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भाईयों को भारी पड़ती थी मां।
पता नहीं क्यों
भाईयों से डरती थी मां।
मरने पर कौन देगा कंधा
बस यही सोचा करती थी मां।
जीते-जी रोटी दी
या कभी पिलाया पानी
बात होती तो टाल जाती थी मां।
जो कुछ है घर में
चाहे टूटा-फूटा या उखड़ा-बिखरा
सब भाइयों का है,
कहती थी मां।
बेटा-बेटा कहती फ़िरती थी
पर आस बस
बेटियों से ही करती थी मां।
राखी-टीके बोझ लगते थे
लगते थे नौटंकी
क्या रखा है इसमें
कहते थे भाई ।
क्या देगी, क्या लाई
बस यही पूछा करते थे भाई।
पर दुनिया कहती थी
बेचारे होते हैं वे भाई
जिनके सिर पर होता है
अविवाहित बहनों का बोझा
इसी कारण शादी करने
से डरती थी मैं।
मां-बाप की सेवा करना
लड़कियों का भी दायित्व होता है
यह बात समझाते थे भाई
लेकिन घर पर कोई अधिकार नहीं
ये भी बतलाते थे भाईA
एक दूर देश में चला गया
एक रहकर भी तो कहां रहा।
सोचा करती थी मैं अक्सर
क्या ऐसे ही होते हैं भाई।
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कर लो नारी पर वार
जब कुछ न लिखने को मिले तो कर लो नारी पर वार।
वाह-वाही भरपूर मिलेगी, वैसे समझते उसको लाचार।
कल तक माँ-माँ लिख नहीं अघाते थे सारे साहित्यकार
आज उसी में खोट दिखे, समझती देखो पति को दास
पत्नी भी माँ है क्यों कभी नहीं देख पाते हो तुम
यदि माता-पिता को वृद्धाश्रम भेजा, किसका है यह दोष
परिवारों में निर्णय पर हावी होते सदा पुरुष के भाव
जब मन में आता है कर लेते नारी के चरित्र पर प्रहार।
लिखने से पहले मुड़ अपनी पत्नी पर दृष्टि डालें एक बार ।
अपने बच्चों की माँ के मान की भी सोच लिया करो कभी कभार
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ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक
वक्रतुण्ड , एकदन्त, चतुर्भुज, फिर भी रूप तुम्हारा मोहक है
शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै प्रिय भोज तुम्हारा मोदक है
ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक, क्षुद्र मूषक को सम्मान दिया
शिव गौरी के सुत, मां के वचन हेतु अपना मस्तक बलिदान किया
शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै जग का नित कल्याण किया
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आस लिए जीती हूँ
सपनों में जीती हूँ
सपनों में मरती हूँ
सपनों में उड़ती हूँ
ऐसे ही जीती हूँ।
धरा पर सपने बोती हूँ
गगन में छूती हूँ ।
मन में चाँद-तारे बुनती हूँ।
बादलों-से उड़ जाते हैं,
हवाएँ बहकाती हैं
सहम जाता है मन
पंछी-सा,
पंख कतरे जाते हैं
फिर भी उड़ती हूँ।
लौट धरा पर आती हूँ,
पर गगन की
आस लिए जीती हूँ।
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प्रेम प्रतीक बनाये मानव
चहक-चहक कर
फुदक-फुदक कर
चल आज नया खेल हम खेंलें।
प्रेम प्रतीक बनाये मानव,
चल हम इस पर इठला कर देखें।
तू क्या देखे टुकुर-टुकुर,
तू क्या देखे इधर-उधर,
कुछ बदला है, कुछ बदलेगा।
कर लो तुम सब स्वीकार अगर,
मौसम बदलेगा,
नव-पल्लव तो आयेंगे।
अभी चलें कहीं और
लौटकर अगले मौसम में,
घर हम यहीं बनायेंगे।
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कुर्सियां
भूल हो गई मुझसे
मैं पूछ बैठी
कुर्सी की
चार टांगें क्यों होती हैं?
हम आराम से
दो पैरों पर चलकर
जीवन बिता लेते हैं
तो कुर्सी की
चार टांगें क्यों होती हैं?
कुर्सियां झूलती हैं।
कुर्सियां झूमती हैं।
कुर्सियां नाचती हैं।
कुर्सियां घूमती हैं।
चेहरे बदलती हैं,
आकार-प्रकार बांटती हैं,
पहियों पर दौड़ती हैं।
अनोखी होती हैं कुर्सियां।
किन्तु
चार टांगें क्यों होती हैं?
