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झूठ, छल-कपट, मिथ्या-आचरण, भ्रष्टाचार में जीते हैं हम किसी को क्या
बेवजह जागने की आदत नहीं हमारी, जो भी हो रहा, होता रहे हमें क्या
आराम से खाते-पीते हैं, मज़े से जीते हैं, दुनिया लड़-मर रही, मरती रहे
लहर है तो, सत्य, अहिंसा, प्रेम पर लिखने को जी चाहता है तुम्हें क्या
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धुआँ- धुआँ ज़िन्दगी
कुछ चेतावनियों के साथ
बेहिचक बिकता है
कोई भी, कहीं भी
पी ले
सुट्टा ले
हवा ले और हवाओं में ज़हर घोले
पूर्ण स्वतन्त्र हैं हम।
शानौ-शौकत का प्रतीक बन जाता है।
कहीं गम भुलाने के लिए
तो कहीं सर-दर्द मिटाने के लिए
कभी दोस्ती के लिए
तो कभी
देखकर मन ललचाता है
कुछ आधुनिक दिखने की चाहत
खींच ले जाती है
एकान्त में, छिपकर
फिर दिखाकर
और बाद में अकड़कर।
और जब तक समझ आता है
तब तक
धुआँ- धुआँ हो चुकी होती है ज़िन्दगी।
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कहां गये वे नेता -वेत्ता
कहां गये वे नेता -वेत्ता
चूल्हे बांटा करते थे।
किसी मंच से हमारी रोटी
अपने हित में सेंका करते थे।
बड़े-बड़े बोल बोलकर
नोटों की गिनती करते थे।
झूठी आस दिलाकर
वोटों की गिनती करते थे।
उन गैसों को ढूंढ रहे हम
किसी आधार से निकले थे,
कोई सब्सिडी, कोई पैसा
चीख-चीख कर हमको
मंचों से बतलाया करते थे।
वे गैस कहां जल रहे
जो हमारे नाम से लूटे थे।
बात करें हैं गांव-गांव की
पर शहरों में ही जाया करते थे।
आग कहीं भीतर जलती है
चूल्हे में जलता है दिल
अब हमको भरमाने को
कला, संस्कृति, परम्परा,
मां की बातें करते हैं।
सबको चाहे नया-नया,
मेरे नाम पर लीपा-पोती।
पंचतारा में भोजन करते
मुझको कहते चूल्हे में जा।
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मां के आंचल की छांव
प्रकृति का नियम है
विशाल वट वृक्ष तले
नहीं पनपते छोटे पेड़ पौधे।
नहीं पुष्पित पल्लवित होतीं यूं ही लताएं।
और यदि कुछ पनप भी जाये
तो उसे नाम नहीं मिलता।
पहचान नहीं मिलती।
बस, वट वृक्ष की विशालता के सामने
खो जाते हैं सब।
लेकिन, एक ऐसा वट वृक्ष भी है
जिसका अपना कोई नाम नहीं होता
कोई पहचान नहीं होती।
बस एक दीर्घ आंचल होता है
जिसके साये तले, पलती बढ़ती है
एक पूरी की पूरी पीढ़ी,
एक पूरा का पूरा युग।
अपनी जड़ों से पोषण करती है उनका।
नये पौधों का रोपण करती है
अपने आपको खोकर।
उन्हें नाम देती है, पहचान देती है
आंचल की छांव देती है।
पूरी ज़मीन और पूरा आकाश देती है।
युग बदलते हैं, पर नहीं बदलती
नहीं छूटती आंचल की छांव।
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फूल तो फूल हैं
फूल तो फूल हैं
कहीं भी खिलते हैं।
कभी नयनों में द्युतिमान होते हैं
कभी गालों पर महकते हैं
कभी उपवन को सुरभित करते हैं,
तो कभी मन को
आनन्दित करते हैं,
मन के मधुर भावों को
साकार कर देते हैं
शब्द को भाव देते हैं
और भाव को अर्थ।
प्रेम-भाव का समर्पण हैं,
कभी किसी की याद में
गुलदानों में लगे-लगे
मुरझा जाते हैं।
यही फूल स्वागत भी करते हैं
और अन्तिम यात्रा भी।
और कभी किसी की
स्मृतियों में जीते हैं
ठहरते हैं उन पर आंसू
ओस की बूंदों से।
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इशारों में ही बात हो गई
मेरे हाथ आज लगे
जिन्न और चिराग।
पूछा मैंने
क्या करोगे तुम मेरे
सारे काम-काज।
बोले, खोपड़ी तेरी
