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आदमी ने कहा
चाहिए औरत
जो बेटे पैदा करे।
हर आदमी ने कहा
औरत चाहिए।
पर चाहिए ऐसी औरत
जो केवल बेटे पैदा करे।
हर औरत
केवल
बेटे पैदा करने लगी।
अब बेटों के लिए
कहां से लाएंगे औरतें
जो उनके लिए
बेटे पैदा करें।
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आज का रावण
हमारे शास्त्रों में, ग्रंथों में जो कथाएं सिद्ध हैं, आम जन तक पहुंचते-पहुंचते बहुत बदल जाती हैं। सत्य-असत्य से अलग हो जाती हैं। हमारी अधिकांश कथाओं के आधार और परिणाम वरदान और श्राप पर आधारित हैं।
प्राचीन ग्रंथों एवं रामायण में वर्णित कथानक के अनुसार रावण एक परम शिव भक्त, उद्भट राजनीतिज्ञ, महापराक्रमी योद्धा, अत्यन्त बलशाली, शास्त्रों का प्रखर ज्ञाता, प्रकाण्ड विद्वान पंडित एवं महाज्ञानी था। रावण के शासन काल में लंका का वैभव अपने चरम पर था इसलिये उसकी लंकानगरी को सोने की लंका कहा जाता है।
हिन्दू ज्योतिषशास्त्र में रावण संहिता को एक बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक माना जाता है और इसकी रचना रावण ने की थी।
रावण ने राम के लिए उस पुल के लिए यज्ञ किया, जिसे पारकर राम की सेना लंका पहुंच सकती थी, यह जानते हुए भी रावण ने राम के निमन्त्रण को स्वीकार किया और अपना कर्म किया।
रावण अपने समय का सबसे बड़ा विद्वान माना जाता है और रामायण के अनुसार जब रावण मृत्यु शय्या पर था तब राम ने लक्ष्मण को रावण से शिक्षा ग्रहण करने का आदेश दिया था और रावण ने यहां भी अपना कर्म किया था।
निःसंदेह हमारी धार्मिकता, आस्था, विश्वास, चरित्र आदि विविध गुणों के कारण राम का चरित्र सर्वोपरि है। रावण रामायण का एक केंद्रीय प्रतिचरित्र है। रावण लंका का राजा था। रामकथा में रावण ऐसा पात्र है, जो राम के उज्ज्वल चरित्र को उभारने का काम करता है।
रावण राक्षस कुल का था, अतः उसकी वृत्ति भी राक्षसी ही थी। यही स्थिति शूर्पनखा की भी थी। उसने प्रेम निवेदन किया, विवाह-प्रस्ताव किया जिसे राम एवं लक्ष्मण ने अस्वीकार किया। इस अस्वीकार का कारण सीता को मानते हुए शूर्पनखा ने सीता को हानि पहुंचाने का प्रयास किया, इस कारण लक्ष्मण ने शूर्पनखा को आहत किया, उसकी नाक काट दी।
रावण ने घटना को जानकर अपनी बहन का प्रतिशोध लेने के लिए सीता का अपहरण किया, किन्तु उसे किसी भी तरह की कोई हानि नहीं पहुंचाई। रावण अपनी पराजय भी जानता था किन्तु फिर भी उसने बहन के सम्मान के लिए अपने हठ को नहीं छोड़ा।
समय के साथ एवं साहित्येतिहास में कुछ प्रतीक रूढ़ हो जाते हैं, और फिर वे ही उसकी अर्थाभिव्यक्ति बन कर रह जाते हैं। बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में यह कथा रूढ़ हुई और रावण के गुणों पर उसका कृत्य हावी हुआ। किसी भी समाज के उत्थान के लिए इससे अच्छी बात कोई नहीं कि अच्छाई का प्रचार हो, हमारे भीतर उसका समावेश हो, और हम उस परम्परा को आगे बढ़ाएं। राम-कथा हमें यही सिखाती है। किन्तु गुण-अवगुण दोनों में एक संतुलन बना रहे, यह हमारा कर्तव्य है।
बात करते हैं आज के रावण की।
आज के दुराचारियों अथवा कहें दुष्कर्मियों को रावण कह कर सम्बोधित किया जा रहा है। वर्तमान समाज के अपराधियों को, महिलाओं पर अत्याचार करने वाले युवकों को रावण कहने का औचित्य। क्या सत्य में ही दोनों के अपराध समान हैं । यदि अपराध समान हैं तो परिणाम क्यों नहीं समान हैं?
किन्तु आज कहां है रावण ?
आज रावण नहीं है। यदि रावण है तो राम भी होने चाहिए। किन्तु राम भी तो नहीं है।
आज वे उच्छृंखल युवक हैं जो निडर भाव से अपराधों में लिप्त हैं। वे जानते हैं वे अपने हर अपकृत्य से बच निकलेंगे। समाज एवं परम्पराओं के भय से पीड़ित अपनी व्यथा प्रकट नहीं करेगा, और यदि कर भी देगा तब भी परिवार से तो संरक्षण मिलेगा ही, अपने दांव-पेंच से कानून से भी बच निकलेंगे।
रावण शब्द का प्रयोग बुराई के प्रतीक के रूप में किया जाता है। उस युग में तो राम थे, रावण रूपी बुराई का अन्त करने के लिए। आज हम उस रावण का पुतला जलाने के लिए तो तैयार बैठे रहते हैं वर्ष भर। आज हमने बुराई का प्रतीक रावण तो बना लिया किन्तु उसके समापन के लिए राम कौन-कौन बनेगा?
