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भूल-भुलैया की इक नगरी होती
इसकी-उसकी बात न होती
सुबह-शाम कोई बात न होती
हर दिन नई मुलाकात तो होती
इसने ऐसा, उसने वैसा
ऐसे कैसे, वैसे कैसे
कोई न कहता।
रोज़ नई-नई बात तो होती
गिले-शिकवों की गली न होती,
चाहे राहें छोटी होतीं
या चौड़ी-चौड़ी होतीं
बस प्रेम-प्रीत की नगरी होती
इसकी-उसकी, किसकी कैसे
ऐसी कभी कोई बात न होती
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हां हूं मैं बगुला भक्त
यह हमारी कैसी प्रवृत्ति हो गई है
कि एक बार कोई धारणा बना लेते हैं
तो बदलते ही नहीं।
कभी देख लिया होगा
किसी ने, किसी समय
एक बगुले को, एक टांग पर खड़ा
मीन का भोजन ढूंढते
बस उसी दिन से
हमने बगुले के प्रति
एक नकारात्मक सोच तैयार कर ली।
बीच सागर में
एक टांग पर खड़ा बगुला
इस विस्तृत जल राशि
को निहार रहा है
एकाग्रचित्त, वासी,
अपने में मग्न ।
सोच रहा है
कि जानते नहीं थे क्या तुम
कि जल में मीन ही नहीं होती
माणिक भी होते हैं।
किन्तु मैंने तो
अपनी उदर पूर्ति के लिए
केवल मीन का ही भक्षण किया
जो तुम भी करते हो।
माणिक-मोती नहीं चुने मैंने
जिनके लिए तुम समुद्र मंथन कर बैठते हो।
और अपने भाईयों से ही युद्ध कर बैठते हो।
अपने ही भ्राताओं से युद्ध कर बैठे।
किसी प्रलोभन में नहीं रहा मैं कभी।
बस एक आदत सी थी मेरी
यूं ही खड़ा होना अच्छा लगता था मुझे
जल की तरलता को अनुभव करता
और चुपचाप बहता रहता।
तुमने भक्त कहा मुझे
अच्छा लगा था
पर जब इंसानों की तुलना के लिए
इसे एक मुहावरा बना दिया
बस उसी दिन आहत हुआ था।
पर अब तो आदत हो गई है
ऐसी बातें सुनने की
बुरा नहीं मानता मैं
क्योंकि
अपने आप को भी जानता हूं
और उपहास करने वालों को भी
भली भांति पहचानता हूं।
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अमूल्य धन
कुछ हँसती, खिलखिलाती, गुनगुनाती स्मृतियाँ अनायास मानस पटल पर आयें, अच्छा लगता है। इन सिक्कों को देखकर सालों-साल पुरानी एक घटना मानस-पटल पर उभर आई।
वर्ष 1974
एम.ए. का प्रथम वर्ष।
उस समय इन सिक्कों का कितना महत्व होता था यह तो आप भी जानते ही होंगे। रुपये खर्च करना तो बहुत बड़ी बात हुआ करती थी। जेब-खर्च के लिए भी पचास पैसे, ज़्यादा से ज़्यादा एक रुपया जो बहुत बड़ी बात हुआ करती थी, लेकर घर से निकलते थे। पांच रुपये में तीन महीने का लोकल पास बनता था, शिमला रेलवे स्टेशन से समरहिल का, जहाँ हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय है।
मैं हिन्दी में एम. ए. और कर रही थी और मेरी एक सखी संस्कृत में। हमें ज्ञात हुआ कि बी.ए. के विषयानुसार विश्वविद्यालय में अधिकतम अंक प्राप्त होने के कारण हम दोनों को 150 रूपये मासिक छात्रवृत्ति मिलेगी।
हमारे लिए तो जैसे यह कुबेर का खजाना था। 6-6 महीने की राशि एकसाथ मिलनी थी। हमें कार्यालय से 900-900 रुपये के चैक मिले। पहले तो वे ही हमारे लिए एक अद्भुत अमूल्य पत्र थे, जिसे हम ऐसे देख और सम्हाल रहे थे मानों कहीं हाथ लगने से भी गल न जायें।
उपरान्त हम दोनों विश्वविद्याय परिसर में ही स्थित भारतीय स्टेट बैंक की शाखा में डरते-डरते गईं।
वहाँ के कर्मचारियों का शायद हम जैसे विद्यार्थियों से सामना होता ही होगा। हम दोनों कांउटर पर डरते-डरते गईं और कहा कि पैसे लेने हैं। हम दोनों ने चैक उनके सामने रख दिये।
कर्मचारी हमारी उत्तेजना और उत्सुकता भांप गया और पूछा कौन से पैसे चाहिए आपको?
हम दोनों ही अचानक बोल बैठीं, रेज़गारी दे दीजिए।
रेज़गारी? 900 रुपये की?
और क्या, लेकर निकलेंगे तो किसी को पता तो लगेगा कि हमें छात्रवृत्ति मिली है, कोई तो पूछेगा कि आपके पास यह क्या है?
