनके साथ ही चला गया।
और नेताजी आपका आसन ,
आधुनिक भारतीय राजनीति का आसन है,
आप पालथी मारे यूं ही बैठे रह जायेंगे,
और जनता कब आपके नीचे से
आपका आसन खींचकर चलती बनेगी,
आपको पता भी नहीं चलेगा।
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इंसानों से काम करेंगें
इंसानों में रहते हैं तो इंसानों से काम करेंगें
आग जलाई तुमने हम सेंककर शीत हरेंगे
बाहर झड़ी लगी है, यहीं बितायेंगे दिन-रात
यहीं बैठकर रोटी-पानी खाकर पेट भरेंगे।
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आदरणीय शिव जी पर एक रचना
कुछ कथाएं
मुझे कपोल-कल्पित लगती हैं
एक आख्यान
किसी कवि-कहानीकार की कल्पना
किसी बीते युग का
इतिहास का पुर्नआख्यन,
कहानी में कहानी
कहानी में कहानी और
फिर कहानी में कहानी।
जाने-अनजाने
घर कर गई हैं हमारे भीतर
इतने गहरे तक
कि समझ-बूझ से परे हो जाती हैं।
** ** ** **
भूत-पिचाश हमारे भीतर
बुद्धि पर भभूत चढ़ी है,
विषधर पाले अपने मन में
नर-मुण्डों-सा भावहीन मन है।
वैरागी की बातें करते
लूट-खसोट मची हुई है।
आंख-कान सब बंद किये हैं
गौरी, सुता सब डरी हुई हैं।
त्रिपुरारी, त्रिशूलधारी की बातें करते
हाथों में खंजर बने हुए हैं।
गंगा की तो बात न करना
भागीरथी रो रही है।
डमरू पर ताण्डव करते
यहां सब डरे हुए हैं।
** ** ** **
फिर कहते
शिव-शिव, शिव-शिव,
शिव-शिव, शिव-शिव।
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सावन की बातें मनभावन की बातें
वो सावन की बातें, वो मनभावन की बातें, छूट गईं।
वो सावन की यादें, वो प्रेम-प्यार की बातें, भूल गईं।
मन डरता है, बरसेगा या होगा महाप्रलय कौन जाने,
वो रिमझिम की यादें, वो मिलने की बातें, छूट गईं ।
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बेटी दिवस पर एक रचना
बेटियों के बस्तों में
किताबों के साथ
रख दी जाती हैं कुछ सतर्कताएं,
कुछ वर्जनाएं,
कुछ आदेश, और कुछ संदेश।
डर, चिन्ता, असुरक्षा की भावना,
जिन्हें
पैदा होते ही पिला देते हैं
हम उन्हें
घुट्टी की तरह।
बस यहीं नहीं रूकते हम।
और बोझा भरते हैं हम,
परम्पराओं, रीति-रिवाज़
संस्कार, मान्यताओं,
सहनशीलता और चुप्पी का।
इनके बोझ तले
दब जाती हैं
उनकी पुस्तकें।
कक्षाएं थम जाती हैं।
हम चाहते हैं
बेटियां आगे बढ़ें,
बेटियां खूब पढें,
बेबाक, बिन्दास।
पर हमारा नज़र रहती है
हर समय
बेटी की नज़र पर।
जैसे ही कोई घटना
घटती है हमारे आस-पास,
हम बेटियों का बस्ता
और भारी कर देते हैं,
और भारी कर देते हैं।
कब दब जाती हैं,
उस भार के नीचे,
सांस घुटती है उनकी,
कराहती हैं,
बिलखती हैं
आज़ादी के लिए
पर हम समझ ही नहीं पाते
उनका कष्ट,
इस अनचाहे बोझ तले,
कंधे झुक जाते हैं उनके,
और हम कहते हैं,
देखो, कितनी विनम्र
परम्परावदी है यह।
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अपनी आवाज़ अपने को सुनाती हूं मैं
मन के द्वार
खटखटाती हूं मैं।
अपनी आवाज़
अपने को सुनाती हूं मैं।
द्वार पर बैठी
अपने-आपसे
बतियाती हूं मैं।
इस एकान्त में
अपने अकेलपन को
सहलाती हूं मैं।
द्वार उन्मुक्त हों या बन्द,
कहानी कहां बदलती है जीवन की,
सहेजती हूं कुछ स्मृतियां रंगों में,
कुछ को रंग देती हूं,
आकार देती हूं,
सौन्दर्य और आभास देती हूं।
जीवन का, नवजीवन का
भास देती हूं।
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आई दुल्हन
पायल पहले रूनझुन करती आई दुल्हन।
कंगन बजते, हार खनकते, आई दुल्हन।
श्रृंगार किये, सबके मन में रस बरसाती]
घर में खुशियों के रंग बिखेरे आई दुल्हन।
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वक्त कब कहां मिटा देगा
वक्त कब क्यों बदलेगा कौन जाने
वक्त कब बदला लेगा कौन जाने
संभल संभल कर कदम रखना ज़रा
वक्त कब कहां मिटा देगा कौन जाने
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अन्तर्मन का पंछी
अन्तर्मन का पंछी
कब क्या बोले,
क्या जानें।
कुछ टुक-टुक
कुछ कुट-कुट
कुछ उलझे, कुछ सुलझे
किससे क्या कह डाले
कब क्या सुन ले
आैर किससे क्या कह डाले
क्या जानें।
यूं तो पोथी-पोथी पढ़ता
आैर बात नासमझों-सी करता।
कब किसका चुग्गा
चुग डाले
आैर कब
माणिक –मोती ठुकराकर चल दे
क्या जाने।
भावों की लेखी
लिख डाले
किस भाषा में
किन शब्दों में
न हम जानें।
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ठहरी-ठहरी-सी है ज़िन्दगी
सपनों से हम डरने लगे हैं।
दिल में भ्रम पलने लगे हैं ।
ठहरी-ठहरी-सी है ज़िन्दगी
अपने ही अब खलने लगे हैं।