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मन है कि
आकाश हुआ जाता है
विश्वास हुआ जाता है
तुम्हारे साथ
एक एहसास हुआ जाता है
घनघारे घटाओं में
यूं ही निराकार जिया जाता है
क्षणिक है यह रूप
भाव, पिघलेंगे
हवा बहेगी
सूरत, मिट जायेगी
तो क्या
मन में तो अंकित है इक रूप
बस,
उससे ही जिया जाता है
यूं ही, रहा जाता है
बस प्यार, किया जाता है
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जल लेने जाते कुएँ-ताल
बाईसवीं सदी के
मुहाने पर खड़े हम,
चाँद पर जल ढूँढ लाये
पर इस धरा पर
अभी भी
कुएँ, बावड़ियों की बात
बड़े गुरूर से करते हैं
कितना सरल लगता है
कह देना
चली गोरी
ले गागर नीर भरन को।
रसपान करते हैं
महिलाओं के सौन्दर्य का
उनकी कमनीय चाल का
घट भरकर लातीं
प्रेमरस में भिगोती
सखियों संग मदमाती
कहीं पिया की आस
कहीं राधा की प्यास।
नहीं दिखती हमें
आकाश से बरसती आग
बीहड़ वन-कानन
समस्याओं का जंजाल
कभी पुरुषों को नहीं देखा
सुबह-दोपहर-शाम
जल लेने जाते कुएँ-ताल।
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जीवन की नैया ऐसी भी होती है
जल इतना
विस्तारित होता है
जाना पहली बार।
अपने छूटे,
घर-वर टूटे।
लकड़ी से घर चलता था।
लकड़ी से घर बनता था।
लकड़ी से चूल्हा जलता था,
लकड़ी की चौखट के भीतर
ठहरी-ठहरी-सी थी ज़िन्दगी।
निडर भाव से जीते थे,
अपनों के दम पर जीते थे।
पर लकड़ी कब लाठी बन जाती है,
राह हमें दिखलाती है,
जाना पहली बार।
अब राहें अकेली दिखती हैं,
अब, राहें बिखरी दिखती हैं,
पानी में कहां-कहां तिरती हैं।
इस विस्तारित सूनेपन में
राहें आप बनानी है,
जीवन की नैया ऐसी भी होती है,
जाना पहली बार।
अब देखें, कब तक लाठी चलती है,
अब देखें, किसकी लाठी चलती है।
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कहीं लहर-लहर, कभी भंवर-भंवर
जीवन एक बहती धारा है, जब चाहे, नित नई राहें बदले
कभी दुख की घनघोर घटाएं, कभी सरस-सरस घन बरसें
पल-पल साथी बदले, कोई छूटा, कभी नया मीत मिला
कहीं लहर-लहर, कभी भंवर-भंवर यही जीवन है, पगले
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नदी हो जाना
बहती नदी के
सौन्दर्य की प्रशंसा करना
कितना सरल है]
और नदी हो जाना
उतना ही कठिन।
+
नदी
मात्र नदी ही तो नहीं है]
यह प्रतीक है]
एक लम्बी लड़ाई की,
बुराईयों के विरुद्ध
कटुता और शुष्कता के विरुद्ध
निःस्वार्थ भावना की
निष्काम भाव से
कर्म किये जाने की
समर्पण और सेवा की
विनम्रता और तरलता की।
अपनी मंज़िल तक पहुंचने के लिए
प्रकृति से युद्ध की।
हर अमृत और विष पी सकने वाली।
नदी
कभी रुकती नहीं
थकती नहीं।
मीलों-मील दौड़ती
उंचाईयों-निचाईयों को नापती
विघ्न-बाधाओं से टकराती
दुनिया-भर की धुल-मिट्टी
अपने अंक में समेटती
जिन्दगी बिखेरती
नीचे की ओर बढ़कर भी
अपने कर्मों सेे
निरन्तर
उपर की ओर उठती हुई
- नदी-
कभी तो
रास्ते में ही
सूखकर रह जाती है
और कभी जा पहुंचती है
सागर-तल तक
तब उसे कोइ नहीं पहचानता
यहां
मिट जाता है
उसका अस्तित्व।
नदी समुद्र हो जाती है
बदल जाता है उसका नाम।
समुद्र और कोई नहीं है
नदी ही तो है
बार-बार आकर
समुद्र बनती हुई
चाहो तो तुम भी समुद्र हो सकते हो
पर इसके लिए पहले
नदी बनना होगा।
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मन गीत गुने
मृदंग बजे
सुर-साज सजे
मन-मीत मिले
मन गीत गुने
निर्जन वन में
वन-फूल खिले
अबोल बोले
मन-भाव बने
इस निर्जन में
इस कथा कहे
