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अब तो हमको भी आनन-फ़ानन में कविता लिखना आ गया
बिना लय-ताल के प्रदत्त शीर्षक पर गीत रचना आ गया
जानते हैं सब वाह-वाह करके किनारा कर लेते हैं बिना पढ़े
मंचों पर बने रहने के लिए हमें भी यह सब करना आ गया
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हम सब तो बस बन्दर हैं
नाचते तो सभी हैं
बस
इतना ही पता नहीं लगता
कि डोरी किसके हाथ में है।
मदारी कौन है और बन्दर कौन।
बहुत सी गलतफहमियां रहती हैं मन में।
खूब नाचते हैं हम
यह सोच कर , कि देखों
कैसा नाच नचाया हमने सामने वाले को।
लेकिन बहुत बाद में पता लगता है कि
नाच तो हम ही रहे थे
और सामने वाला तो तमाशबीन था।
किसके इशारे पर
कब कौन नाचता है
और कौन नचाता है पता ही नहीं लगता।
इशारे छोड़िए ,
यहां तो लोग
उंगलियों पर नचा लेते हैं
और नाच भी लेते हैं।
और भक्त लोग कहते हैं
कि डोरी तो उपर वाले के हाथ में है
वही नचाता है
हम सब तो बस बन्दर हैं।
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शिकायतों का पुलिंदा
शिकायतों का
पुलिंदा है मेरे पास।
है तो सबके पास
बस सच बोलने का
मेरा ही ठेका है।
काश!
कि शिकायतें
आपसे होतीं
किसी और से होतीं,
इससे-उससे होतीं,
तब मैं कितनी प्रसन्न होती,
बिखेर देती
सारे जहाँ में।
इसकी, उसकी
बुराईयाँ कर-कर मन भरती।
किन्तु
क्या करुँ
सारी शिकायतें
अपने-आपसे ही हैं।
जहाँ बोलना चाहिए
वहाँ चुप्पी साध लेती हूँ
जहाँ मौन रहना चाहिए
वहाँ बक-झक कर जाती हूँ।
हँसते-हँसते
रोने लग जाती हूँ,
रोते-रोते हँस लेती हूँ।
न खड़े होने का सलीका
न बैठने का
न बात करने का,
बहक-बहक जाती हूँँ
मन कहीं टिकता नहीं
बस
उलझी-उलझी रह जाती हूँ।
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दुनिया कहती है
काश !
लौट आये
अट्ठाहरवीं शती ।
गोबर सानती,
उपले बनाती,
लकडि़या चुन,ती
वन-वन घूमती ।
पांच हाथ घूंघट ओढ़ती,
गागर उठा कुंएं से पानी लाती,
बस रोटियां बनाती,
खिलाती और खाती।
रोटियां खाती, खिलाती और बनाती।
सच ! कितनी सही होती जि़न्दगी।
-
दुनिया कहती है
बाकी सब तो मर्दों के काम हैं।
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मेरा प्रवचन है
इस छोटी सी उम्र में ही
जान ले ली है मेरी।
बड़ी बड़ी बातें सिखाते हैं
जीवन की राहें बताते हैं
मुझे क्या बनना है जीवन में
सब अपनी-अपनी राय दे जाते हैं।
और न जाने क्या क्या बताते-समझाते हैं।
इस छोटी सी उम्र में ही
एक नियमावली है मेरे लिए
उठने , बैठने, सोने, खाने-पीने की
पढ़ने और अनेक कलाओं में
पारंगत होने की।
अरे !
