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छू मत देना इन मोतियों को टूट न जायें कहीं।
आनन्द का आन्तरिक स्त्रोत हैं छूट न जाये कहीं।
जब बहकती देखती हूं इन पत्तियों पर ओस की बूंदे ,
बोलती हूं, ठहर-ठहर देखो, ये फूट न जाये कहीं ।
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किसकी टोपी किसका सिर
बचपन में कथा पढ़ी है,
टोपी वाला टोपी बेचे,
पेड़ के नीचे सो जाये।
बन्दर उसकी टोपी ले गये,
पेड़ पर बैठे उसे चिड़ायें।
टोपी पहने भागे जायें।
बन्दर थे पर नकल उतारें।
टोपी वाले ने आजमाया
अपनी टोपी फेंक दिखलाया।
बन्दरों ने भी टोपी फेंकी,
टोपी वाला ले उठाये।
.
हर पांच साल में आती हैं,
टोपी पहनाकर जाती हैं।
समझ आये तो ठीक
नहीं तो जाकर माथा पीट।
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भीड़ पर भीड़-तंत्र
एक लाठी के सहारे
चलते
छोटे कद के
एक आम आदमी ने
कभी बांध ली थी
सारी दुनिया
अपने पीछे
बिना पुकार के भी
उसके साथ
चले थे
लाखों -लाखों लोग
सम्मिलित थे
उसकी तपस्या में
निःस्वार्थ, निःशंक।
वह हमें दे गया
एक स्वर्णिम इतिहास।
आज वह न रहा
किन्तु
उसकी मूर्तियाँ
हैं हमारे पास
लाखों-लाखों।
कुछ लोग भी हैं
उन मूर्तियों के साथ
किन्तु उसके
विचारों की भीड़
उससे छिटक कर
आज की भीड़ में
कहीं खो गई है।
दीवारों पर
अलंकृत पोस्टरों में
लटक रही है
पुस्तकों के भीतर कहीं
दब गई है।
आज
उस भीड़ पर
भीड़-तंत्र हावी हो गया है।
.
अरे हाँ !
आज उस मूर्ति पर
माल्यार्पण अवश्य करना।
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छोटी छोटी खुशियों से खुश रहती है ज़िन्दगी
बस हम समझ ही नहीं पाते
कितनी ही छोटी छोटी खुशियां
हर समय
हमारे आस पास
मंडराती रहती हैं
हमारा द्वार खटखटाती हैं
हंसाती हैं रूलाती हैं
जीवन में रस बस जाती हैं
पर हम उन्हें बांध नहीं पाते।
आैर इधर
एक आदत सी हो गई है
एक नाराज़गी पसरी रहती है
हमारे चारों ओर
छोटी छोटी बातों पर खिन्न होता है मन
रूठते हैं, बिसूरते हैं, बहकते हैं।
उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से उजली क्यों
उसकी रिंग टोन मेरी रिंग टोन से नई क्यों।
गर्मी में गर्मी क्यों और शीत ऋतु में ठंडक क्यों
पानी क्यों बरसा
मिट्टी क्यों महकी, रेत क्यों सूखी
बिल्ली क्यों भागी, कौआ क्यों बोला
ये मंहगाई
गोभी क्यों मंहगी, आलू क्यों सस्ता
खुशियों को पहचानते नहीं
नाराज़गी के कारण ढूंढते हैं।
चिड़चिड़ाते हैं, बड़बड़ाते हैं
अन्त में मुंह ढककर सो जाते हैं ।
और अगली सुबह
फिर वही राग अलापते हैं।
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करें किससे आशाएँ
मन में चिन्ताएँ सघन
मानों कानन में अगन
करें किससे आशाएँ
कैसे बुझाएँ ये तपन
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पीछे से झांकती है दुनिया
कुछ तो घटा होगा
जो यह पत्थर उठे होंगे।
कुछ तो टूटा होगा
जो यह घुटने फूटे होंगे।
कुछ तो मन में गुबार होगा
जो यूं हाथ उठे होंगे।
फिर, कश्मीर हो या कन्याकुमारी
कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
वह कौन-सी बात है
जो शब्दों में नहीं ढाली जा सकी,
कलम ने हाथ खींच लिया
और हाथ में पत्थर थमा दिया।
अरे ! अबला-सबला-विमला-कमला
की बात मत करो,
मत करो बात लाज, ममता, नेह की।
एक आवरण में छिपे हैं भाव
कौन समझेगा ?
