Share Me
अपनों का साथ हो
सपनों का राग हो
सम्बन्धों का उन्माद हो
सबसे संवाद हो
मन बाग बाग हो
जीवन में राग राग हो
मधुर मधुर तान हो
भावों में अनुराग हो
मलिनता मिट जाए
दूरियां सिमट जाएं
रिश्तों की गरिमा हो
अपनों की महिमा हो
विश्वास की दमक हो
अपनेपन की महक हो
सहज सहज जीवन हो
सरल पावन मन हो
मन से मन का मिलन हो
न द्वेष का राग हो,
न सत्य से विराग हो
जीवन की सुंदर कहानी हो
अपनों की जु़बानी हो
जगमग जगमग संसार हो
खुशियां अपार हों
पर्वों की सी हरदम आहट हो
बस मन का दीप प्रज्वलित हो।
Share Me
Write a comment
More Articles
चाहिए अब एक शंखनाद
हमें स्मरण हैं
कृष्ण की अनेक कथाएं
उनकी बाल लीलाएं
माखन चुराना, वन में गैया घुमाना
बाल-गोपाल संग हंसना-बतियाना
गोपियों संग ठिठोलियां
रासलीला की अठखेलियां
और यशोदा मैया को सताना।
और कभी बस पूतना-वध,
कंस-वध, नाग-मर्दन
अथवा गोवर्धन धारण को स्मरण करके
हम वंदन कर लेते हैं।
लेकिन क्यों नहीं स्मरण करते हम
कि कृष्ण ने पांचजन्य से
उद्घोष किया था
एक युद्ध के आह्वान का
बुराई के विरूद्ध अच्छाई का।
अन्याय के विरूद्ध न्याय का।
विश्व की मंगल कामना का।
एक अन्यायमुक्त समाज की स्थापना का।
हमें तो बस आदत हो गई है
पर्वों में डूबे रहने की
उत्सव ही उत्सव मनाने की
बस कोई एक बहाना चाहिए।
और यही संस्कार हम
अपनी अगली पीढ़ी को दे रहे हैं
हां, यह और बात है कि
उनके उत्सव मनाने के तरीके बदल गये हैं।
फिर हम किस अधिकार से
दोषारोपण कर सकते हैं किसी पर
अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार, शोषण
या अधिकारों के दुरूपयोग का।
अब शंख एक संग्रहणीय वस्तु बन कर रह गये हैं।
वैसे भी हम मुंह सिले और कान बन्द किये बैठे हैं
कि कहीं किसी पांचजन्य के उद्घोष
का आह्वान न हो
और किसी अन्य के शंखनाद की ध्वनि भी
हमारे कानों तक न पहुंचे
और कहीं हमारे उत्सवों में बाधा न आये।
Share Me
बस जीवन बीता जाता है
सब जीवन बीता जाता है ।
कुछ सुख के कुछ दुख के
पल आते हैं, जाते हैं,
कभी धूप, कभी झड़़ी ।
कभी होती है घनघोर घटा,
तब भी जीवन बीता जाता है ।
कभी आस में, कभी विश्वास में,
कभी घात में, कभी आघात में,
बस जीवन बीता जाता है ।
हंसते-हंसते आंसू आते,
रोते-रोते खिल-खिल करते ।
चढ़़ी धूप में पानी गिरता,
घनघोर घटाएं मन आतप करतीं ।
फिर भी जीवन बीता जाता है ।
नित नये रंगों से जीवन-चित्र संवरता
बस यूं ही जीवन बीता जाता है ।
Share Me
शायद प्यार से मन मिला नहीं था
यूं तो उनसे कोई गिला नहीं था
यादों का कोई सिला नहीं था
कभी-कभी मिल लेते थे यूं ही
शायद प्यार से मन मिला नहीं था
Share Me
बेकरार दिल
दिल हो रहा बड़ा बेकरार
बारिश हो रही मूसलाधार
भीग लें जी भरकर आज
न रोक पाये हमें तेज़ बौछार
Share Me
बालपन को जी लें
अपनी छाया को पुकारा, चल आ जा बालपन को फिर से जी लें
यादों का झुरमुट खोला, चल कंचे, गोली खेलें, पापड़, इमली पी लें
कैसे कैसे दिन थे वे सड़कों पर छुपन छुपाई, गुल्ली डंडा खेला करते
वो निर्बोध प्यार की हंसी ठिठोली, चल उन लम्हों को फिर से जी लें
Share Me
कोई बात ही नहीं
आज तो कोई बात ही नहीं है बताने के लिए
बस यूँ ही लिख रहे हैं कुछ जताने के लिए
दर्दे-दिल की बात तो अब हम करते ही नहीं
वे झट से आँसू बहाने लगते हैं दिखाने के लिए।
Share Me
अजीब होती हैं ये हवाएँ भी
अजीब होती हैं
ये हवाएँ भी।
बहुत रुख बदलती हैं
ये हवाएँ भी।
फूलों से गुज़रती
मदमाती हैं
ये हवाएँ भी।
बादलों संग आती हैं