यदि हम रावण शब्द का प्रयोग बुराई के प्रतीक के रूप में करते हैं तो इस बुराई को दूर करने के उपाय अथवा साधन भी सोचने चाहिए। बेरोजगारी, अशिक्षा, पिछड़ापन, रूढ़ियों के रावण विशाल हैं। लड़कियों में डर का रावण और युवकों में छूट का रावण हावी है।
जिस दिन हम इससे विपरीत मानसिकता का विकास करने में सफल हो गये, उस दिन हम रावण की बात करना छोड़ देंगे। अर्थात् किसी के भी मन में अपराध का इतना बड़ा डर हो कि वह इस राह पर कदम ही न बढ़ा पाये और जिसके प्रति अपराध होते हैं वे इतने निडर हों कि अपराधी वृत्ति का व्यक्ति आंख उठाकर देख भी न पाये।
यदि फिर भी अपराध हों, तो हम जिस प्रकार आज राम को स्मरण कर अच्छाई की बात करते हैं, वैसे ही सत्य का समर्थन करने का साहस करें और जैसे आज रावण को एक दुराचारी के रूप में स्मरण करते हैं वैसे ही अपराधी के प्रति व्यवहार करें, तब सम्भव है कोई परिवर्तन दिखाई दे, और आज का रावण लुप्त हो।
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अपना विकराल रूप दिखाती है ज़िन्दगी
वैकल्पिक अवसर कहां देती है ज़िन्दगी,
जब चाहे कुछ भी छीन लेती है ज़िन्दगी
भाग्य को नहीं मानती मैं, पर फिर भी
अपना विकराल रूप दिखाती है ज़िन्दगी
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कुछ अच्छा लिखने की चाह
कुछ अच्छा लिखने की चाह में
हर बार कलम उठाती हूं
किन्तु आज तक नहीं समझ पाई
शब्द कैसे बदल जाते हैं
किन आकारों में ढल जाते हैं
प्रेम लिखती हूं
हादसे बन जाते हैं।
मानवता लिखती हूँ
मौत दिखती है।
काली स्याही लाल रंग में
बदल जाती है।
.
कलम को शब्द देती हूँ
भाईचारा, देशप्रेम,
साम्प्रदायिक सौहार्द
न जाने कैसे बन्दूकों, गनों
तोपों के चित्र बन जाते हैं।
-
कलम को समझाती हूं
चल आज धार्मिक सद्भाव की बात करें
किन्तु वह फिर
अलग-अलग आकार और
सूरतें गढ़ने लगती है,
शब्दों को आकारों में
बदलने लगती है।
.
हार नहीं मानती मैं,
कलम को फिर पकड़ती हूँ।
सच्चाई, नैतिकता,
ईमानदारी के विचार
मन में लाती हूँ।
किन्तु न जाने कहां से
कलम अरबों-खरबों के गणित में
उलझा जाती है।
.
हारकर मैंने कहा
चल भारत-माता के सम्मान में
गीत लिखें।
कलम हँसने लगी,
चिल्लाने लगी,
चीत्कार करने लगी।
कलम की नोक
तीखे नाखून-सी लगी।
कागज़
किसी वस्त्र का-सा
तार-तार होने लगा
मन शर्मसार होने लगा।
मान-सम्मान बुझने लगा।
.
हार गई मैं
किस्सा रोज़ का था।
कहां तक रोती या चीखती
किससे शिकायत करती।
धरती बंजर हो गई।
मैं लिख न सकी।
कलम की स्याही चुक गई।
कलम की नोक मुड़ गई ,
कुछ अच्छा लिखने की चाह मर गई।
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सिंदूरी शाम
अक्सर मुझे लगता है
दिन भर
आकाश में घूमता-घूमता
सूरज भी
थक जाता है
और संध्या होते ही
बेरंग-सा होने लगता है
हमारी ही तरह।
ठिठके-से कदम
धीमी चाल
अपने गंतव्य की ओर बढ़ता।
जैसे हम
थके-से
द्वार खटखटाते हैं
और परिवार को देखकर
हमारे क्लांत चेहरे पर
मुस्कान छा जाती है
दिनभर की थकान
उड़नछू हो जाती है
कुछ वैसे ही सूरज
जब बढ़ता है
अस्ताचल की ओर
गगन
चाँद-तारों संग
बिखेरने लगता है
इतने रंग
कि सांझ सराबोर हो जाती है
रंगों से।
और
बेरंग-सा सूरज
अनायास झूम उठता है
उस सिंदूरी शाम में
जाते-जाते हमें भी रंगीनियों से
भर जाता है।
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अपने-आपको अपने साथ ही बांटिये अपने-आप से मिलिए
हम अक्सर सन्नाटे और
शांति को एक समझ बैठते हैं।
शांति भीतर होती है,
और सन्नाटा !!