ज़रा मेरी उम्र तो देखो
मेरा कद, मेरा वजूद तो देखो
मेरा मजमून तो देखो।
किसे किसे समझाउं
मेरे खेलने खाने के दिन हैं।
देख रहे हैं न आप
अभी से मेरे सिर के बाल उड़ गये
आंखों पर चश्मा चढ़ गया।
तो
मैंने भी अपना मार्ग चुन लिया है।
पोथी उठा ली है
धूनी रमा ली है
शाम पांच बजे
मेरा प्रवचन है
आप सब निमंत्रित हैं।
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पूछती है मुझसे मेरी कलम
राष्ट्र भक्ति के गीत लिखने के लिए कलम उठाती हूं जब जब
पूछती है मुझसे मेरी कलम, देश हित में तूने क्या किया अब तक
भ्रष्ट्राचार, झूठ, रिश्वतखोरी,अनैतकिता के विरूद्ध क्या लड़ी कभी
गीत लिखकर महान बनने की कोशिश करोगे कवि तुम कब तक
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कुछ अच्छा लिखने की चाह
कुछ अच्छा लिखने की चाह में
हर बार कलम उठाती हूं
किन्तु आज तक नहीं समझ पाई
शब्द कैसे बदल जाते हैं
किन आकारों में ढल जाते हैं
प्रेम लिखती हूं
हादसे बन जाते हैं।
मानवता लिखती हूँ
मौत दिखती है।
काली स्याही लाल रंग में
बदल जाती है।
.
कलम को शब्द देती हूँ
भाईचारा, देशप्रेम,
साम्प्रदायिक सौहार्द
न जाने कैसे बन्दूकों, गनों
तोपों के चित्र बन जाते हैं।
-
कलम को समझाती हूं
चल आज धार्मिक सद्भाव की बात करें
किन्तु वह फिर
अलग-अलग आकार और
सूरतें गढ़ने लगती है,
शब्दों को आकारों में
बदलने लगती है।
.
हार नहीं मानती मैं,
कलम को फिर पकड़ती हूँ।
सच्चाई, नैतिकता,
ईमानदारी के विचार
मन में लाती हूँ।
किन्तु न जाने कहां से
कलम अरबों-खरबों के गणित में
उलझा जाती है।
.
हारकर मैंने कहा
चल भारत-माता के सम्मान में
गीत लिखें।
कलम हँसने लगी,
चिल्लाने लगी,
चीत्कार करने लगी।
कलम की नोक
तीखे नाखून-सी लगी।
कागज़
किसी वस्त्र का-सा
तार-तार होने लगा
मन शर्मसार होने लगा।
मान-सम्मान बुझने लगा।
.
हार गई मैं
किस्सा रोज़ का था।
कहां तक रोती या चीखती
किससे शिकायत करती।
धरती बंजर हो गई।
मैं लिख न सकी।
कलम की स्याही चुक गई।
कलम की नोक मुड़ गई ,
कुछ अच्छा लिखने की चाह मर गई।
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घुमक्कड़ हो गया है मन
घुमक्कड़ हो गया है मन
बिन पूछे बिन जाने
न जाने
निकल जाता है कहां कहां।
रोकती हूं, समझाती हूं
बिठाती हूं , डराती हूं, सुलाती हूं।
पर सुनता नहीं।
भटकता है, इधर उधर अटकता है।
न जाने किस किस से जाकर लग जाता है।
फिर लौट कर
छोटी छोटी बात पर
अपने से ही उलझता है।
सुलगता है।
ज्वालामुखी सा भभकता है।
फिर लावा बहता है आंखों से।
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धन-दौलत जीवन का आधार
धन-दौलत पर दुनिया ठहरी, धन-दौलत से चलती है
जीवन का आधार है यह, सुच्ची रोटी इसी से बनती है
छल है, मोह-माया है, चाह नहीं, कहने की बातें हैं
नहीं हाथ की मैल है यह, श्रम से सबको फलती है।
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पंखों की उड़ान परख
पंखों की उड़ान परख
गगन परख, धरा निरख ।
तुझको उड़ना सिखलाती हूं,
आशाओं के गगन से
मिलवाना चाहती हूं,
साहस देती हूं,
राहें दिखलाती हूं।
जीवन में रोशनी
रंगीनियां दिखलाती हूं।
पर याद रहे,
किसी दिन
अनायास ही
एक उछाल देकर
हट जाउंगी
तेरी राहों से।
फिर अपनी राहें
आप तलाशना,
जीवन भर की उड़ान के लिए।
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ऐसा अक्सर होता है
ऐसा अक्सर होता है जब हम रोते हैं जग हंसता है
ऐसा अक्सर होता है हम हंसते हैं जग ताने कसता है
न हमारी हंसी देख सकते हो न दुख में साथ होते हो
दुनिया की बातों में आकर मन यूँ ही फ़ँसता है।