तो झरती-झरती-सी लगती हैं
ये हवाएँ भी।
मन उदास हो तो
सर्द-सर्द लगती हैं
ये हवाएँ भी।
और जब मन में झड़ी हो
तो भिगो-भिगो जाती हैं
ये हवाएँ भी।
क्रोध में बहुत बिखरती हैं
ये हवाएँ भी।
सागर में उठते बवंडर-सा
भीतर ही भीतर
सब तहस-नहस कर जाती हैं
ये हवाएं भी।
इन हवाओं से बचकर रहना
बहुत आशिकाना होती हैं
ये हवाएँ भी।
Share Me
सुनो, एकान्त का मधुर-मनोहर स्वर
सुनो,
एकान्त का
मधुर-मनोहर स्वर।
बस अनुभव करो
अन्तर्मन से उठती
शून्य की ध्वनियां,
आनन्द देता है
यह एकाकीपन,
शान्त, मनोहर।
कितने प्रयास से
बिछी यह श्वेत-धवल
स्वर लहरी
मानों दूर कहीं
किसी
जलतरंग की ध्वनियां
प्रतिध्वनित हो रही हों
उन स्वर-लहरियों से
आनन्दित
झुक जाते हैं विशाल वृक्ष
तृण भारमुक्त खड़े दिखते हैं
ऋतु बांध देती है हमें
जताती है
ज़रा मेरे साथ भी चला करो
सदैव मनमानी न करो
आओ, बैठो दो पल
बस मेरे साथ
बस मेरे साथ।
Share Me
मतदान मेरा कर्त्तव्य भी है
मतदान मेरा अधिकार है
पर किसने कह दिया
कि ज़िम्मेदारी भी है।
हां, अधिकार है मेरा मतदान।
पर कौन समझायेगा
कि अधिकार ही नहीं
कर्त्तव्य भी है।
जिस दिन दोनों के बीच की
समानान्तर रेखा मिट जायेगी
उस दिन मतदान सार्थक होगा।
किन्तु
इतना तो आप भी जानते ही होंगें
कि समानान्तर रेखाएं
कभी मिला नहीं करतीं।
Share Me
करिये योग भगाये रोग
कैसी विडम्बना एवं आश्चर्य की बात है कि जिस योग पद्धति का उल्लेख हमारे प्राचीनतम ग्रंथों ऋग्वेद एवं कठोपनिषद ग्रंथों में मिलता है, जो ईसा पूर्व के ग्रंथ हैं, उस प्राचीनतम योग पद्धति को हम आज प्रदर्शन के रूप में योगा डे के रूप में मना रहे हैं। पतंजलि का योगसूत्र योग का सबसे महत्वपूर्ण गं्रथ है। अन्य अनेक ग्रंथों में भी योग की परिभाषाएँ महत्व एवं क्रियाएँ उल्लिखित हैं। योग केवल एक शारीरिक क्रिया नहीं है, अपितु एक मानसिक, चिकित्सीय पद्धति भी है।
वर्तमान में हम इस बात से ज़्यादा प्रसन्न नहीं हैं कि एक हमारी प्राचीनतम योग पद्धति जो लुप्त हो रही थी, पुनः प्रकाश में आई है, हमारे जीवन का हिस्सा बनने लगी है, उसके गुणों को हम अपने जीवन में उतारने में लगे हैं बल्कि हम इस बात की ज़्यादा खुशियाँ मनाने में लगे हैं कि देखिए हमारा योगा अब विश्व में मनाया जाने लगा है। हमारे योगा का अब अन्तर्राष्ट्रीय दिवस है।
यदि सत्य को समझने का साहस रखते हों तो आज भी योग हमारे दैनिक जीवन का, नित्यप्रति का हिस्सा नहीं बन सका है। चाहे विद्यालयों में यह एक विषय के रूप में पढ़ाया जाने लगा है किन्तु बच्चे भी इसे एक विषय के रूप में ही लेते हैं न कि दैनिक जीवन की एक अपरिहार्य क्रिया के रूप में, जीवन-शैली के रूप में अथवा चिकित्सा-पद्धति के रूप में। बड़े-बुजुर्ग पार्क में एकत्र होकर अनुलोम-विलोम आदि करते दिखाई दे जायेंगे अथवा एक-दो और क्रियाएँ , और हमारा योगा डे सम्पन्न हो जाता है।
21 जून को सड़कों पर छपी टी-शर्ट पहने, बढ़िया-सी चटाई बिछाये और बाद में कुछ खान-पानी ही योगा-डे की उपलब्धि बनकर रह जाते हैं।
हमारे प्राचीन ग्रंथों में योग का जो महत्व दर्शाया गया है एवं क्रियाएँ बताईं गईं हैं हम उनसे अभी भी बहुत-बहुत दूर हैं। आवश्यकता है प्रत्येक स्तर पर प्रयास की, अभ्यास की, सम्मान की और इसे अपने दैनिन्दन जीवन का हिस्सा बनाने की। योग को उचित रूप में जीवन का हिस्सा बनाने से निश्चित रूप से आधुनिक जीवन शैली से उत्पन्न मानसिक, शारीरिक एवं अने मनोवैज्ञानिक समस्याओं का समाधान हो पायेगा।