अमर प्रेम की
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प्रकृति का सौन्दर्य
फूलों पर मंडराती तितली को मदमाते देखा
भंवरे को फूलों से गुपचुप पराग चुराते देखा
सूरज की गुनगुनी धूप, चंदा से चांदनी आई
हमने गिरगिट को कभी न रंग बदलते देखा
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दो घूंट
छोड़ के देख
एक बार
बस एक बार
दो घूंट
छोड़ के देख
दो घूंट का लालच।
शाम ढले घर लौट
पर छोड़ के
दो घूंट का लालच।
फिर देख,
पहली बार देख
महकते हैं
तेरी बगिया में फूल।
पर एक बार
बस एक बार
छोड़ के देख
दो घूंट का लालच।
देख
फिर देख
जिन्दगी उदास है।
द्वार पर टिकी
एक मूरत।
निहारती है
सूनी सड़क।
रोज़
दो आंखें पीती हैं।
जिन्हें, देख नहीं पाता तू।
क्योंकि
पी के आता है
तू
दो घूंट।
डरते हैं,
रोते भी हैं
फूल।
और सहमकर
बेमौसम ही
मुरझा भी जाते हैं ये फूल।
कैसे जान पायेगा तू ये सब
पी के जो लौटता है
दो घूंट।
एक बार, बस एक बार
छोड़ के देख दो घूंट।
चेहरे पर उतर आयेगी
सुबह की सुहानी धूप।
बस उसी रोज़, बस उसी रोज़
जान पायेगा
कि महकते ही नहीं
चहकते भी हैं फूल।
जिन्दगी सुहानी है
हाथ की तेरे बात है
बस छोड़ दे, बस छोड़ दे
दो घूंट।
बस एक बार, छोड़ के देख
दो घूंट का लालच ।
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बस एक हिम्मत की चाह
जीवन बोझ-सा
समस्याएं नाग-सी
तब चाहिए
तुम्हारा साथ
हाथ पकड़ा है
मैं तुम्हें समस्याओं से बचाउं
तुम मेरे साथ
तो जीवन भी बोझ-सा नहीं
बस एक हिम्मत की चाह
होंगे हम साथ-साथ
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ब्लाकिंग ब्लाकिंग
अब क्या लिखें आज मन की बात। लिखने में संकोच भी होता है और लिखे बिना रहा भी नहीं जा सकता। अब हर किसी से तो अपने मन की पीड़ा बांटी नहीं जा सकती। कुछ ही तो मित्र हैं जिनसे मन की बात कह लेती हूं।
तो लीजिए कल फिर एक दुर्घटना घट गई एक मंच पर मेरे साथ। बहुत-बहुत ध्यान रखती हूं प्रतिक्रियाएं लिखते समय, किन्तु इस बार एक अन्य रूप में मेरी प्रतिक्रिया मुझे धोखा दे गई।
हुआ यूं कि एक कवि महोदय की रचना मुझे बहुत पसन्द आई। हम प्रंशसा में प्रायः लिख देते हैं: ‘‘बहुत अच्छी रचना’’, ‘‘सुन्दर रचना’’, आदि-आदि। मैं लिख गई ‘‘ बहुत सुन्दर, बहुत खूबसूरत’’ ^^रचना** शब्द कापी-पेस्ट में छूट गया।
मेरा ध्यान नहीं गया कि कवि महोदय ने अपनी कविता के साथ अपना सुन्दर-सा चित्र भी लगाया था।
लीजिए हो गई हमसे गलती से मिस्टेक। कवि महोदय की प्रसन्नता का पारावार नहीं, पहले मैत्री संदेश आया, हमने देखा कि उनके 123 मित्र हमारी भी सूची में हैं, कविताएं तो उनकी हम पसन्द करते ही थे। हमने सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर दी।
बस !! लगा संदेश बाक्स घनघनाने, आने लगे चित्र पर चित्र, कविताओं पर कविताएं, प्रशंसा के अम्बार, रात दस बजे मैसेंजर बजने लगा। मेरी वाॅल से मेरी ही फ़ोटो उठा-उठाकर मेरे संदेश बाक्स में आने लगीं। समझाया, लिखा, कहा पर कोई प्रभाव नहीं।
वेसे तो हम ऐसे मित्रों को Block कर देते हैं किन्तु इस बार एक नया उपाय सूझा।
हमने अपना आधार कार्ड भेज दिया,
अब हम Blocked हैं।
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जिन्दगी कोई तकरार नहीं है
जिन्दगी गणित का कोई दो दूनी चार नहीं है
गुणा-भाग अगर कभी छूट गया तो हार नहीं है
कभी धूप है तो कभी छांव और कभी है आंधी
सुख-दुख में बीतेगी, जिन्दगी कोई तकरार नहीं है