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प्रेम-प्यार की बात न करना,
घृणा के बीज हम बो रहे हैं।
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सम्बन्धों का मान नहीं अब,
दीवारें हम अब चिन रहे हैं।
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काले-गोरे की बात चल रही,
चेहरों को रंगों से पोत रहे हैं ।
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अमीर-गरीब की बात कर रहे,
पैसे से दुनिया को तोल रहे हैं ।अ
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कौन है सच्चा, कौन है झूठा,
बिन जाने हम कोस रहे हैं।
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पढ़ना-लिखना बात पुरानी
सुनी-सुनाई पर चल रहे हैं।
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सर्वधर्म समभाव भूल गये,
भेद-भाव हम ढो रहे हैं।
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अपने-अपने रूप चुन लिए,
किस्से रोज़ नये बुन रहे हैं।
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राजनीति का ज्ञान नहीं है
चर्चा में हम लगे हुए हैं।
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डर-डर कर जी रहे हैं
खुले आसमान के नीचे
विघ्न-बाधाओं को लांघकर
समुद्र मापकर
आकाश और धरा को नापकर,
हवाओं को बांधकर,
मानव समझ बैठा था
स्वयं को विधाता, सर्वशक्तिमान।
और आज
अपनी ही करनी से,
अपनी ही कथनी से,
अपने ही कर्मों से,
अपने लिए, आप ही,
तैयार कर लिया है कारागार।
सीमाओं में रहना सीख रहा है,
अपनापन अपनाना सीख रहा है।
उच्च विचार पता नहीं,
पर सादा जीवन जी रहा है।
इच्छाओं पर प्रतिबन्ध लगा है।
आशाओं पर तुषारापात हुआ है।
चाबी अपने पास है
पर खोलने से डरा हुआ है।
दूरियों में जी रहा है
नज़दीकियों से भाग रहा है।
हर पल मर-मर कर जी रहा है,
हर पल डर-डर कर जी रहा है।
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इंसानियत को जीत
अपने भीतर झांककर इंसानियत को जीत
कर सके तो कर अपनी हैवानियत पर जीत
क्या करेगा किसी के गुण दोष देखकर
पूजा, अर्चना, आराधना का अर्थ है बस यही
कर ऐसे कर्म बनें सब इंसानियत के मीत
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ठकोसले बहुत हैं
न मन थका-हारा, न तन थका-हारा
किसी झूठ, किसी सच में फंसा बेचारा
यहां दुनियादारी के ठकोसले बहुत हैं
किस-किससे निपटे, बुरा फंसा बेचारा
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जब टिकट किसी का कटता है
सुनते हैं कोई एक भाग्य-विधाता सबके लेखे लिखता है
अलग-अलग नामों से, धर्मों से सबके दिल में बसता है
फिर न जाने क्यों झगड़े होते, जग में इतने लफड़े होते
रह जाता है सब यहीं, जब टिकट किसी का कटता है
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अपने मन की सुन
अपने-आपको
अपनी नज़र से
देखना-परखना
अपने सौन्दर्य पर
आप ही मोहित होना
कभी केवल
अपने लिए सजना-संवरना
दर्पण से बात करना
अपनी मुस्कुराहट से
आनन्दित होना
फूलों-सा महकना
रंगों की रंगीनियों में बहकना
चूड़ियों का खनकना
हार का लहकना
झुमकों की खनखन
पल्लू की थिरकन
मन में गुनगुन
बस अपने मन की सुन।
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पीछे से झांकती है दुनिया
कुछ तो घटा होगा
जो यह पत्थर उठे होंगे।
कुछ तो टूटा होगा
जो यह घुटने फूटे होंगे।
कुछ तो मन में गुबार होगा
जो यूं हाथ उठे होंगे।
फिर, कश्मीर हो या कन्याकुमारी
कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
वह कौन-सी बात है
जो शब्दों में नहीं ढाली जा सकी,
कलम ने हाथ खींच लिया
और हाथ में पत्थर थमा दिया।
अरे ! अबला-सबला-विमला-कमला
की बात मत करो,
मत करो बात लाज, ममता, नेह की।
एक आवरण में छिपे हैं भाव
कौन समझेगा ?
न यूं ही आरोप-प्रत्यारोप में उलझो।
कहीं, कुछ तो बिखरा होगा।
कुछ तो हुआ होगा ऐसा
कि चुप्पी साधे सब देख रहे हैं
न रोक रहे हैं, न टोक रहे हैं,
कि पीछे से झांकती है दुनिया
न रोकती है, न मदद करती है
न राह दिखाती है
तमाशबीन हैं सब।
कुछ शब्दों के, कुछ नयनों के।
क्यों ? क्यों ?
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अभिनन्दन करते मातृभूमि का
वन्दन करते, अभिनन्दन करते मातृभूमि का जिस पर हमने जन्म लिया।
लोकतन्त्र देता अधिकार असीमित, क्या कर्त्तव्यों की ओर कभी ध्यान दिया।
देशभक्ति के नारों से, कुछ गीतों, कुछ व्याखानों से, जय-जय-जयकारों से ,
पूछती हूं स्वयं से, इससे हटकर देशहित में और कौन-कौन-सा कर्म किया।
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पहचान नहीं
धन-दौलत थी तो खुले द्वार थे हमारे लिए
जब लुट गई थी द्वार बन्द हुए हमारे लिए
नाम भूल गये, रिश्ते छूट गये, पहचान नहीं
जब दौलत लौटी, हार लिए खड़े हमारे लिए
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रिश्तों के तो माने हैं
पेड़ सूखे तो क्या
सावन रूठे तो क्या
पत्ते झरे तो क्या
कांटे चुभे तो क्या।
हम भूले नहीं
अपना बसेरा।
लौट लौट कर आयेंगे
बसेरा यहीं बसायेंगे
तुम्हें न छोड़कर जायेंगे।
दु:ख सुख तो आने जाने हैं।
पर रिश्तों के तो माने हैं।
जब तक हैं
तब तक तो
इन्हें निभायेंगे।
बसेरा यहीं बसायेंगे।
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शायद यही जीवन है
इन राहों पर
खतरनाक अंधे मोड़
होते हैं
जो दिखते तो नहीं
बस अनुभव की बात होती है
कि आप जान जायें
पहचान जायें
इन अंधों मोड़ों को
नहीं जान पाते
नहीं देख पाते
नहीं समझ पाते
कि उस पार से आने वाला
जीवन लेकर आ रहा है
या मौत।
इधर ऊँचे खड़े पहाड़
कभी छत्रछाया-से लगते हैं
और कभी दरकते-खिसकते
जीवन लीलते।
उधर गहरी खाईयां डराती हैं
मोड़ों पर।
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फिर
बादलों के घेरे
बरसती बूंदें
अनुपम, अद्भुत,
अनुभूत सौन्दर्य में
उलझता है मन।
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शायद यही जीवन है।