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यूं ही जीवन जीना है।
नयनों से छलकी एक बूंद
कभी-कभी
सागर के जल-सी गहरी होती है,
भावों की छप-छपाक
न जाने क्या-क्या कह जाती है।
और कभी ओस की बूंद-सी
झट-से ओझल हो जाती है।
हो सकता है
माणिक-मोती मिल जायें,
या फिर
किसी नागफ़नी में उलझे-से रह जायें।
कौन जाने, कब
फूलों की सुगंध से मन महक उठे,
तरल-तरल से भाव छलक उठें।
इसी निराश-आस-विश्वास में
ज़िन्दगी बीतती चली जाती है।
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हाय-हैल्लो मत कहना
यूं क्यों ताड़ रहा है
टुकुर-टुकुर तू मुझको
मम्मी ने मेरी बोला था
किसी लफड़े में मत आ जाना
रूप बदलकर आये कोई
कहे मैं कान्हा हूं
उसको यूं ही
हाय-हैल्लो मत कहना
देख-देख मैं कितनी सुन्दर
कितने अच्छे मेरे कपड़े
हाअअ!!
तेरी मां ने तुझको कैसे भेजा
हाअअ !!
हाय-हाय, मैं शर्म से मरी जा रही
तेरी कुर्ती क्या मां ने धो दी थी
जो तू यूं ही चला आया
हाअअ!!
जा-जा घर जा
अपनी कुर्ती पहनकर आ
फिर करना मुझसे बात।
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ज़िन्दगी खुली मुट्ठी है या बन्द
अंगुलियां कभी मुट्ठी बन जाती हैं,
तो कभी हाथ।
कभी खुलते हैं,
कभी बन्द होते हैं।
कुछ रेखाएं इनके भीतर हैं,
तो कुछ बाहर।
-
रोज़ रात को
मुट्ठियों को
ठीक से
बन्द करके सोती हूं,
पर प्रात:
प्रतिदिन
खुली ही मिलती हैं।
-
देखती हूं,
कुछ रेखाएं नई,
कुछ बदली हुईं,
कुछ मिट गईं।
-
फिर दिन भर
अंगुलियां ,
कभी मुट्ठी बन जाती हैं,
तो कभी हाथ।
कभी खुलते हैं,
कभी बन्द होते हैं।
-
यही ज़िन्दगी है।
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औरत होती है एक किताब
औरत होती है एक किताब।
सबको चाहिए
पुरानी, नई, जैसी भी।
अपनी-अपनी ज़रूरत
अपनी-अपनी पसन्द।
उस एक किताब की
अपने अनुसार
बनवा लेते हैं
कई प्रतियाँ,
नामकरण करते हैं
बड़े सम्मान से।
सबका अपना-अपना अधिकार
उपयोग का
अपना-अपना तरीका
अदला-बदली भी चलती है।
कुछ पृष्ठ कोरे रखे जाते है
इस किताब में
अपनी मनमर्ज़ी का
लिखने के लिए।
और जब चाहे
फाड़ दिये जाते हैं कुछ पृष्ठ।
सब मालिकाना हक़
जताते हैं इस किताब पर,
किन्तु कीमत के नाम पर
सब चुप्पी साध जाते हैं।
सबसे बड़ा आश्चर्य यह
कि पढ़ता कोई नहीं
इस किताब को
दावा सब करते हैं।
उपयोगी-अनुपयोगी की
बहस चलती रहती है
दिन-रात।
वैसे कोई रैसिपी की
किताब तो नहीं होती यह
किन्तु सबसे ज़्यादा
काम यहीं आती है।
अपने-आप में
एक पूरा युग जीती है
यह किताब
हर पन्ने पर
लिखा होता है
युगों का हिसाब।
अद्भुत है यह किताब
अपने-आपको ही पढ़ती है
समझने की कोशिश करती है
पर कहाँ समझ पाती है।
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मैं और मेरी बिल्लो रानी
छुप्पा छुप्पी खेल रहे थे
कहां गये सब साथी
हम यहां बैठे रह गये
किसने मारी भांजी
शाम ढली सब घर भागे
तू मत डर बिल्लो रानी
मेरे पीछे आजा
मैं हूं आगे आगे
दूध मलाई रोटी दूंगी
मां मंदिर तो जा ले।
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कहां गई तुम्हारी अम्मां
छोटी-सी छतरी तानी मैंने।
दाना-चुग्गा लाउंगा,
तुमको मैं खिलाउंगा।
मां कहती है,
बारिश में भीगो न,
ठंडी लग जायेगी।
मेरी मां तो
मुझको गुस्सा करती,
कहां गई तुम्हारी अम्मां।
ऐसे कैसे बैठे हो,
अपने घर जाओ,
कम्बल मैं दे जाउंगा।
कल जब धूप खिलेगा
तब आना
साथ-साथ खेलेंगे,
मेरे घर चलना,
मां से मैं मिलवाउंगा।
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विरोध से दुनिया नहीं चलती
ज़रा ज़रा सी बात पर अक्सर क्रोध करने लगी हूं मैं
किसी ने ज़रा सी बात कह दी तर्क करने लगी हूं मैं