कर्मचारी हँसने लगा 1800 रुपये की रेज़गारी तो हमारे पास नहीं है, यदि यही चाहिए तो आप डिमांड दे जाईये, रिज़र्व बैंक से मंगवा देंगे।
नहीं, नहीं, आप नोट ही दे दीजिए।
और इस तरह हम 900-900 रूपये के नोट लेकर वहाँ से सीधे माल रोड आ गईं। उस समय नोट भी बड़े आकार के होते थे।
दो घंटे से भी ज़्यादा समय तक मालरोड के चक्कर काटे, कितने अपने मिले, लेकिन किसी ने हमारे मन की बात नहीं पूछी।
मालरोड पर जो भी परिचित मिले, हम यहीं सोचें कि यह ज़रूर पूछेंगे कि भई आपके बैग आज भारी लग रहे हैं क्या है इनमें।
लेकिन किसी ने नहीं पूछा। और हम घर लौट आईं, मायूस, उदास। छात्रवृत्ति मिलने का सारा आनन्द किरकिरा हो गया।
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भाग-दौड़ में बीतती ज़िन्दगी
कभी अपने भी यहां क्यों अनजाने लगे
जीवन में अकारण बदलाव आने लगे
भाग-दौड़ में कैसे बीतती रही ज़िन्दगी
जी चाहता है अब तो ठहराव आने लगे
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बस प्यार किया जाता है
मन है कि
आकाश हुआ जाता है
विश्वास हुआ जाता है
तुम्हारे साथ
एक एहसास हुआ जाता है
घनघारे घटाओं में
यूं ही निराकार जिया जाता है
क्षणिक है यह रूप
भाव, पिघलेंगे
हवा बहेगी
सूरत, मिट जायेगी
तो क्या
मन में तो अंकित है इक रूप
बस,
उससे ही जिया जाता है
यूं ही, रहा जाता है
बस प्यार, किया जाता है
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हम खुश हैं जग खुश है
इस भीड़ भरे संसार में मुश्किल से मिलती है तन्हाई सखा
आ, ज़रा दो बातें कर लें,कल क्या हो,जाने कौन सखा
ये उजली धूप,समां सुहाना,हवा बासंती,हरा भरा उपवन
हम खुश हैं, जग खुश है, जीवन में और क्या चाहिए सखा
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घाट-घाट का पानी
शहर में
चूहे बिल्लियों को सुला रहे हैं
कानों में लोरी सुना रहे हैं।
उधर जंगल में गीदड़ दहाड़ रहे हैं।
शेर-चीते पिंजरों में बन्द
हमारा मन बहला रहे हैं।
पढ़ाते थे हमें
शेर-बकरी
कभी एक घाट पानी नहीं पीते,
पर आज
एक ही मंच पर
सब अपनी-अपनी बीन बजा रहे हैं।
यह भी पता नहीं लगता
कब कौन सो जायेगा]
और कौन लोरी सुनाएगा।
अब जहां देखो
दोस्ती के नाम पर
नये -नये नज़ारे दिखा रहे हैं।
कल तक जो खोदते थे कुंए
आज साथ--साथ
घाट-घाट का
पानी पीते नज़र आ रहे हैं।
बच कर चलना ऐसी मित्रता से
इधर बातों ही बातों में
हमारे भी कान काटे जा रहे हैं।
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जीने की चाहत
जीवन में
एक समय आता है
जब भीड़ चुभने लगती है।
बस
अपने लिए
अपनी राहों पर
अपने साथ
चलने की चाहत होती है।
बात
रोशनी-अंधेरे की नहीं
बस
अपने-आप से बात होती है।
जीवन की लम्बी राहों पर
कुछ छूट गया
कुछ छोड़ दिया
किसी से नहीं कोई आस होती है।
न किसी मंज़िल की चाहत है
न किसी से नाराज़गी-खुशी
बस अपने अनुसार
जीने की चाहत होती है।
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मानसिकता कहां बदली है
मांग भर कर रखना बेटी, सास ससुर की सब सहना बेटी
शिक्षा, स्वाबलम्बन भूलकर बस चक्की चूल्हा देखना बेटी
इस घर से डोली उठे, उस घर से अर्थी, मुड़कर न देखना कभी
कहने को इक्कीसवीं सदी है, पर मानसिकता कहां बदली है बेटी
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जब लहराता है तिरंगा
एक भाव है ध्वजा,
देश के प्रति साख है ध्वजा।
प्रतीक है,
आन का, बान का, शान का।
.
तीन रंगों से सजा,
नारंगी, श्वेत, हरा
देते हमें जीवन के शुद्ध भाव,
शक्ति, साहस की प्रेरणा,
सत्य-शांति का प्रतीक,
धर्म चक्र से चिन्हित,
प्रकृति, वृद्धि एवं शुभता
की प्रेरणा।
भाव है अपनत्व का।
शीश सदा झुकता है
शीष सदा मान से उठता है,
जब लहराता है तिरंगा।
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मुझे तो हर औरत दिखाई देती है
तुम सीता हो या सावित्री
द्रौपदी हो या कुंती
अहिल्या हो या राधा-रूक्मिणी
मैं अक्सर पहचान ही नहीं पाती।
सम्भव है होलिका, अहिल्या,
गांधारी, कुंती, उर्मिला,
अम्बा-अम्बालिका हो।
या नीता, गीता
सुशीला, रमा, शमा कोई भी हो।
और भी बहुत से नाम
स्मरण आ रहे हैं मुझे
किन्तु मैं स्वयं भी
किसी असमंजस में नहीं
पड़ना चाहती,
और न ही चाहती हूं
कि तुम सोचने लगो,
कि इसकी तो बातें
सदैव ही अटपटी-होती हैं
उलझी-उलझी।
तुम्हें क्या लगता है
कौन है यह?
सती-सावित्री?
मुझे तो हर औरत
दिखाई देती है इसके भीतर
सदैव पति के लिए
दुआएं मांगती,
यमराज के आगे सिर झुकाकर
अपनी जीवन देकर ।