क्या घूम गई है
जो हमसे करते बात।
ज्ञात हो चुकी हमको
तुम्हारी सारी घात।
बहुत कर चुके रगड़ाई हमारी।
बहुत लगाये ढक्कन।
किन्तु अब हम
बुद्धिमान हो गये।
बोतल बड़ी-बड़ी हो गई,
लेन-देन की बात हो गई,
न रगड़ाई और न ढक्कन।
बस देता जा और लेता जा।
लाता जा और पाता जा।
भर दे बोतल, काम करा ले।
काम करा ले बोतल भर दे।
इशारों में ही बात हो गई
समझ आ गई तो ठीक
नहीं आई तो
जाकर अपना माथा पीट।
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हमारी राहें ये संवारते हैं
यह उन लोगों का
स्वच्छता अभियान है
जो नहीं जानते
कि राजनीति क्या है
क्या है नारे
कहां हैं पोस्टर
जहां उनकी तस्वीर नहीं छपती
छपती है उन लोगों की छवि
जिनकी
छवि ही नहीं होती
कुछ सफ़ेदपोश
साफ़ सड़कों पर
साफ़ झाड़ू लगाते देखे जाते रहे
और ये लोग उनका मैला ढोते रहे।
प्रकृति भी इनकी परीक्षा लेती है,
तरू अरू पल्लव झरते हैं
एक नये की आस में
हम आगे बढ़ते हैं
हमारी राहें ये
संवारते हैं
और हम इन्हीं को नकारते हैं।
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समझाने की बात नहीं
आजकल न जाने क्यों
यूं ही
आंख में पानी भर आता है।
कहीं कुछ रिसता है,
जो न दिखता है,
न मन टिकता है।
कहीं कुछ जैसे
छूटता जा रहा है पीछे कहीं।
कुछ दूरियों का एहसास,
कुछ शब्दों का अभाव।
न कोई चोट, न घाव।
जैसे मिट्टी दरकने लगी है।
नींव सरकने लगी है।
कहां कमी रह गई,
कहां नमी रह गई।
कई कुछ बदल गया।
सब अपना,
अब पराया-सा लगता है।
समझाने की बात नहीं,
जब भीतर ही भीतर
कुछ टूटता है,
जो न सिमटता है
न दिखता है,
बस यूं ही बिखरता है।
एक एहसास है
न शब्द हैं, न अर्थ, न ध्वनि।
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अब कोई हमसफ़र नहीं होता
प्रार्थनाओं का अब कोई असर नहीं होता।
कामनाओं का अब कोई
सफ़र नहीं होता।
सबकी अपनी-अपनी मंज़िलें हैं ,
और अपने हैं रास्ते।
सरे राह चलते
अब कोई हमसफ़र नहीं होता।
देखते-परखते निकल जाती है
ज़िन्दगी सारी,
साथ-साथ रहकर भी ,
अब कोई बसर नहीं होता।
भरोसे की तो हम
अब बात ही नहीं करते,
अपने और परायों में
अब कुछ अलग महसूस नहीं होता।
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क्षमा-मंत्र
कोई मांगने ही नहीं आता
हम तो
क्षमाओं का पिटारा लिए
कब से खड़े हैं।
सबकी ग़लतियां तलाश रहे हैं
भरने के लिए
टोकरा उठाये घूम रहे हैं।
आपको बता दें
हम तो दूध के धुले हैं,
महान हैं, श्रेष्ठ हैं,
सर्वश्रेष्ठ हैं,
और इनके
जितने पर्यायवाची हैं
सब हैं।
और समझिए
कितने दानी , महादानी हैं,
क्षमाओं का पिटारा लिए घूम रहे हैं,
कोई तो ले ले, ले ले, ले ले।
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खुशियों की कोई उम्र नहीं होती
उम्र का तकाज़ा मत देना मुझे,
कि जी चुके अपनी ज़िन्दगी,
अब भगवान-भजन के दिन हैं।
जीते तो हैं हम,
पर वास्तव में
ज़िन्दगी शुरु कब होती है,
कहां समझ पाते हैं हम।
कर्म किये जा, कर्म किये जा,
बस कर्म किये जा।
जीवन के आनन्द, खुशियों को
एक झोले में समेटते रहते हैं,
जब समय मिलेगा
भोग लेंगे।
और किसी खूंटी पर टांग कर
अक्सर भूल जाते हैं।
और जब-जब झोले को
पलटना चाहते हैं,
पता लगता है,
खुशियों की भी
एक्सपायरी डेट होती है।
या फिर,
फिर कर्मों की सूची
और उम्र का तकाज़ा मिलता है।
पर खुशियों की कोई उम्र
नहीं होती,
बस जीने का सलीका आना चाहिए।