विरोध से दुनिया नहीं चलती, सब समझाते हैं मुझे
समझाने वालों से भी इधर बहुत लड़ने लगी हूं मैं
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दादाजी से गुड़िया बोली
दादाजी से गुड़िया बोली,
स्कूल चलो न, स्कूल चलो न।
दादाजी को गुड़िया बोली
मेरे संग पढ़ो न, मेरे संग पढ़ो न।
मां हंस हंस होती लोट-पोट,
भैया देखे मुझको।
दादाजी बोले,
स्कूल चलूंगा, स्कूल चलूंगा।
मुझको एक ड्र्ैस सिलवा दे न।
सुन्दर सा बस्ता,
काॅपी-पैन ला दे न।
अपनी क्लास में
मेरा नाम लिखवा दे न।
तू मुझको ए बी सी सिखलाना,
मैं तुझको अ आ इ ई सिखलाउंगा।
मेरी काम करेगी तू,
मैं तुझको टाॅफ़ी दिलवाउंगा।
मेरी रोटी भी बंधवा लेना
नहीं तो मैं तेरी खा जाउंगा।
गुड़िया बोली,
न न न न, दादाजी,
मैं अपनी रोटी न दूंगी,
आप अभी बहुत छोटे हैं,
थोड़े बड़े हो जाओ न।
अभी तो तुम
मेरे घोड़े ही बन जाओ न।
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दिल का दिन
हमें
रचनाकारों से
ज्ञात हुआ
दिल का भी दिन होता है।
असमंजस में हैं हम
अपना दिल देखें
या सामने वाले का टटोलें।
एक छोटे-से दिल को
रक्त के आवागमन से
समय नहीं मिलता
और हम, उस पर
पता नहीं
क्या-क्या थोप देते हैं।
हर बात हम दिल के नाम
बोल देते हैं।
अपना दिल तो आज तक
समझ नहीं आया
औरों के दिलों का
पूरा हिसाब रखते हैं।
दिल टूटता है
दिल बिखरता है
दिल रोता है
दिल मसोसता है
दिल प्रेम-प्यार के
किस्से झेलता है।
विरह की आग में
तड़पता है
जलता है दिल
भावों में भटकता है दिल
सपने भी देखता है
ईष्र्या-द्वेष से भरा यह दिल
न जाने
किन गलियों में भटकता है।
तूफ़ान उठता है दिल में
ज्वार-भाटा
उछालें मारता है।
वैसे कभी-कभी
हँसता-गाता
गुनगुनाता, खिलखिलाता
मस्ती भी करता है।
कैसा है यह दिल
नहीं सम्हलता है।
और इतने बोझ के बाद
जब रक्त वाहिनियों में
रक्त जमता है
तब दिमाग खनकता है।
यार !
जिसे ले जाना है
ले जाओ मेरा दिल
हम
बिना दिल ही
चैन की नींद सो लेंगे।
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समाचार पत्र की आत्मकथा
अब समाचार-पत्र
समाचारों की बात नहीं करते,
क्या बात करते हैं
यही समझने में दिन बीत जाता है।
बस एक नज़र में
पूरा समाचार-पत्र पढ़ लिया जाता है।
जब समाचार-पत्र लेने की बात आती है,
तब उसकी गुणवत्ता से अधिक
उसकी रद्दी
कितने अच्छे भाव में बिकेगी,
यह ख्याल आता है।
कौन सा समाचार-पत्र
क्या उपहार लेकर आयेगा,
इस पर विचार किया जाता है।
कभी समय था
समाचार-पत्र घर में आने पर
कोहराम मच जाता था।
किसको कौन-सा पृष्ठ चाहिए ,
इस बात पर युद्ध छिड़ जाता था।
पिता की टेढ़ी आंख
कोई समाचार-पत्र को
उनसे पूछे बिना
हाथ नहीं लगा सकता था।
सम्पादकीय पृष्ठ पर
पिताजी का अधिकार,
सामान्य ज्ञान बड़े भाई के पास ,
और मां के नाम महिलाओं का पृष्ठ,
बच्चों का कोना, कार्टून और चुटकुले।
सालों-साल समाचार-पत्रों की कतरनें
अलमारियों से झांकती थी।
हिन्दी का समाचार-पत्र
बड़ी कठिनाई से
मां के आग्रह पर लिया जाता था।
और वह सस्ते भाव बिकता था।
धारावाहिक कहानियां,
बुनाई-कढ़ाई के डिज़ाईन,
रंग-बिरंगे चित्र,
प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए,
सामान्य ज्ञान की फ़ाईलें,
पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाई जाती थीं।
यही समाचार-पत्र अलमारियों में
बिछाये जाते थे,
पुस्तकों-कापियों पर चढ़ाये जाते थे,
और दोपहर के भोजन के लिए भी
यही टिफ़न, फ़ायल हुआ करते थे।
शनिवार-रविवार का समाचार-पत्र
वैवाहिक विज्ञापनों के लिए
लिया जाता था।
समाचार-पत्रों पर लिखना
यूं लगा
मानों जीवन के किसी अनुभूत
सुन्दर सत्य, संस्मरण,
यात्रा-वृतान्त का लिखना
जिसका कोई आदि नहीं, अन्त नहीं।