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चहक-चहक कर
फुदक-फुदक कर
चल आज नया खेल हम खेंलें।
प्रेम प्रतीक बनाये मानव,
चल हम इस पर इठला कर देखें।
तू क्या देखे टुकुर-टुकुर,
तू क्या देखे इधर-उधर,
कुछ बदला है, कुछ बदलेगा।
कर लो तुम सब स्वीकार अगर,
मौसम बदलेगा,
नव-पल्लव तो आयेंगे।
अभी चलें कहीं और
लौटकर अगले मौसम में,
घर हम यहीं बनायेंगे।
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बैठे ठाले
चित्राधारित रचना हास्य
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मैं जिस डाल पर बैठा हूं, उसे ही काट रहा हूं, आपको कोई आपत्ति, कोई कष्ट आपको? नहीं न, तो काटने दीजिए, गिरूंगा तो मैं गिरूंगा, हड्डियां टूटेंगी तो मेरी टूटेंगी, आपको क्या? क्यों अपनी टांग अड़ाते हैं आप किसी और के मामले में। बता दूं कि दूसरों के मामलों में टांग अड़ाने पर भी टांग टूट जाती है।
हा हा! आजकल आरी से पेड़ कौन काटता है भला। आजकल तो मशीने हैं, पलभर में पूरा वृक्ष धराशायी। मैं जानता हूं कि आप क्या कहेंगे। आप कहेंगे कि यह तो मूर्खता प्रदर्शित करने का प्रतीक है कि जिस डाली पर बैठे उसी को काटना। मुहावरा है। किन्तु मूर्खता प्रदर्शित करने की आवश्यकता ही क्या ? प्रदर्शित करना है तो बुद्धिमानी कीजिए, चतुराई कीजिए, दक्षता कीजिए। किसी की भी मूर्खता तो उसके मुंह खोलते ही पता लग जाती है।
और हर समय गम्भीर बात करना ज़रूरी होता है क्या? जानता हूं मैं कि वृक्ष पर्यावरण की सुरक्षा के लिए ज़रूरी हैं। हमने विकास की आंधी में बहुत कुछ खो दिया है। आधुनिकता के पीछे भाग कर हम अपनी बहुत हानि कर रहे हैं। पर सूखा वृक्ष है तो काटेंगे ही, लकड़ी काम आयेगी और नये वृक्ष लगायेंगे किन्तु आपने तो पता नहीं कितनी कहानियां बना डालीं कि जिस डाल पर बैठा है, उसे ही काट रहा है।
मैं तो आप सबकी कल्पनाशक्ति देख रहा था कि मेरे इस चित्र को देखकर आप क्या सोचते हैं। आप ही इस चित्र को ध्यान से देखकर बताईये ज़रा, मैं इस वृक्ष पर चढ़ा कैसे? न डाली, न सहारा, न सीढ़ी। और लक्कड़हारे की तो मेरी यूनिफ़ार्म भी नहीं है। तो फिर ! प्रतीकात्मक है, मूर्खता प्रदर्शित करने का।
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और भी ग़म हैं मुहब्बत के सिवा
समझ नहीं पाते हैं
कि धरा पर
ये कैसे प्राणी रहते हैं
ज़रा-सा पास-पास बैठे देखा नहीं
कि इश्क, मुहब्ब्त, प्यार के
चर्चे होने लगते हैं।
तोता-मैना
की कहानियां बनाने लगते हैं।
अरे !
क्या तुम्हारे पास नहीं हैं
जिन्दगी के और भी मसले
जिन्हें सुलझाने के लिए
कंधे से कंधा मिलाकर चलना पड़ता है,
सोचना-समझना पड़ता है।
देखो तो,
मौसम बदल रहा है
निकाल रहे हो न तुम
गर्म कपड़े, रजाईयां-कम्बल,
हमें भी तो नया घोंसला बनाना है,
तिनका-तिनका जमाना है,
सर्दी भर के लिए भोजन जुटाना है।
बच्चों को उड़ना सिखाना है,
शिकारियों से बचना बताना है।
अब
हमारी जिन्दगी के सारे फ़लसफ़े तो
तुम्हारी समझ में आने से रहे।
गालिब ने कहा था
ज़माने में
और भी ग़म हैं मुहब्बत के सिवा
और
इश्क ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया
बस इतना ही समझाना है !!!!
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आत्मविश्वास :यह अंहकार नहीं है
आत्मविश्वास की डोर लिए चलते हैं यह अभिमान नहीं है।
स्वाभिमान हमारा सम्बल है यह दर्प का आधार नहीं है।
साहस दिखलाया आत्मनिर्भरता का, मार्ग यह सुगम नहीं,
अस्तित्व बनाकर अपना, जीते हैं, यह अंहकार नहीं है।
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फूलों की मधुर मुस्कान
हथेलियों पर लेकर आये हैं फूलों की मधुर मुस्कान
जीवन महका, रंगों की आभा से खिल रही मुस्कान
पीले रंगों से मन बासन्ती हो उठा, क्यों बहक रहा
प्यार का संदेश है यहाँ हर पल बिखर रही मुस्कान
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पवित्रता के मापदण्ड
पवित्रता के
मापदण्ड होते हैं
कहीं कम
कहीं ज़्यादा होते हैं।
लेकिन हर
किसी के लिए
नहीं होते हैं।
फिर
तोलते हैं
न जाने
किस तराजू में
हर बार
नये-नये माप
और दण्ड होते हैं।
जानती हूँ
अधिकांश को
मेरी यह बात
समझ नहीं आई होगी
क्योंकि
युगों-युगों से
बन रहे
इन माप और दण्डों को
आज तक
कौन समझ पाया है
जिसके माथे जड़े हैं
वह भी
वास्तविकता
कहाँ जान पाया है।
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मन के सच्चे
कानों के तो कच्चे हैं
लेकिन मन के सच्चे हैं
जो सुनते हैं कह देते हैं
मन में कुछ न रखे हैं।
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आँसू और मुस्कुराहट
तुम्हारी छोटी-छोटी बातें
अक्सर
बड़ी चोट दे जाती हैं
पूछते नहीं तुम
क्या हुआ
बस डाँटकर
चल देते हो।
मैं भी आँसुओं के भीतर
मुस्कुरा कर रह जाती हूँ।
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नेह की डोर
कुछ बन्धन
विश्वास के होते हैं
कुछ अपनेपन के
और कुछ एहसासों के।
एक नेह की डोर
बंधी रहती है इनमें
जिसका
ओर-छोर नहीं होता
गांठें भी नहीं होतीं
बस
अदृश्य भावों से जुड़ी
मन में बसीं
बेनाम
बेमिसाल
बेशकीमती।
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हिन्दी की हम बात करें
शिक्षा से बाहर हुई, काम काज की भाषा नहीं, हम मानें या न मानें
हिन्दी की हम बात करें , बच्चे पढ़ते अंग्रेज़ी में, यह तो हम हैं जाने
विश्वगुरू बनने चले , अपने घर में मान नहीं है अपनी ही भाषा का
वैज्ञानिक भाषा को रोमन में लिखकर हम अपने को हिन्दीवाला मानें
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चल रही है ज़िन्दगी
थमी-थमी, रुकी-रुकी-सी चल रही है ज़िन्दगी।
कभी भीगी, कभी ठहरी-सी दिख रही है जिन्दगी।
देखो-देखो, बूँदों ने जग पर अपना रूप सजाया
रोशनियों में डूब रही, कहीं गहराती है ज़िन्दगी।