बाहर का सन्नाटा
जब भीतर पसरता है
बाहर से भीतर तक घेरता है,
तब तोड़ता है।
अन्तर्मन झिंझोड़ता है।
सन्नाटे में अक्सर
कुछ अशांत ध्वनियां होती हैं।
हवाएं चीरती हैं
पत्ते खड़खड़ाते हैं,
चिलचिलाती धूप में
बेवजह सनसनाती आवाज़ें,
लम्बी सूनी सड़कें
डराती हैं,
आंधियां अक्सर भीतर तक
झकझोरती हैं,
बड़ी दूर से आती हैं
कुत्ते की रोने की आवाज़ें,
बिल्लियां रिरियाती है।
पक्षियों की सहज बोली
चीख-सी लगने लगती है,
चेहरे बदनुमा दिखने लगते हैं।
हम वजह-बेवजह
अन्दर ही अन्दर घुटते हैं,
सोच-समझ
कुंद होने लगती है,
तब शांति की तलाश में निकलते हैं
किन्तु भीतर का सन्नाटा छोड़ता नहीं।
कोई न मिले
तो अपने-आपको
अपने साथ ही बांटिये,
अपने-आप से मिलिए,
लड़िए, झगड़िए, रूठिए,मनाईये।
कुछ खट्टा-मीठा, मिर्चीनुमा बनाईये
खाईए, और सन्नाटे को तोड़ डालिए।
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आनन्द के कुछ पल
संगीत के स्वरों में कुछ रंग ढलते हैं
मनमीत के संग जीवन के पल संवरते हैं
ढोल की थाप पर तो नाचती है दुनिया
हम आनन्द के कुछ पल सृजित करते हैं।
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प्रकृति के प्रपंच
प्रकृति भी न जाने कहां-कहां क्या-क्या प्रपंच रचा करती है
पत्थरों को जलधार से तराश कर दिल बना दिया करती है
कितना भी सजा संवार लो इस दिल को रंगीनियों से तुम
बिगड़ेगा जब मिज़ाज उसका, पल में सब मिटा दिया करती है
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दो चाय पिला दो
प्रात की नींद से न अच्छा समय कोई
दो चाय पिला दो आपसे अच्छा न कोई
मोबाईल की टन-टन न हमें जगा पाये
कुम्भकरण से कम न जाने हमें कोई
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वास्तविकता में नहीं जीते हम
मैं जानती हूं
मेरी सोच कुछ टेढ़ी है।
पर जैसी है
वैसा ही तो लिखूंगी।
* * * *
नारी के
इस तरह के चित्र देखकर
आप सब
नारीत्व के गुण गायेंगे,
ममता, त्याग, तपस्या
की मूर्ति बतायेंगे।
महानता की
सीढ़ी पर चढ़ायेंगे।
बच्चों को गोद में
उठाये चल रही है,
बच्चों को
कष्ट नहीं देना चाहती,
नमन है तेरे साहस को।
अब पीछे
भारत का मानचित्र दिखता है,
तब हम समझायेंगे
कि पूरे भारत की नारियां
ऐसी ही हुआ करती हैं।
अपना सर्वस्व खोकर
बच्चों का पालन-पोषण करती हैं।
फिर हमें याद आ जायेंगी
दुर्गा, सती-सीता, सावित्री,
पद्मिनी, लक्ष्मी बाई।
हमें नहीं याद आयेंगी
कोई महिला वैज्ञानिक, खिलाड़ी
प्रधानमंत्री, राष्ट््रपति,
अथवा कोई न्यायिक अधिकारी
पुलिस, सेना अधिकारी।
समय मिला
तो मीडिया वाले
साक्षात्कार लेकर बतायेंगे
यह नारी
न न, नारी नहीं,
मां है मां ! भारत की मां !
मेहनत-मज़दूरी करके
बच्चों को पाल रही है।
डाक्टर-इंजीनियर बनाना चाहती है।
चाहती है वे पुलिस अफ़सर बनें,
बड़े होकर मां का नाम रोशन करें,
वगैरह, वगैरह।
* * * *
लेकिन इस चित्र में
बस एक बात खलती है।
आंसुओं की धार
और अच्छी बहती,
गर‘ मां के साथ
लड़कियां दिखाते,
तो कविता लिखने में
और ज़्यादा आनन्द पाते।
* * * *
वास्तव में
जीवन की
वास्तविकता में नहीं जीते हम,
बस थोथी भावुकता परोसने में
टसुए बहाने में
आंसू टपकाने में,
मज़ा लेते हैं हम।
* * * *
ओहो !
एक बात तो रह ही गई,
इसके पति, बच्चों के पिता की
कोई ख़बर मिले तो बताना।
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जीवन में सुख दुख शाश्वत है
सूर्य का गमन भी तो एक नया संदेश देता है
चांदनी छिटकती है, शीतलता का एहसास देता है
जीवन में सुख-दुख की अदला-बदली शाश्वत है
चंदा-सूरज के अविराम क्रम से हमें यह सीख देता है