न यूं ही आरोप-प्रत्यारोप में उलझो।
कहीं, कुछ तो बिखरा होगा।
कुछ तो हुआ होगा ऐसा
कि चुप्पी साधे सब देख रहे हैं
न रोक रहे हैं, न टोक रहे हैं,
कि पीछे से झांकती है दुनिया
न रोकती है, न मदद करती है
न राह दिखाती है
तमाशबीन हैं सब।
कुछ शब्दों के, कुछ नयनों के।
क्यों ? क्यों ?
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एक सुन्दर सी कृति बनाई मैंने
उपवन में कुछ पत्ते संग टहनी, कुछ फूल झरे थे।
मैं चुन लाई, देखो कितने सुन्दर हैं ये, गिरे पड़े थे।
न डाली पर जायेंगे न गुलदान में अब ये सजेंगे।
एक सुन्दर सी कृति बनाई मैंने, सब देख रहे थे।
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लीक पीटना छोड़ दें
युग बदलते हैं भाव कहां बदलते हैं।
राम-रावण तो हर युग में पनपते हैं।
कथाओं को घोट-घोट कर पी रहे हम]
लीक पीटना छोड़ दें तब जीवन संवरते हैं।
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इक नल लगवा दे भैया
कहां है अब पनघट
कहां है अब कृष्ण कन्हैया
क्यो इन सबमें
अब उलझा है मन दैया
इतना ही है तू
कृष्ण कन्हैया
तो मेरे घर में
इक नल लगवा दे भैया।
युग बदल गया
तू भी अपना यह वेश बदल,
न छेड़ बैठना किसी को
गोपी समझ के
कारागार के द्वार खुले हैं दैया।
गीत-संगीत सब बदल गये
रास-बिहारी खिसक गये
ढोल की ताल अब बहक गई
रास-बिहारी चले गये
किचन में कितना काम पड़ा है मैया
इतना ही है तू
कृष्ण कन्हैया
तो अपनी अंगुली से
मेरे घर के सारे काम
करवा दे रे भैया।
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‘गर किसी पर न हो मरना तो जीने का मजा क्या
कुछ यूं बात हुई
उनसे आंखें चार हुईं
दिल, दिल से छू गया
कहां-कहां से बात हुई
कुछ हम न समझे
कुछ वे न समझे
कुछ हम समझे
और कुछ वे समझे
कभी नींद उड़ी
कभी दिन में तारे चमके
कभी सपनों ही सपनों में बात हुई
बहके-बहके भाव चले
आंखों ही आंखों में कुछ बात हुई
उम्र हमारी साठ हुई
मिलने लगे कुछ उलाहने
सुनने में आया
ये क्या कर बैठे
हम तो उन पर मर बैठे
ये भी क्या बात हुई
जी हां,
हमने उनको समझाया
‘गर किसी पर
न हो मरना
तो
जीने का मजा क्या
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मेरा घर जलाता कौन है
घर में भी अब नहीं सुरक्षित, विचलित मन को यह बात बताता कौन है,
भीड़-तन्त्र हावी हो रहा, कानून की तो बात यहं अब समझाता कौन है,
कौन है अपना, कौन पराया, कब क्या होगा, कब कौन मिटेगा, पता नहीं
यू तो सब अपने हैं, अपने-से लगते हैं, फिर मेरा घर जलाता कौन है।