जिनसे पूछा
वे रुष्ट हुए
बोले,
तुम्हें अपनी दो
सलामत चाहिए कि नहीं !
दो और नहीं मिलेंगीं
और कुर्सी की तो
कभी भी नहीं मिलेंगी।
मैं डर गई
और मैंने कहा
कि मैं दो पर ही ठीक हूँ
मुझे चौपाया नहीं बनना।
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डर-डर कर जी रहे हैं
खुले आसमान के नीचे
विघ्न-बाधाओं को लांघकर
समुद्र मापकर
आकाश और धरा को नापकर,
हवाओं को बांधकर,
मानव समझ बैठा था
स्वयं को विधाता, सर्वशक्तिमान।
और आज
अपनी ही करनी से,
अपनी ही कथनी से,
अपने ही कर्मों से,
अपने लिए, आप ही,
तैयार कर लिया है कारागार।
सीमाओं में रहना सीख रहा है,
अपनापन अपनाना सीख रहा है।
उच्च विचार पता नहीं,
पर सादा जीवन जी रहा है।
इच्छाओं पर प्रतिबन्ध लगा है।
आशाओं पर तुषारापात हुआ है।
चाबी अपने पास है
पर खोलने से डरा हुआ है।
दूरियों में जी रहा है
नज़दीकियों से भाग रहा है।
हर पल मर-मर कर जी रहा है,
हर पल डर-डर कर जी रहा है।
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हम मस्त हैं अपने ही बुने मकड़जाल में
जीवन में जरूरी है
किसी परिधि में सिमटना,
सीमाओं में बंधना।
और ये सीमाएं
हम स्वयं तय करें,
तय करें अपनी दूरियां,
अपनी दीवारें चुनें,
बनायें किले या ढहायें।
तुम कुछ भी सोचते रहो
कि फंस रहें हैं हम
अपने ही जाल में,
लेकिन सदा ऐसा नहीं होता।
जब हम
सबकी उपेक्षा कर
अपना सुरक्षा कवच
स्वयं बुनते हैं,
तो तकलीफ होती है,
कहानियां बुनी जाती हैं,
कथाएं सुनी जाती हैं।
कुछ भी कहो,
हम मस्त हैं
अपने ही बुने मकड़जाल में।
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पर मूर्ख बहुत था रावण
कहते हैं दुराचारी था, अहंकारी था, पर मूर्ख बहुत था रावण
बहन के मान के लिए उसने दांव पर लगाया था सिंहासन
जानता था जीत नहीं पाउंगा, पर बहन का मान रखना था उसे
अपने ही कपटी थे, जानकर भी, दांव पर लगाया था सिंहासन
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समय आत्ममंथन का
पता नहीं यह कैसे हो गया ?
मुझे, अपने पैरों के नीचे की ज़मीन की
फ़िसलन का पता ही न लगा
और आकाश की उंचाई का अनुमान।
बस एक कल्पना भर थी
एक आकांक्षा, एक चाहत।
और मैंने छलांग लगा दी ।
आकाश कुछ ज़्यादा ही उंचा निकला
और ज़मीन कुछ ज़्यादा ही चिकनी।
मैं थी बेखबर, आकाश पकड़ न सकी
और पैर ज़मीन पर टिके नहीं।
दु:ख गिरने का नहीं
क्षोभ चोट लगने का नहीं।
पीड़ा हारने की नहीं।
ये सब तो सहज परिणाम हैं,
अनुभव की खान हैं
किसी की हिम्मत के।
समय आत्ममंथन का।
कितना कठिन होता है
अपने आप से पूछना।
और कितना सहज होता है
किसी को गिरते देखना
उस पर खिलखिलाना
और ताली बजाना।
कितना आसान होता है
चारों ओर भीड़ का मजमा लगाना।
ढोल बजा बजा कर दुनिया को बताना।
जख़्मों को कुरेद कुरेद कर दिखाना।
और कितना मुश्किल होता है
किसी के जख़्मों की तह तक जाना
उसकी राह में पड़े पत्थरों को हटाना
और सही मौके पर सही राह बताना।
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परिवर्तन नित्य है
सन्मार्ग पर चलने के लिए रोशनी की बस एक किरण ही काफ़ी है
इरादे नेक हों, तो, राही दो हों न हों, बढ़ते रहें, इतना ही काफ़ी है
सूर्य अस्त होगा, रात आयेगी, तम भी फैलेगा, संगी साथ छोड़ देंगे,
तब भी राह उन्मुक्त है, परिवर्तन नित्य है, इतना जानना ही काफ़ी है